हमें सिस्टम से कोई उम्मीद नहीं! MP के सरकारी विभागों में महिलाएं शोषण की शिकार, अधिकारी दबा रहे पीड़ितों की आवाज, आरोपी बेखौफ

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Ruchi Verma
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हमें सिस्टम से कोई उम्मीद नहीं! MP के सरकारी विभागों में महिलाएं शोषण की शिकार, अधिकारी दबा रहे पीड़ितों की आवाज, आरोपी बेखौफ

BHOPAL: "मन दुखता है, ख़राब लगता है, परेशानी भी होती है। लेकिन क्या करुँ? कोई कुछ नहीं करता। छोटी बेटी है जिसकी जिम्मेदारी मुझपर है। उसकी आँखों के इलाज और उसकी पढ़ाई के लिए नौकरी करनी पड़ रही है, नहीं तो मैंने तो कब का इस्तीफा दे दिया होता। कुछ समझ नहीं आ रहा। बहुत मेन्टल स्ट्रेस है। सरकार और सिस्टम बहुत अनएथिकल हैं। महिलाओं के लिए बेहद ख़राब। "





—संगीता (बदला हुआ नाम), शासकीय कर्मचारी, भोपाल, मार्च 2023





इन कुछ शब्दों में एक कार्यस्थल उत्पीड़न से जूझ रही एक महिला का मानसिक आघात, दर्द, पीड़ा और भावनात्मक उलझन साफ़ जाहिर होते हैं। समाज में कार्यस्थल प्रताड़ना झेल रही पीड़ित महिला किस कदर परेशान है ये इससे समझा जा सकता है कि पहले तो समाज के डर से, आरोपी द्वारा बदले की कार्रवाई के डर से, स्वयं और परिवार की बदनामी के डर से काफी वक़्त तक कुछ नहीं बोलती। और जब हिम्मत कर शिकायत करती भी है, तो लापरवाह सिस्टम, अधिकारियों का गैरजिम्मेदाराना रवैया, पॉश कानून का सही पालन न होना और इसके बाद लम्बी न्याय प्रक्रिया अक्सर उन्हें निराश करती है। इंडियन नेशनल बार एसोसिएशन द्वारा 2017 के एक सर्वे ने भी इसी बात पर मुहर लगाते हुए कि अधिकांश पीड़ित महिलाओं को शिकायत तंत्र में भरोसा नहीं है। ये उस तथाकथित सभ्य समाज के लिए शर्मसार कर देने वाली बात है जो हर साल 8 मार्च को महिला दिवस पर लुभावने आयोजन कर महिला सशक्तिकरण का झूठा दम्भ भरता है। साथ ही स्वास्थ्य, पोषण, शिक्षा और सामाजिक कल्याण से संबंधित योजनाओं को लागू करने के लिए लाखों महिलाओं को नियोजित करने वाली राज्य सरकार भी कामकाजी महिलाओं की सुरक्षा के लिए कदम उठाने में विफल रही हैं।





केंद्र सरकार ने जब अप्रैल 2013 में 'प्रिवेंशन ऑफ़ सेक्शुअल हैरेसमेंट ऑफ विमिन एट वर्कप्लेस एक्ट' (POSH) को मंजूरी दी, तब ये लगा कि इस एक्ट के रूप में अब करोड़ों भारतीय महिलाओं को कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के खिलाफ एक मजबूत कानूनी संरक्षण का रास्ता मिल गया है। इस कानून को भारत में महिला सुरक्षा के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण विधायी कदम के रूप में देखा गया। लेकिन आज जमीनी स्तर पर जो हाल हैं, उन्हें देखकर तो यही लगता है कि देश कि ज्यादातर कामकाजी महिलाओं के लिए, खास तौर से मध्य प्रदेश में, यह कानून केवल कागज पर ही मौजूद है। कारण ये इस कानून पर अमल न होना। जिसकी वजह से ज्यादातर पीड़ित कामकाजी महिलाओं को न्याय नहीं मिल पा रहा। अगर आज भंवरी देवी ज़िंदा होती - जिनके साथ हुए अन्याय के बाद विशाखा गाइडलाइंस बानी, पॉश एक्ट बना - तो शायद उन्हें भी न्याय नहीं ही मिलता। इस रिपोर्ट में सामने आए कार्यस्थल प्रताड़ना के कुछ केसेस तो यही कहते हैं:





CPA वनाधिकारी की जॉइनिंग रोकी,बड़े साहब से अकेले में मिलने को कहा,आपत्ति पर हुयी सतपुड़ा अटैच, बैतूल पोस्टिंग राजधानी की महिला वनाधिकारी संगीता (बदला हुआ नाम) का मामला ही देखें, जिसकी पोस्टिंग और जॉइनिंग को लेकर उसे बार-बार परेशान किया गया और मजबूर कर दिया गया घर बैठने को। पीड़ित महिला की नौकरी राजधानी परियोजना वन मंडल (CPA - जो अब बंद हो चुका है) में वनाधिकारी की पोस्ट पर लगी थी। पर उन्हें कार्यभार देने में महीनों तक लटकाया गया। बार-बार अनुरोध करने के बावजूद किसी और की नियुक्ति कर दी गयी। पीड़ित को जॉइनिंग देने के लिए बिना शासन की स्वीकृति के स्पेशल रेंज बना दिया गया। पीड़ित महिला वनाधिकारी ने आरोप लगाया कि: "जब मैंने विभाग में कथित भ्रष्टाचार एवं गड़बड़िया उजाकर करने  की कोशिश की तो मुझपर CCF को खुश करने एवं विश्रामगृह में जाकर उनसे मिलने का दबाव डाला जाने लगा। बाद में मुझे CPA से हटाकर हटाते हुए सतपुड़ा में अटैच करवा दिया गया। अब परेशान करने के इरादे से मेरी पोस्टिंग बैतूल कर दी गई है। मेरी बेटी के इलाज के लिए मुझे उसे बार-बार चेन्नई-हैदराबाद ले जाना पड़ता है, मुश्किल होती है। इसलिए अभी चाइल्ड-केयर लीव ली हुई है, जो ख़त्म होने वाली है। पता नहीं आगे कैसे चीज़े सम्भलेंगी। मुझे तो इस सिस्टम से, सरकार से या अधिकारियों से, किसी से कोई भी उम्मीद नहीं रह गई है। प्रताड़ित महिला सिर्फ झेलती ही रहती है। "





दरअसल, कार्यस्थल उत्पीड़न को ज्यादातर मामूली घटना समझा जाता है। इस बात से बिलकुल बेपरवाह कि कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न अनुच्छेद 14,15 और 21 के तहत मिलने वाले महिला के मौलिक अधिकारों का सीधा-सीधा हनन है। भारत के संविधान में महिलाओं को काम करने के अवसर की समानता दी गई है और गरिमा और प्रतिष्ठा से भरा हुआ जीवन दिया गया है। और ये समाज की विकृत मानसिकता ही है कि कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के ज्यादातर मामलों में पीड़ित महिलाओं से सिर्फ यही उम्मीद की जाती है कि इसे स्वीकार कर लें और किसी प्रकार का विरोध न दर्ज़ कराएं।





जांच समिति में एक भी महिला सदस्य नहीं पीड़िता संगीता ने अधिकारियों से इस बात कि शिकायत भी की थी कि उसके द्वारा की गई शिकायत की जाँच के लिए एक समिति बनाई गई, लेकिन पीड़िता को ही इस बारे में कोई जानकारी देना जरुरी नहीं समझा गया। इसपर भी अधिकारियों की बेपरवाही कह लें या भी कानून के प्रति डर ख़त्म होना कि उक्त समिति में एक भी महिला सदस्य नहीं थी। जबकि प्रताड़ना की शिकायत एक महिला कर्मचारी द्वारा की गई थी।





पीड़िता ने बताया, "विशाखा समिति जैसी बातें सब बकवास है, कुछ नहीं होता। उलटा बार-बार एक ही बात पूछने के लिए हमें ही परेशान किया जाता है। आरोपी को कोई कुछ नहीं बोलता, वो तो खुला घूमते रहते हैं।"





पीड़िता की केस के विपरीत नियमों के अनुसार, 'सेक्सुअल हैरेसमेंट ऑफ वुमन एट वर्कप्लेस एक्ट-2013' (POSH एक्ट) के तहत आतंरिक शिकायत समिति (इन्टर्नल कम्प्लेन्ट्स कमेटी या ICC) की अध्यक्ष संस्थान की सबसे वरिष्ठ महिला अधिकारी या कर्मचारी ही होनी चाहिए। साथ ही नामित सदस्यों में से भी आधी महिला होनी चाहिए। इसमें एक सदस्य यौन-हिंसा के मामलों पर काम करने वाली किसी एनजीओ की सदस्य होनी चाहिए। CPA वनाधिकारी के मामले में साफ़ है कि अधिकांश संगठन अभी भी POSH कानून का अनुपालन करने में विफल हैं, या कहलें कि आंतरिक समितियों के सदस्यों ने इस प्रक्रिया को पर्याप्त रूप से नहीं समझा है। संगीता के केस को आज 3 साल होने आए लेकिन पीड़िता को कोई हल नहीं मिला। मामले में जब द सूत्र ने अधिकारियों से बात की तो कोई साफ जवाब नहीं मिला।





पीड़ित की मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर गहरा असर महिला के साथ हुआ कार्यस्थल उत्पीड़न संविधान द्वारा उन्हें दिए गए सामान अधिकार का ही हनन नहीं करता बल्कि उनकी मानसिक अवस्था और शारीरिक स्वास्थ्य पर भी गहरा असर डालता है। और यदि हम अपने संविधान की बात करें तो भले ही कहीं विशेष रूप से स्वास्थ्य के अधिकार को एक मौलिक अधिकार के रूप में चिन्हित नहीं किया गया है, पर सुप्रीम कोर्ट के विभिन्न निर्णयों के माध्यम से, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत स्वास्थ्य के अधिकार को एक मौलिक अधिकार माना गया है।  साल 2022 के जर्नल ऑफ अमेरिकन हार्ट एसोशिएसन में छपे एक शोध के मुताबिक कार्यस्थल पर अगर कोई महिला यौन हिंसा और उत्पीड़न का सामना करती है तो उस महिला में हाई ब्लड प्रेशर की समस्या ज्यादा देखी गई है। इस कारण महिलाओं में हाइपरटेंशन और हार्ट अटैक का खतरा भी बढ़ जाता है। बहुत सारी अन्य स्वास्थ्य समस्याएं हिंसा के खत्म होने के बाद तक भी बनी रहती हैं। महिलाओं के साथ होने वाली यौन हिंसा की घटनाएं उन्हें बीमारियों से घेरती है। लेकिन हिंसा के बारे में खुलकर बात न करने पर बीमारियों का बोझ उन पर और अधिक बढ़ता है।





"मेरे साथ हुए कार्यस्थल उत्पीड़न के बाद में कई हफ़्तों तक कमरे में बंद रही। ऑफिस में मेरे साथ इतना सब होने से मेरे मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा असर पड़ा। शुरू में तो मेरा खान-पीना ही बंद हो गया था। मैं हफ़्तों तक घर से बहार नहीं निकली। समझ नहीं आ रहा था क्या करुँ। ऑफिस में अधिकारी सपोर्ट नहीं कर रहे थे। बेज्जती का डर की इस 49 के उम्र में अगर मैंने ऐसी शिकायत की तो लोग क्या कहेंगे? मेरी दोनों बेटियाँ और पति ने मुझे सपोर्ट किया, तो मैं अपने साथ हुए उत्पीड़न के खिलाफ आवाज उठा पाई, लेकिन सपोर्ट के आभाव में ज्यादातर महिलाएं ऐसा नहीं कर पाती।"





—पायल (बदला हुआ नाम), शासकीय कर्मचारी, भोपाल, मार्च 2023





विंध्य हर्बल्स में महिला कर्मचारी से छेड़छाड़, अधिकारीयों ने किया आरोपी का बचाव लघु वनोपज संघ के अंतर्गत विंध्य हर्बल के बरखेड़ा पठानी कार्यालय में पदस्थ एक पायल  ने अगस्त, 2021 को ऑफिस के ही पुरुष कर्मचारी पर छेड़छाड़ एवं गलत हरकत करने के आरोप लगाए थे। पीड़ित महिला कर्मचारी का कहना है कि आरोपी नाकेदार गोपाल शरण तिवारी लम्बे वक़्त से उन्हें परेशान कर रहा था। वह जानभूझकर आते-जाते रास्ते में उनसे टकराता था। कुछ वक़्त तक उन्होंने नजरअंदाज किया लेकिन उसकी हिम्मत इतनी बढ़ गई कि एक बार उसने पीड़िता का हाथ तक पकड़ लिया और उनके साथ बदतमीजी की। जब पीड़ित महिला कर्मचारी ने आरोपी की इस हरकत का विरोध किया और इसकी शिकायत SDO वी ऐस पिल्लई और तत्कालीन चीफ एग्जीक्यूटिव अफसर विवेक जैन से की। अधिकारियों ने आननफानन में मामले की जांच के लिए आतंरिक जांच समिति बनाई, जिसकी हेड रेंज अफसर प्रीति अकोडिया को बनाया गया।





अधिकारियों का गैरजिम्मेदाराना रवैया पीड़िता का आरोप है उच्चाधिकारियों - SDO, सीईओ और रेंज अफसर - ने दबाव बनाकर महिला कर्मचारी को पुलिस में शिकायत नहीं करने दी और उन्हें आतंरिक जांच के नाम पर 40 दिनों तक घुमाया गया। जांच में भी आरोपी की बजाय उन्हें ही मानसिक प्रताड़ना मिली क्योंकि उन्हें बार-बार कमेटी के पुरुष सदस्यों के सामने सवालों के जवाब देने में असहजता महसूस होती थी। मैंने महिला हेड रेंज अफसर से कई बार गुजारिश की कि महिला होने के नाते वो मेरी मदद करें। लेकिन उन्होंने कहा कि इससे उन्हें कोई मतलब नहीं। कागज़ का जवाब कागज़ से देना पड़ेगा!





सही कार्यवाही न होने से बढ़ रहे दोषियों के हौसले 49 वर्षीय पीड़ित महिला कर्मचारी का आरोप है कि शिकायत करने के बाद भी आरोपी की हरकतों में कोई बदलाव नहीं आया। अधिकारियों की उदासीन रवैये से आरोपी की हिम्मत बढ़ी एवं उसने फिर से बदसलूकी करते हुए मुझे नौकरी से निकलवाने की धमकी दी। इससे तंग आकर पीड़िता थाने पहुंची और शिकायत दर्ज कराई, "थक-हारकर मैंने गोविंदपुरा थाने में FIR करवाई। जिसके उपरांत आरोपी को एक दिन के लिए जेल भी भेजा गया परन्तु अब वो बाहर है। इसलिए मैं मानसिक रूप से काफी परेशान रहती हूँ। आरोपी पहले भी अन्य महिला कर्मचारियों से अश्लील हरकत और मारपीट कर चुका है। "





पुलिस का रवैया आरोपी के खिलाफ गोविंदपुरा थाना पुलिस ने धारा 354/354क (छेड़छाड़ और हाथ पकड़ने) का मामला दर्ज है। पीड़िता ने बताया: "शुरू में पुलिस ने भी उन मामले में गंभीरता नहीं दिखाई थी। बाद में उनकी काफी मशक्कत करने पर पुलिस ने केस डायरी फ़ाइल की थी। जिसके बाद आरोपी को रिमांड पर भेजा गया और वह एक दिन जेल में रहा। हालाँकि, उसको बेल मिल गई है और अब वो बाहर है।"





सिस्टम से मायूस पायल आगे बताती है, "अगर मेरा केस कोर्ट में नहीं चल रहा होता, तो में इस नौकरी से इस्तीफा दे देती। ऐसे भयानक माहौल में काम क्यों करूँ? सिस्टम से तो नहीं बस न्यायालय से ही कुछ उम्मीद है। पर आज डेढ़ साल हो गए और कोर्ट केस अभी भी चल ही रहा है। हर सुनवाई के बाद दो महीने बाद कि डेट मिलती है और मामला आगे बढ़ जाता है। " सिर्फ पायल ही नहीं कई केसेस में ऐसा देखा गया कि कार्यस्थल में यौन उत्पीड़न महिलाओं को नौकरी छोड़ने के लिए बहुत हद तक जिम्मेदार है।





महिला उत्पीड़न के कई मामलों में आरोपी पर कार्यवाही करने की बजाय उल्टा शिकायकर्ता महिला को ही परेशान किया जाता है। ऐसे ही एक मामले में वन विहार में रेंजर एवं डिप्टी रेंजर के लिए बने मकानों को बाबू और दृवारों को नियमविरुद्ध आवंटन करने पर अपना हक़ मांगने वाली महिला वनपाल को बिना किसी कारण के आनन्-फानन में तबादला कर दिया गया।  महिला की शिकायत की सुनवाई के बजाय गलत आवंटन को ही सही ठहराने के लिए फ़ाइल बना दी गयी।





"मैं जिस घर में रह रही थी वो मकान गड्ढे में था जिसमें बारिश के मौसम में पानी भर जाता था। और चूँकि मैं दिनभर ऑफिस मैं रहती हूँ और क्योंकि मेरा बच्चा विकलांग है जिसको कुछ समझ नहीं पाता है, मैंने अधिकारियों को रिक्वेस्ट किया कि मेरा आवास परिवर्तित कर दिया जाए। परन्तु मेरी अर्ज़ी को यह कहकर मना कर दिया गया कि दूसरा आवास मेरे ग्रेडपे मैं नहीं आता है। परन्तु कुछ समय बाद ही उन्होंने वही आवास मुझसे कम 1900 ग्रेड पे वाले कर्मचारी को दे दिया, जबकि मेरा ग्रेड पे 2400 का है। जब मैंने इस बात पर आपत्ति उठाई और अपने अधिकारियों की शिकायत उच्च स्तर पर करी तो उन्होंने मेरा ट्रांसफर वन विहार से हटाकर भोपाल में ही दूसरी जगह कर दिया।"





—पीड़ित महिला वनपाल, भोपाल





राज्य सरकार के पास कार्यस्थल पर महिला उत्पीड़न से जुड़े ठोस आंकड़े नहीं: बात सिर्फ यहीं नहीं रूकती है। एक बड़ी निराशाजनक बात ये भी है कि राज्य सरकार ने  पॉश एक्ट लागू होने के बाद से अभी तक ऐसा कोई मौलिक परिमाणात्मक अध्ययन (अगर है तो) सार्वजनिक नहीं किया है, जो कार्यस्थल में महिलाओं के यौन उत्पीड़न का आंकड़ा बताता हो। महिलाओं के कार्यस्थल पर उत्पीड़न का अभी तक जो छुटपुट डाटा (केंद्र के महिला एवं बाल विकास विभाग और NCERB डाटा के अनुसार ) मौजूद है उसके मुताबिक--2017 से 2019 (29 नवंबर) तक मध्य प्रदेश में निजी/सार्वजनिक वर्कप्लेस पर यौन उत्पीड़न की कुल 513 शिकायतें दर्ज हुई जिसमें से 30 मध्य प्रदेश से हैं। 2020 में MP में निजी/सार्वजनिक वर्कप्लेस पर यौन उत्पीड़न के 40 मामले रिपोर्ट किये गए। हालाँकि, मध्य प्रदेश महिला एवं बाल विकास विभाग के अधिकारियों का कहना है कि उनके पास आंकड़े नहीं है कि कितने संस्थानों में ICC कमेटी का गठन हुआ है या नहीं। यानी साफ है कि जिस विभाग की इस कानून का पालन करवाने की जिम्मेदारी है उसे ही नहीं पता कि आखिरकार कितने विभागों में कमेटी का गठन हुआ है या नहीं।





83% संस्थाओं में विशाखा कमिटी नहीं, भोपाल में यह आंकड़ा 77%! एक गैर-सरकारी संगठन संगिनी NGO द्वारा की गई एक स्टडी के अनुसार मध्य प्रदेश करीब 83 फीसदी संस्थाओं में आंतरिक शिकायत समिति का गठन नहीं हुआ है। और राजधानी भोपाल के लिए यह आंकड़ा करीब 77 फीसदी है! यह स्टडी राज्य के 500 निजी और सरकारी संस्थानों में की गई थी। ज्यादातर संस्थानों के कर्मचारियों का कहना है कि नियोक्ता और अधिकारियों को इस मामले की परवाह ही नहीं हैं। सर्वे के मुताबिक़ जिन 499 वर्कप्लेसेस पर सर्वे किया गया उनमें केवल 17.2 फीसदी जगहों पर ही यानी 86 वर्कप्लेसेस में ही इंटरनल कम्प्लेंट्स कमिटी बनी पाई गई। इसके मुताबिक़ भोपाल में 200 में से 46, इंदौर में 101 में से 8, ग्वालियर में 100 में से 21 और सतना में 94 में से सिर्फ 11 जगहों पर ही  इंटरनल कम्प्लेंट्स कमिटी है। तो वहीँ  जिन 17 फीसदी संस्थानों में इंटरनल कंप्लेंट कमिटी बनी भी है तो उन कमेटी के हेड्स से जब यह पूछा गया कि कमेटी की समय-समय पर होने वाली निर्धारित बैठकें कब होती हैं? तो करीब 44% ने यह कहा कि वे इस बारे में जानते ही नहीं! स्टडी में एक और बेहद परेशान करने वाला तथ्य सामने निकल कर आया कि निजी क्षेत्र के 75.86% कर्मचारियों की तुलना में सरकारी ऑफिस के कुल 62.0% कर्मचारी ही कार्यस्थल पर सुरक्षित महसूस करते हैं।





कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न से पीड़ित महिला की गरिमा पर सवाल उठता है, उसके निजता के अधिकार का हनन होता है, उसके सामान रूप से कार्य करने की स्वतन्त्रता छिनती है, वो एक स्वस्थ जीवन जीने से दूर होती है। कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के ज्यादातर केसेस में पीड़ित महिलाएँ सालों-साल से इंसाफ के इंतज़ार में हैं। पर उपरोक्त मामलों को देखकर समझ आता है कि जब सरकार के नुमाइंदे ही सरकार के बनाए नियमों अधिनियम की परिपालन में कोताही बरत रहे हैं तो कैसे सरकारी तंत्र महिला सुरक्षा, महिला सम्मान, महिला अधिकार और उनसे जुड़े अन्य अधिकारों के साथ न्याय कर सकता है? ये एक बड़ा सवाल है- सरकार के सामने भी और समाज के सामने भी। पर साथ ही एक उम्मीद भी है कि कुछ-एक महिलाएं जो कार्यस्थल से जुड़े उत्पीड़न के अपने अनुभवों को बोलने की हिम्मत दिखा रहीं हैं, उससे दूसरों की मदद करने वाले सुधारों की राह थोड़ी तो आसान होगी।





जानिये कैसे काम करती है आंतरिक शिकायत समिति (ICC)







  • 'सेक्सुअल हैरेसमेंट ऑफ वुमन एट वर्कप्लेस एक्ट-2013' (POSH एक्ट) को विशाखा गाइडलाइंस का ही विस्तृत रूप है। इस एक्ट के तहत हर वो दफ़्तर जहां दस या उससे अधिक लोग काम करते हैं वहां एक अंदरुनी शिकायत समिति (इंटरनल कंप्लेंट कमेटी या ICC) होनी चाहिए। यह समिति संस्थान में काम करने वाली महिलाओं की शारीरिक और यौन उत्पीड़न जैसी समस्याओं को सुनती है। इसकी अध्यक्ष संस्थान की सबसे वरिष्ठ महिला अधिकारी या कर्मचारी ही होनी चाहिए। साथ ही नामित सदस्यों में से भी आधी महिला होनी चाहिए। इसमें एक सदस्य यौन-हिंसा के मामलों पर काम करने वाली किसी एनजीओ की सदस्य होनी चाहिए। ऐसा नहीं करने पर संस्थान पर 50,000 रुपये का जुर्माना लगाने या फिर उसका लाइसेंस भी निरस्त करने अथवा दोनों कार्रवाई करने का प्रावधान है। वहीँ असंगठित क्षेत्रों में यौन शोषण की शिकायतें लोकल कंप्लेंट कमेटी/LCC द्वारा सुनी जाती है जिसे जिला प्रशासन द्वारा स्थापित किया जाता है। दो तरह की समिति के संबंध में कानून व्यवस्था बनाने का उद्देश्य यह था कि कोई भी वर्किंग वूमेन इस अधिनियम के बाहर ना हो।



  • शिकायत कैसे करें कोई भी प्रोफेशनल सर्विस करने वाली महिला के साथ हुआ उत्पीड़न वर्कप्लेस हैरेसमेंट के दायरे में आएगा। यदि किसी संस्थान में महिला के साथ कोई अप्रिय घटना होती है तो तीन महीने के अंदर ICC के पास शिकायत दर्ज करा सकती है। हालांकि संस्थान की आंतरिक समिति शिकायत देने के लिए और समय भी दे सकती है। अगर संस्थान छोड़ चुकी हैं तो आपको एक समय सीमा में ही शिकायत देनी होगी। कई साल पुराना मामला होने के चलते संस्थान जांच नहीं कर सकता। तब आप लोकल पुलिस या फिर कोर्ट में भी शिकायत कर सकती हैं। संस्थान की जिम्मेदारी है कि जिस पीड़ित ने शिकायत की है उसपर किसी तरह के हमले या दबाव न हो।


  • जांच ICC को शिकायत मिलने के 90 दिनों के भीतर मामले की जांच कर अंतिम रिपोर्ट नियोक्ता को सौंपनी होती है। इसमें ICC दोनों पक्षों को सुनकर उनके बयान रिकॉर्ड करती है और अपनी सफाई में साक्ष्य प्रस्तुत करने का मौका देती है। कमेटी ने अगर किसी को दोषी पाया तो उसके खिलाफ IPC की संबंधित धाराओं के अलावा अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाएगी। कमेटी को साल भर में आई शिकायतों और कार्रवाई के बारे में सरकार को रिपोर्ट करना होगा। हाल ही में जनवरी,2023 में दिल्ली हाईकोर्ट ने एक केस की सुनवाई करते हुए कहा है कि यौन उत्पीड़न की शिकायत और जांच की कार्यवाही केवल इसलिए रद्द नहीं की जा सकती, क्योंकि आंतरिक शिकायत समिति कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013 (आईसीसी) धारा 11(4) के तहत उल्लिखित 90 दिनों की समय-सीमा के भीतर जांच पूरी करने में विफल रही है।


  • POSH एक्ट में दोषी के लिए क्या है सजा यौन उत्पीड़न का आरोप साबित होने पर कार्रवाई के प्रकार सभी कंपनियों में अलग-अलग हो सकते हैं। इसमें कोई कंपनी दोषी कर्मचारी के वेतन से कटौती कर सकती या फिर उसे नौकरी से भी निकाल सकती है।


  • मुआवजा इसी तरह पीड़िता की परेशानी और भावनात्मक संकट, करियर के नुकसान, चिकित्सा खर्च को देखते हुए मुआवजा भी दिया जा सकता है। हालांकि, ICC की जांच से संतुष्ट नहीं होने पर दोनों पक्ष 90 दिन में न्यायालय की शरण भी ले सकते हैं।


  • समझौते के जरिए कराया जा सकता है मामले का निस्तारण कानून के अनुसार, ICC जांच से पहले या फिर शिकायतकर्ता के अनुरोध पर सुलह के माध्यम से उनके और प्रतिवादी के बीच मामले को निपटाने के लिए कदम उठा सकती है। हालांकि, इसके लिए दोनों पक्षों के बीच पैसों का लेनदेन नहीं होना चाहिए।


  • किसे मानेंगे कार्यस्थल उत्पीड़न POSH एक्ट के अनुसार, शारीरिक-मानसिक यौन उत्पीड़न के साथ ही नौकरी में प्राथमिकता का वादा कर यौन संबंध मांग करना, नौकरी से निकालने की धमकी देना, कार्य करना मुश्किल बनाना और अपमानजनक व्यवहार भी यौन उत्पीड़न की श्रेणी माना जाता है।






  • जानिये क्यों जरूरत पड़ी थी विशाखा गाइडलाइंस/POSH ACT की?







    • 1992 में, राजस्थान के जयपुर के पास भातेरी गांव की एक सरकारी सामाजिक कार्यकर्ता, भंवरी देवी का उसके गांव के ऊंची जाति के पुरुषों ने सामूहिक बलात्कार किया था। उसका कसूर इतना था कि वो राजस्थान सरकार की महिला विकास कार्यक्रम के तहत क्षेत्र में  बाल-विवाह को रोकने की कोशिश कर रही थी।



  • न्याय पाने के लिए भंवरी देवी ने इन लोगों के खिलाफ मुकदमा दर्ज कराया लेकिन पहले तो पुलिस ने केस दर्ज करने में देरी की और मेडिकल परीक्षकों ने जांच करने में देरी की, फिर मामले की जांच के दौरान पांच न्यायाधीशों को बिना किसी स्पष्टीकरण के बदला गया। अंततः 1995 में कोर्ट ने आरोपियों को हास्यास्पद तर्क देते हुए बरी कर दिया (कि ऊँची जाति के पुरुषों ने निचली जाति की महिला का बलात्कार नहीं किया होगा और उसके पति की उपस्थिति में उसका बलात्कार नहीं किया जा सकता)। राज्य सरकार -जो की भंवरी देवी के नियोक्ता थी - ने भी कोई जिम्मेदारी लेने से मना कर दिया, ये कहते हुए कि उनके साथ वो हादसा उनके खेत पर हुआ, कार्य स्थल पर नहीं।


  • साल 1997 में कुछ ग़ैर-सरकारी संस्थाओं ने भंवरी देवी के खिलाफ हुए इस अन्याय के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में ‘विशाखा’ नाम से एक जनहित याचिका दायर की। इस याचिका में भंवरी देवी और अन्य महिलाओं के साथ कार्यस्थल पर होने वाले यौन-उत्पीड़न के खिलाफ कार्रवाई की मांग की गई।


  • इसी ‘विशाखा’ जनहित याचिका के बाद साल 1997 में सुप्रीम कोर्ट ने कार्यस्थल पर होने वाले यौन-उत्पीड़न के खिलाफ कुछ निर्देश जारी किए जिन्हें ‘विशाखा गाइडलाइन्स’ के रूप में जाना गया। अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने ये भी कहा कि यौन-उत्पीड़न, संविधान में निहित मौलिक अधिकारों और स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन हैं। इसलिए सरकार इसे रोकने के लिए जरूरी कानून बनाए।


  • सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर 19 अक्टूबर 2012 को एक अन्य याचिका पर सुनवाई करते हुए नियामक संस्थाओं से कहा था कि वह यौन हिंसा से निपटने के समितियों का गठन करे। उसके बाद केंद्र सरकार ने अप्रैल 2013 में 'सेक्शुअल हैरेसमेंट ऑफ विमिन एट वर्कप्लेस एक्ट' (POSH) को मंजूरी दी।


  • इससे पहले साल 1997 से लेकर 2013 तक दफ़्तरों में विशाखा गाइडलाइन्स के आधार पर ही इन मामलों को देखा जाता रहा लेकिन 2013 में ‘सेक्सुअल हैरेसमेंट ऑफ वुमन एट वर्कप्लेस एक्ट’ आया। 






  • (नोट: रिपोर्ट में कई लोगों के लिए बदले हुए नामों का इस्तेमाल किया गया है और उनके अनुरोध पर उनकी गोपनीयता और सुरक्षा के लिए पहचान संबंधी जानकारी गुप्त रखी गई है।)



    POSH ACT-2013 Shivraj Singh Chauhan National Commission for Women VISHAKHA GUIDELINES #MeToo Madhya Pradesh State Women's Commission MADHYA PRADESH VAN VIBHAG Supreme Court WORKPLACE HARASSMENT IN GOVERNMENT ORGANISATIONS WORKPLACE HARASSMENT IN MADHYA PRADESH