BHOPAL. मप्र में विधानसभा चुनाव अब आठ माह दूर रह गए हैं, लेकिन चुनाव तैयारियों के हिसाब से बीजेपी अपनी मुख्य प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस की तुलना में काफी आगे निकलती दिखाई पड़ती है। बीजेपी की रणनीति चुनाव के मद्देनजर समाज के हर वर्ग और समुदाय को साधने की है, जबकि कांग्रेस अभी संगठन के कील कांटे दुरूस्त करने में लगी है। चर्चा है कि पार्टी जल्द ही अपना चुनावी मेगा प्लान तैयार करेगी, लेकिन जमीनी स्तर पर इसको लेकर बहुत गंभीरता नजर नहीं आती।
अब जातियों को राजनीतिक रूप से संतुष्ट करने का अभियान
दूसरी तरफ मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान, बीजेपी और आरएसएस मिलकर हर कमजोर कड़ी को दुरुस्त करने में जुटे हैं। ऐसा लगता है कि पार्टी ने राज्य में पांचवीं बार सत्ता में वापसी को लेकर किए गए आंतरिक सर्वे की रिपोर्टों को गंभीरता से लेते हुए खामियों को ठीक करने में पूरी ताकत झोंक दी है। इसके लिए ‘रेवड़ी कल्चर’ का भरपूर उपयोग किया जा रहा है। मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने पहले आदिवासी, महिला, दलित और युवाओं को सीधे लाभ पहुंचाने वाली योजनाओं का ऐलान किया। अब विभिन्न जातियों को राजनीतिक रूप से संतुष्ट करने का अभियान चल रहा है। खासकर उन जातियों को महत्व दिया जा रहा है, जिनकी मप्र में संख्या काफी है और जिनमें सत्ता का पलड़ा झुकाने की ताकत है। बीते एक पखवाड़े में शिवराज ने सुनार, तेली, रजक और विश्वकर्मा समाज को साधने के लिए क्रमश: स्वर्ण कला, रजक कल्याण, तेलघानी और विश्वकर्मा कल्याण बोर्ड न सिर्फ घोषणा की बल्कि इनके गठन के आदेश भी जारी कर दिए। इन बोर्डों में अध्यक्षों के साथ चार-चार सदस्यों की नियुक्ति होगी। समझा जाता है कि इन चारों जातियों की प्रदेश में जनसंख्या डेढ़ करोड़ से ज्यादा है, जो 230 में से 105 विधानसभा सीटों पर जीत-हार पर सीधा असर डाल सकती हैं। वैसे भी घोषणाएं करते जाना शिवराज की ताकत और कमजोरी दोनों हैं। जाति आधारित ये बोर्ड संबंधित जातियों का कितना कल्याण करेंगे। यह बाद की बात है, लेकिन इससे एक राजनीतिक संदेश तो दिया ही गया है। और तो और अब किन्नरों को भी मप्र सरकार ने ओबीसी का दर्जा दे दिया है। इसके पहले प्रदेश में आठ निगम-मंडलों के अध्यक्षों को कैबिनेट मंत्री व 4 उपाध्यक्षों को राज्यमंत्री का दर्जा देना भी भाजपा की चुनावी रणनीति का हिस्सा है। इनमें से कई नियुक्तियां तो सालों से अटकी पड़ी थीं। इनके अलावा पार्टी बूथ स्तर पर वोट डलवाने के लिए अलग रणनीति पर काम कर रही है।
रणनीति साफ है कि अगले विधानसभा चुनाव में नो रिस्क पॉलिसी। जाहिर है कि भाजपा अगर इन समाजों का साठ प्रतिशत वोट ले पाने में भी सफल हो गई तो अगली बार उसे सत्ता में आने से रोकना विपक्षी दलों के लिए नामुमकिन होगा। हालांकि अभी टिकट वितरण बड़ा फैक्टर है, जो चुनाव में अहम भूमिका अदा करेगा।
धर्म संवाद से रंग बदलेगा ?
उधर कांग्रेस के खेमे में अभी भी कोई सुविचारित रणनीति और संकल्प शक्ति का अभाव है। लेकिन हाल में उसने प्रदेश कांग्रेस कार्यालय में धर्म संवाद का आयोजन कर सभी को चौंकाया। इसमें कांग्रेस कार्यालय को भगवा झंडियों से पाट दिया गया था तथा प्रदेश के कई मंदिरों के पंडे पुजारियों को बुलाया गया था। इस सम्मेलन में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ ने ऐलान किया कि अगर कांग्रेस सत्ता में आई तो मठ मंदिरों के मामले में 1974 के पूर्व की स्थिति बहाल की जाएगी। अर्थात इस संस्थानों में से सरकारी हस्तक्षेप खत्म किया जाएगा। इस आयोजन से यह संदेश भी गया कि कांग्रेस को अब केवल बहुंख्यक वोटों की चिंता है, अल्पसंख्यकों की नहीं। खुद सेक्युलरवादी कांग्रेसी भी इस बदलाव से हैरान दिखे। ऐसे आयोजनों का पार्टी को कोई चुनावी लाभ मिलेगा, यह कहना मुश्किल है।
कांग्रेस बहुआयामी रणनीतिक का अभाव
उधर शीर्ष स्तर पर भी नेताओं में अपेक्षित समन्वय का अभाव है। पार्टी के वरिष्ठ नेतादिग्विजयसिंह जरूर गांव गांव जाकर दौरे कर रहे हैं और संगठन में जान फूंकने में लगे हैं। लेकिन भाजपा से दो दो हाथ करने के लिए जैसी बहुआयामी समन्वित रणनीति की दरकार है, वैसा कहीं कुछ नहीं दिख रहा। बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, महंगाई, साम्प्रदायिकता जैसे पिटे हुए मुद्दों से हटकर पार्टी को अभी भी किसी भी गेमचेंजर मुद्दे की तलाश है। इस बीच पार्टी ने अपने पूर्व नेता ज्योतिरादित्य पर हमले फिर तेज कर दिए तो जवाब में ज्योतिरादित्य ने भी तगड़ा प्रहार किया है। इससे इतना तो साफ है कि ज्योतिरादित्य के लिए वापसी के रास्ते बंद हो चुके हैं और वो भी शायद अब इसके लिए तैयार नहीं है। ज्योतिरादित्य की असली नाराजी दिग्विजयसिंह से है और दिग्विजय भी नहीं चाहते कि ‘महाराज’ कांग्रेस में लौटें।
ज्योतिरादित्य की नजर मप्र के मुख्यमंत्री पद पर है जिसकी संभावना कम है
इसी रणनीति के तहत ज्योतिरादित्य के सिंधिया परिवार द्वारा 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के साथ गद्दारी का मुद्दा भी उछाला गया, लेकिन उसका कोई बहुत असर होगा, ऐसा नहीं लगता। ज्योतिरादित्य की नजर राज्य के मुख्यमंत्री पद पर है, लेकिन भाजपा उन्हें इतनी जल्दी यह तोहफा देगी, इसकी संभावना कम है। यह काफी कुछ इस बात पर भी निर्भर करता है कि चुनाव में ग्वालियर-चंबल अंचल में इस बार सिंधिया कैसे परफार्म करते हैं। अलबत्ता ज्योतिरादित्य एपीसोड उसी धारावाहिक की अहम कड़ी है, जिसमें राहुल गांधी के कई विश्वस्त एक एक करके उनसे दूर जा रहे हैं। आश्चर्य नहीं कि इस सीरियल का अगला भाग राजस्थान में सचिन पायलट का हो। अगर पायलट ने भी कांग्रेस छोड़ी तो उसका असर मप्र में भी होगा। गुर्जर वोट कांग्रेस से छिटक सकता है।
बसपा और आप
मध्यप्रदेश में विपक्षी खेमे की दूसरी पार्टियां जैसे बसपा भी अभी संगठन को सक्रिय करने में जुटी है तो आम आदमी पार्टी में राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा मिलने से उत्साह है। लेकिन जमीनी तैयारियां अभी कुछ खास नहीं दिख रही हैं।