JAWAD. मध्य प्रदेश की कुछ महत्वपूर्ण सीटों में शामिल है जावद विधानसभा सीट। राज्य के आखिरी छोर पर मौजूद जावद अरावली की खूबसूरत पहाड़ियों पर बसा हुआ है और राजस्थान की सीमा से लगा है। अफीम और लहसुन की खेती के लिए मशहूर जावद, मंदसौर लोकसभा सीट का एक हिस्सा है। राज्य सरकार में MSME मंत्री और बीजेपी के ओमप्रकाश सखलेचा यहां से विधायक हैं।
सियासी मिजाज
जावद में सीधा मुकाबला ज्यादातर कांग्रेस और बीजेपी के बीच ही रहा है। इस सीट पर फिलहाल बीजेपी काबिज है और MSME मंत्री ओमप्रकाश सखलेचा यहां से विधायक हैं। सखलेचा की पकड़ यहां इतनी मजबूत है कि 2003 से लेकर 2018 तक लगातार 4 बार बीजेपी के टिकट पर जीत हासिल कर चुके हैं। यानी यह सीट बीजेपी का गढ़ है। जावद की सत्ता पर जहां बीजेपी पिछले 20 सालों से अंगद की तरह पैर जमाए हुए है तो वहीं कांग्रेस आज भी अपना वनवास खत्म होने का इंतजार कर रही है।
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सियासी समीकरण
विधायक ओमप्रकाश सखलेचा पूर्व मुख्यमंत्री स्वर्गीय वीरेंद्र सखलेचा के बेटे हैं। जावद में 1998 में कांग्रेस आखिरी बार चुनाव जीती थी. इसके बाद 2003 में ओमप्रकाश सकलेचा यहां पहली बार बीजेपी के टिकट पर चुनाव लड़े और अपने प्रतिद्वंदी को हराने के बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। बहुत मुमकिन है कि अगले चुनाव में भी यहां बीजेपी अपनी चुनावी रणनीति सकलेचा को केंद्र में रखकर ही तैयार करे। वहीं दूसरी तरफ कांग्रेस में दावेदार तो कई हैं लेकिन जीत कोई दिला सके ऐसे चेहरे की तलाश जारी है। 2018 में कांग्रेस ने राजकुमार अहिर पर दांव तो लगाया लेकिन वो हार गए। यानी कांग्रेस के पास कोई जिताऊ उम्मीदवार नहीं है।
जातिगत समीकरण
जावद में जातिगत समीकरण चुनावी नतीजों को खासा प्रभावित करते हैं। धाकड़ जाति के 30 फीसदी वोटर्स यहां निर्णायक साबित होते हैं। इस इलाके में 17 फीसदी आदिवासी, 7 फीसदी पाटीदार, 6 फीसदी ब्राह्मण, 6 फीसदी राजपूत मतदाता है। इसके अलावा 18 फीसदी अल्पसंख्यक वोटर्स भी अहम स्थान रखते हैं।
मुद्दे
जावद विधानसभा क्षेत्र के विकास की रफ्तार उम्मीद के मुताबिक धीमी है। बीजेपी विधायक ने चुनाव से पहले यहां रोजगार देने का वादा किया था लेकिन इस दिशा में कोई खास उपलब्धि नजर नहीं आती। बेरोजगारी और उद्योगों की कमी से स्थानीय नाराज नजर आये। उद्योगों की कमी यहां एक बड़ा मुद्दा है। इसके अलावा रहवासियों की सबसे बड़ी समस्या जावद से दूसरी जगहों के लिए कनेक्टिविटी की है। शाम 6 बजे के बाद नीमच जिले के लिए भी ट्रांसपोर्ट सुविधा नहीं है। वहीं स्वास्थ्य सुविधा की कमी से जावद हमेशा से जूझता आया है। कुल मिलाकर विकास की रफ्तार धीमी होने की वजह से मिशन 2023 की जंग बीजेपी विधायक के लिए चुनौती भरी रहने वाली है।
इस मुद्दे पर जब हमने कांग्रेस-बीजेपी के नेताओं से बात की तो उन्होंने एक दूसरे पर आरोप लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ी...
इसके अलावा द सूत्र ने इलाके के प्रबुद्धजनों, वरिष्ठ पत्रकारों और आम जनता से बात की तो कुछ सवाल निकल कर आए...
सवाल
- जावद में विकास की रफ्तार धीमी क्यों ?
राजनीतिक इतिहास
जावद का राजनीतिक इतिहास देखें तो इस सीट पर सीधी फाइट बीजेपी और कांग्रेस के बीच ही रहती है। और ये सीट ज्यादातर समय बीजेपी के कब्जे में ही रही है। जावद की सत्ता पर जहां बीजेपी पिछले 15 वर्षों से भी ज्यादा समय से अंगद की तरह पैर जमाए हुए है तो वहीं कांग्रेस आज भी अपने वनवास खत्म होने का इंतजार कर रही है। साल 2003, 2008, 2013 और 2018 पिछले चार चुनावों से यह भाजपा ही जीतती आई है। बीजेपी की इस लगातार जीत का चेहरा रहे हैं ओमप्रकाश सकलेचा. जो यहां से जीत का चौका लगा चुके हैं। कांग्रेस अगर पिछले कई विधानसभा चुनाव में यहां वनवास काट रही है तो उसकी सबसे बड़ी वजह ही हैं यहां से बीजेपी विधायक ओम प्रकाश सकलेचा! सकलेचा जावद से विधायक तो हैं ही..साथ ही मध्य प्रदेश सरकार में मंत्री भी है और क्षेत्र के पूर्व मुख्यमंत्री स्वर्गीय विरेंद्र सकलेचा के पुत्र हैं। दरअसल जावद में 1998 में कांग्रेस आखिरी बार यह चुनाव जीती थी।
कांग्रेस को आज भी मजबूत चेहरे की तलाश
इसके बाद 2003 में ओमप्रकाश सकलेचा यहां पहली बार बीजेपी के टिकट पर चुनाव लड़े और अपने प्रतिद्वंदी को हराने के बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। 2008, 2013 और 2018 में भी बीजेपी ने ओमप्रकाश सकलेचा पर अपना भरोसा जताया, और ओमप्रकाश सकलेचा को टिकट दिया। बहुत मुमकिन है कि अगले चुनाव में भी यहां बीजेपी अपनी चुनावी रणनीति सकलेचा को केंद्र में रखकर ही तैयार करे। सखलेचा के रूप में जहां बीजेपी का जावद में चेहरा साफ है और मजबूत भी वहीं दूसरी ओर कांग्रेस में अपने दावेदार तो कई हैं लेकिन जीत कोई अभी तक नहीं दिला सका है इस सूची में सबसे पहला नाम राजकुमार अहिर का है। राजकुमार अहीर को 2013 के चुनाव में कांग्रेस ने मौका नहीं दिया था, जिससे नाराज होकर वो निर्दलीय चुनाव लड़े और दूसरे नंबर पर रहे। ऐसे में 2018 में कांग्रेस ने उन पर दांव तो लगाया लेकिन वो हार गए। अहीर के अलावा धाकड़ समाज से आने वाले समंदर पटेल भी कांग्रेस के टिकट की दावेदारी में शामिल थे। यानी कांग्रेस को आज भी एक ऐसे चेहरे की तलाश है जो उसे जिता सके। वहीं गुटबाजी की बात करे कमलनाथ गुट और मीनाक्षी नटराजन गुट के आपसे झगड़ों के चलते भी पार्टी को हार का सामना करना पड़ा है।
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