कमलनाथ का नाम लेकर मध्यप्रदेश की सत्ता में वापसी करना चाहती है बीजेपी! जानिए, क्या है अमित शाह के दौरे की असली वजह?

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Harish Divekar
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कमलनाथ का नाम लेकर मध्यप्रदेश की सत्ता में वापसी करना चाहती है बीजेपी! जानिए, क्या है अमित शाह के दौरे की असली वजह?

BHOPAL. मध्यप्रदेश में कांग्रेस के प्रदेशाध्यक्ष कमलनाथ को घेरना तो सिर्फ बहाना है। उनकी सीट पर ज्यादा फोकस बढ़ाकर, कमलनाथ को उनके ही गढ़ में घेरने का शिगूफा छोड़कर बीजेपी अपने एक बड़े डर को छुपाने की कोशिश कर रही है। इस डर का राज 2018 के चुनावी नतीजों में छुपा है। ये डर सिर्फ हार को दोहराने का नहीं है बल्कि चंद ऐसी सीटों के हाथ से निकल जाने का है जिस पर कभी बीजेपी की मजबूत पकड़ थी, लेकिन 2018 के नतीजों ने उस पकड़ को कमजोर कर दिया। अब वही पुरानी मजबूती लाने के लिए बीजेपी के प्रदेश स्तर के नेता तो सक्रिय हो ही चुके हैं। बीजेपी के चाणक्य अमित शाह और जेपी नड्डा का सारा फोकस भी उन्हीं सीटों पर शिफ्ट हो चुका है।



कमलनाथ के गढ़ पर टिकी बीजेपी की नजरें



बीते कुछ दिनों से ये अटकलें हैं कि बीजेपी की नजरें अब कमलनाथ के गढ़ पर टिक चुकी हैं। कोशिश है कि साल 2024 के लोकसभा चुनाव में कमलनाथ की सीट यानी छिंदवाड़ा भी बीजेपी की झोली में चली जाए। यही वजह है कि केंद्रीय मंत्री अमित शाह बहुत जल्द छिंदवाड़ा के दौरे पर आने वाले हैं। गिरिराज सिंह पहले से ही इस सीट के चक्कर काट रहे हैं। कमलनाथ के गढ़ पर बीजेपी की नजरे हैं इसमें कोई शक नहीं, लेकिन अमित शाह का दौरा सिर्फ एक सीट की वजह से नहीं है। शाह जैसा खिलाड़ी मैदान में उतरेगा तो लक्ष्य भी बढ़ा ही होगा। खबरें तो यहां तक हैं कि अमित शाह के एक दौरे के बाद छिंदवाड़ा या आसपास की सीटों पर और भी दौरे हो सकते हैं। उसके बाद जेपी नड्डा भी छिंदवाड़ा का रुख कर सकते हैं।



सिर्फ एक नहीं 84 सीटों का गणित



बीजेपी के इतने बड़े-बड़े दिग्गज क्या सिर्फ एक सीट के लिए इतनी जद्दोजहद करेंगे। नहीं, दरअसल ये मामला कुछ और है। बात सिर्फ एक सीट की नहीं 84 सीटों की है जिनका ताल्लुक कमलनाथ की सीट छिंदवाड़ा से भी है। इन 84 सीटों पर बीजेपी का गणित 2018 में बुरी तरह बिगड़ा था। वैसे बीजेपी ये दलील भी देती रही है कि एंटीइन्कंबेंसी 2018 की हार के बाद खत्म हो गई, लेकिन सच्चाई ये है कि एक-एक सीट के लिए बीजेपी को भी एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ रहा है। अपनी ही दलीलों पर खुद बीजेपी को भी शायद भरोसा नहीं है। इसलिए बड़े पैमाने पर 84 सीटों पर चुनाव प्रचार शुरू हो चुका है। क्योंकि हाथ आ गईं तो यही 84 सीटें किंग मेकर साबित होंगी।



बीजेपी की सबसे बड़ी चुनौती आदिवासी सीटें



बीजेपी से रूठे चंबल, बुंदेलखंड और अब विंध्य को भी साधने में बीजेपी को पूरी ताकत लगानी है। इन सबके बीच सबसे बड़ी चुनौती बनी है प्रदेश की आदिवासी सीटें, जिनकी ताकत को नजरअंदाज करना खुद बीजेपी के दिग्गजों के बस से बाहर है। अमित शाह और जेपी नड्डा का दौरा तो अब हो रहा है। आदिवासी सीटों पर सेटिंग जमाने की कवायद पिछले साल अगस्त-सितंबर से ही शुरू हो चुकी थी। अगस्त में अमित शाह 3 दिन के एमपी दौरे पर थे, तब आदिवासी नेताओं से ही मुलाकात की थी। पीएम नरेंद्र मोदी इससे पहले ही बिरसा मुंडा की जयंती पर आ चुके हैं। तब मंच पर उनके साथ ज्यादा से ज्यादा आदिवासी नेताओं को जगह दी गई थी। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू भी राष्ट्रपति का पद संभालने के बाद मध्यप्रदेश के आदिवासी क्षेत्र में ही आईं थीं।



आदिवासी वोटर्स पर दांव लगाने के लिए नए दलों की एंट्री



बीजेपी को ये अंदाजा भी हो चुका है कि इस बार कितने ही कदम उठा लिए जाएं कम पड़ सकते हैं। क्योंकि आदिवासी वोटर्स पर दांव लगाने के लिए कुछ नए दल भी मैदान में उतरे हैं, जिसमें सबसे ज्यादा चुनौती बना है जयस। जो लगातार आदिवासियों की मांगें बुलंद कर रहा है। सभी आदिवासी सीटों पर प्रत्याशी उतारने का ऐलान भी कर चुका है। पेसा एक्ट वैसे तो मध्यप्रदेश में लागू किया जा चुका है, लेकिन जयस जमीनी स्तर पर उसकी खामियां गिनाने से बाज नहीं आ रहा। ये हालात बीजेपी के लिए चिंताजनक हैं। इसलिए बड़े नेताओं की सक्रियता भी तेजी से बढ़ रही है।



MP में आदिवासी सीटें किंग मेकर



मध्यप्रदेश में आदिवासी सीटें हर बार किंग मेकर बनती रहीं हैं। ये सीटें जिसके साथ होती हैं, वहीं सूबे की सत्ता पर राज करता है।




  • मध्यप्रदेश में आदिवासियों के लिए 47 सीटें आरक्षित हैं।


  • आदिवासी बहुल इलाके में 84 सीटें हैं।

  • 2013 में बीजेपी को 84 में से 59 सीटों पर जीत हासिल हुई थी।

  • ये आंकड़ा 2018 में घटकर 34 सीटों पर आ गया था और बीजेपी को सत्ता गंवानी पड़ी थी।

  • आरक्षित सीटों का आंकड़ा देखें तो 2013 में 47 आरक्षित सीटों में से बीजेपी के पास 31 सीटें थीं।

  • ये सीटें 2018 में घटकर 16 रह गईं।



  • आदिवासी इलाकों में जमीन मजबूत करना चाहती है बीजेपी



    इस साल होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले आदिवासी इलाकों में अपनी जमीन मजबूत करना बीजेपी के लिए अहम हो गया है। अब सवाल एक क्षेत्र का नहीं। एक-एक सीट का है जिसे बचाने के लिए तगड़ी प्लानिंग की जरूरत है। बीजेपी के रणनीतिकार वैसे तो इस काम में एक्सपर्ट हैं, लेकिन इस बार सांसें अटकी हुई हैं।



    आदिवासी वोटर्स पर कांग्रेस की भी नजर



    इन सीटों की अहमियत कांग्रेस के लिए भी कम नहीं है। एक बार सिंहासन से बेदखल कर दी गई कांग्रेस को भी सिंहासन दोबारा चाहिए तो आदिवासी सीटों पर पकड़ बनाए रखनी होगी। जयस से जितना खतरा बीजेपी को है कांग्रेस को भी उतना ही है। या शायद उससे ज्यादा ही है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने 24 नवंबर को खंडवा जिले की पंधाना तहसील में आदिवासी नायक और क्रांतिकारी टंट्या भील की जन्मस्थली बड़ौदा अहीर गांव का दौरा किया था। कमलनाथ भी सभी नेताओं को आदिवासी क्षेत्रों में कनेक्शन स्ट्रॉन्ग करने के निर्देश दे चुके हैं।



    आदिवासी क्षेत्रों में जयस भी एक्टिव



    जयस भी समय-समय पर आदिवासी क्षेत्रों में आदिवासी विकास यात्रा निकाल ही रहा है। जिसका असर चुनावों पर पड़ने से इनकार नहीं किया जा सकता।



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    दिग्गजों के दौरे कितने असरदार होंगे?



    जयस ही नहीं टक्कर देने के लिए तो ओबीसी महासभा और भीम आर्मी भी मैदान में हैं, लेकिन आदिवासी इलाकों में सबसे ज्यादा असर जयस और गोंडवाना गणतंत्र पार्टी का पड़ सकता है। जो कांग्रेस और बीजेपी दोनों की ही चुनावी नैया को डांवाडोल कर सकती हैं। छिंदवाड़ा के बहाने इन सीटों पर बीजेपी ज्यादा फोकस रखना चाहती है। अब देखना ये है कि सरकार से नाराजगी और कार्यकर्ताओं की बेरुखी के बीच भी दिग्गजों के दौरे कितने असरदार हो सकते हैं।


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