BHOPAL. मध्यप्रदेश के जिस अंचल में अपने जनाधार को बढ़ाने के लिए बीजेपी सबसे ज्यादा परेशान है। उसी अंचल में बीजेपी लगातार बंटती जा रही है। 2018 में बीजेपी को तगड़ा झटका दे चुके इस अंचल में एक शिवराज बीजेपी है, एक नाराज बीजेपी है और एक वो बीजेपी है जिससे आलाकमान को सबसे ज्यादा उम्मीदें थीं लेकिन अब लगता है कि वही बीजेपी का सिरदर्द बन गई है।
दलबदल के बाद मध्यप्रदेश बीजेपी में बड़े बदलाव
2018 के चुनाव में मिली हार, बड़ी संख्या में दलबदल होकर लोगों का बीजेपी में मिलना। इस बड़े और बेहद महत्वपूर्ण घटनाक्रम के बाद बीजेपी में बड़े बदलाव आए हैं। ये मध्यप्रदेश की जंग जीतने की महत्वकांक्षा है या मजबूरी कि एक कैडर बेस पार्टी अब कांग्रेस की तर्ज पर कहीं-कहीं शक्ति प्रदर्शन झेल रही है और कई मुद्दों पर खामोश रहने पर मजबूर भी नजर आती है। बीजेपी वैसे तो प्रदेश के हर अंचल में अपने पुराने नेताओं का असंतोष झेल रही है। कार्यकर्ता भी कई मुद्दों को लेकर नाराज बताए जाते हैं। इन सारे समीकरण को बीजेपी साधने में माहिर रही है। इसलिए उम्मीद है कि चुनाव से पहले ये परेशानियां सुलझ जाएंगी। लेकिन सबसे बड़ी मुश्किल बना हुआ है ग्वालियर चंबल का अंचल। यहां एक नहीं कई फैक्टर्स पर बीजेपी को काम करना है। उन्हें सॉल्व करने में अपनी एनर्जी लगानी है। क्योंकि यहां आए दिन एक नया मसला खड़ा हो रहा है। शिवराज भाजपा, नाराज भाजपा तो है ही यहां महाराज भाजपा भी एक अलग चाल चलती नजर आ रही है।
2023 के चुनाव के नतीजे बताएंगे महाराज कितने खरे
2020 में ज्योतिरादित्य सिंधिया का कांग्रेस छोड़ बीजेपी में शामिल होना एक बड़ा सियासी घटनाक्रम था। न सिर्फ एमपी बल्कि देश की सियासत के इतिहास का ये पन्ना न कभी मिटाया नहीं जा सकेगा। सिंधिया को जिस उम्मीद से बीजेपी ने अपना बनाया था। वो 100 फीसदी उस पर खरे भी उतरे। तकरीबन 15 माह तक सत्ता से दूर रही बीजेपी को वापस प्रदेश की सत्ता तक पहुंचाया। बीजेपी की एक उम्मीद ये भी थी कि जिस अंचल में वो सबसे कमजोर पड़ी वहां सिंधिया उन्हें मजबूती देंगे। इस पर महाराज कितने खतरे उतरे ये 2023 के चुनावी नतीजों से ही तय होगा। फिलहाल जो ग्वालियर चंबल का हाल है वो इन उम्मीदों से बिलकुल अलग है।
ग्वालियर चंबल में बंटी बीजेपी
ग्वालियर चंबल में बीजेपी एक नजर नहीं आती। बल्कि इतनी बंटी नजर आती है कि सियासी हलकों में उनका एक नया नाम ही पड़ गया है। यहां एक शिवराज भाजपा है। एक महाराज भाजपा है और एक नाराज भाजपा। इन तीन में ही एक हिस्सा केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर का भी मान सकते हैं। ये तीन भाजपा अक्सर ऐसा कुछ कर रही हैं कि किसी और की नहीं खुद अपनी ही मुश्किलें बढ़ा रही हैं। हर खबर ये इशारा करती हुई लगती है कि भाजपा ग्वालियर चंबल में जीत से फिर चंद कदम दूर हो गई है।
कांग्रेस से बीजेपी में आए कार्यकर्ताओं से पुराने कार्यकर्ताओं की तनातनी
यहां बीजेपी और कांग्रेस से बीजेपी में आए कार्यकर्ताओं के बीच तनातनी की खबरें आम हैं। सिंधिया समर्थित कार्यकर्ताओं की वजह से बीजेपी समर्थित कार्यकर्ताओं की अनदेखी से इस तबके में नाराजगी तेजी से पनप रही है। ज्योतिरादित्य सिंधिया और नरेंद्र सिंह तोमर के सियासी संबंध कैसे हैं ये किसी से छिपा नहीं है। सिंधिया को हराने वाले सांसद केपी यादव भी गाहे बगाहे किसी तरह नाराजगी जाहिर कर ही देते हैं। प्रीतम लोधी फैक्टर को हवा देकर ओबीसी महासभा ने बीजेपी की मुश्किल बढ़ाने की ठान ही ली हैं और अब एक नया शीत युद्ध यहां जोर पकड़ता दिखाई दे रहा है।
ग्वालियर चंबल में शीत युद्ध
ग्वालियर चंबल के नेताओं का जिक्र हो तो गृह मंत्री नरोत्तम मिश्रा का नाम नहीं छोड़ा जा सकता। इस अंचल में खासतौर से दतिया जिले में उनके नाम का डंका बजता है। लेकिन अब उनके दबदबे को कम करने की भी पूरी कोशिश हो रही है। ग्वालियर के डबरा-पिछोर इलाके में पूर्व मंत्री और सिंधिया समर्थक इमरती देवी का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है। डबरा क्षेत्र नरोत्तम मिश्रा का भी गढ़ माना जाता है। ऐसे में दोनों के बीच टकराव होने से इनकार नहीं किया जा सकता। जब से इमरती बीजेपी में आई हैं, उनके और मिश्रा के बीच शीतयुद्ध जारी-सा ही नजर आता है। हाल ही में पंचायत और नगरीय निकाय चुनाव में इमरती देवी ने सक्रियता दिखाते हुए डबरा-भितरवार जनपद, डबरा और पिछोर नगर परिषद में अपने समर्थक प्रत्याशी को अध्यक्ष बनवाकर इस शीतयुद्ध को और हवा दे दी। हाल ही में इमरती देवी ने एक ऐसा बयान भी दे डाला जो सबको चौंका रहा है। सवाल ये है कि क्या इमरती देवी के तीखे बयान का इशारा प्रदेश के गृह मंत्री की तरफ ही है।
नरोत्तम मिश्रा और इमरती देवी के बीच शीत युद्ध
ग्वालियर चंबल में सियासी कलह कम होने की जगह लगातार बढ़ती ही जा रही है। खासतौर से डबरा का क्षेत्र जो प्रदेश के गृह मंत्री का भी गढ़ है और इमरती देवी कांग्रेस में रहने तक यहां से कई बार जीतती रहीं। दलबदल के बाद इमरती देवी कई बार नरोत्तम मिश्रा से मुलाकात करती भी नजर आईं। गृह मंत्री के भोपाल स्थित सरकारी आवास पर दोनों की बैठकें हुईं। लेकिन ये बैठकें किसी ऐसे नतीजे पर नहीं पहुंची शायद जो दोनों के बीचे सुलह की स्थिति कायम कर सकें। बल्कि सियासी तनाव तेजी से बढ़ता हुआ ही नजर आ रहा है। सियासी गलियारों में ये खबरें आम हो गई हैं कि डबरा में इमरती और नरोत्तम के बीच शीत युद्ध बढ़ रहा है। कुछ घटनाक्रम इस ओर ही इशारा करते हैं।
जमकर बरसीं इमरती देवी
इमरती देवी के बयान में पहले तो सिंधिया समर्थक का गुस्सा टीआई पर ही उतरा। उसके बाद वो भी कहती सुनाई दीं कि कुछ नेता लुटेरे टीआई को पदस्थ करवा रहे हैं। ये इशारा किसकी ओर है। क्या नरोत्तम मिश्रा की तरफ। अब तक उनकी मर्जी से ही डबरा में अफसरों की पदस्थापना होती रही है। खासतौर से पुलिस महकमा तो सीधे उनके अंडर में ही आता है। अब इमरती इतनी भी नादान नहीं कि ये तकनीकी पहलू न जानती हों। तो क्या जनता तक ये मैसेज पहुंचाने की कोशिश है कि गृह मंत्री की वजह से डबरा के लोग अपराध का शिकार हो रहे हैं। इस तरह की बयानबाजी से इमरती देवी क्या जताना चाहती हैं।
नरोत्तम मिश्रा के आड़े आ रहीं इमरती देवी
इससे पहले भी इमरती देवी सीधे सीधे नरोत्तम मिश्रा के आड़े आने की हिमायत कर चुकी हैं। नगरीय निकाय चुनाव में अपनी मर्जी के जनपद अध्यक्ष बनवाने में कामयाब रहने के बाद इमरती देवी ने मिश्रा के करीबी को मारने तक की धमकी दे दी थी। उससे पहले तो वो 18 प्रत्याशियों को बाड़े बंदी कर अपने साथ दिल्ली ही लेकर उड़न छू हो गई थीं। बीजेपी में रहते हुए इतनी हिमाकत इंडिविजुअल नेता ने पहले कभी नहीं की। उससे भी ज्यादा ताज्जुब इस बात का हुआ कि बीजेपी ने इस हिमाकत के खिलाफ सिंधिया समर्थक पर कोई कार्रवाई तक नहीं की। क्या अंचल में महाराज भाजपा को पार्टी आलाकमान की भी मूक सहमति है।
शिकायत का असर नहीं
ग्वालियर चंबल का कार्यकर्ता कई बार ये शिकायत ऊपर तक पहुंचा चुका है कि कांग्रेस से आए नेता बीजेपी की गाइडलाइन के अनुसार नहीं चल रहे। लेकिन उन पर न कोई सख्त एक्शन लिया गया न कोई ताकीद दी गई। बीजेपी भी शायद इस अंचल से ज्यादा सीटों के लिए सिंधिया के ही भरोसे पर है। इसलिए खामोश रहने में ही भलाई मान बैठी है।
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क्या परिस्थितियों के आगे बदलेगी बीजेपी ?
ग्वालियर चंबल के अंचल में नरेंद्र सिंह तोमर और ज्योतिरादित्य सिंधिया के बीच शीत युद्ध सबको नजर आता है। अब एक नया शीत युद्ध फिर आग पकड़ता जा रहा है। बीजेपी की मजबूरी ये है कि यहां उसे एक नहीं कई मोर्चों पर एक साथ जंग लड़ना है। दो बड़े नेताओं के मतभेद पार्टी को कितना नुकसान पहुंचा रहे हैं, नगरीय निकाय चुनाव के नतीजे बता ही रहे हैं। अब एक नया शीत युद्ध भी कुछ नुकसान तो पहुंचाएगा ही। इन हालातों में कार्यकर्ताओं का असंतोष दूर कर उन्हें एकजुट करने की बड़ी चुनौती है। पैर पसार रही ओबीसी महासभा और जयस के साथ जातीय समीकरण साधने का मुकाबला भी करना है। क्या ये तमाम परेशानियां पार्टी विद डिफरेंस वाली बीजेपी को बदलने पर मजबूर कर रही हैं।