BHOPAL: ''इस बात को हुए लगभग 2 साल से ज्यादा हो गए हैं। हम चाहे खुद को कितना ही अत्याधुनिक या संवेदनशील मानें, पर इन सालों में मैंने जो सहा, उससे मानवता, समाज और सरकार से मेरा विश्वास उठ गया है। '' ये कहना है सरकारी कर्मचारी संगीता (बदला गया नाम) का। दरअसल, साल 2021 में संगीता ने एक प्रभारी अधिकारी के खिलाफ उन्हें परेशान और प्रताड़ित करने का आरोप लगाते हुए शिकायत दर्ज कराई थी। आज करीब ढाई साल बाद भी मामला कोर्ट में ही है। राज्य में वर्कप्लेस हैरेसमेंट या यौन शोषण की शिकार महिला को न्याय दिलाना एक लंबी और अंतहीन प्रक्रिया बन गया है। मध्य प्रदेश में वर्कप्लेस हैरेसमेंट के मामलों पर द सूत्र की छानबीन में भी कुछ ऐसे ही चौकानें वाला तथ्य सामने आए हैं - वर्कप्लेस पर वुमन हैरेसमेंट के ज्यादातर मामलों का फैसला आने में कम-से-कम 5 साल लग जाते हैं। गिने-चुने ही मामले होंगे, जहां त्वरित न्याय दिया गया हो। इन केसेस में कन्विक्शन रेट 10% से भी कम का हैं। ज्यादातर केसेस या तो ICC (इंटरनल कंप्लेंट कमेटी) में अटके पड़े हैं या फिर महिला आयोग में या तो कोर्ट में। यही नहीं ज्यादातर मामलों में लम्बी और अंतहीन जांच प्रक्रिया के दौरान पीड़ित महिला और आरोपी एक ही जगह पर बने रहते हैं। इससे पीड़ित को गहरे मानसिक अवसाद से गुजरना पड़ता हैं। इन 3 मामलों से आपको बताने की कोशिश करते हैं...
1. राजा मानसिंह तोमर संगीत एवं कला विवि यौन उत्पीड़न केस, 2018
साल 2018 में ग्वालियर के राजा मानसिंह तोमर संगीत एवं कला विश्वविद्यालय एक विश्वविद्यालय में कई छात्राओं और साथ-साथ शिक्षिकाओं ने भी यौन उत्पीड़न के और जान से मारने की धमकी देने के संगीन आरोप लगाए थे। ये आरोप विश्वविद्यालय के गायन एवं चित्रकला विभाग के 4 प्रोफेसर-सहायक प्रोफेसर पर लगे थे। घटना के सामने आने के बाद विश्वविद्यालय की कुलपति प्रो. लवली शर्मा को उनके पद से हटा, उनकी जगह संस्कृति विभाग के अपर मुख्य सचिव मनोज श्रीवास्तव को कुलपति का प्रभार दे दिया गया था। नए कुलपति ने छात्रा यौन उत्पीड़न मामले में कहा था कि जांच के बाद दोषियों पर कड़ी कार्रवाई की जाएगी। यौन शोषण मामले की जांच के लिए विश्वविद्यालय द्वार एक जांच समिति का गठन भी किया था। साथ ही ये यौन शोषण के खिलाफ शिकायतें बाद में मध्य प्रदेश के राज्यपाल, मानवाधिकार आयोग, महिला आयोग और संस्कृति संचालनालय को भी भेजी गई थी।
वो साल 2018 था और अब साल 2023 चल रहा हैं - करीब 5 साल बीत चुके हैं, पर पीड़ित छात्राएं और शिक्षिकाएँ आज भी परेशान हैं। मामले में बार-बार शिकायतों के बावजूद कोई ठोस कार्यवाही नहीं हुई। उल्टा पीड़ितों की मुसीबतें अब और भी ज्यादा बढ़ गई हैं। कारण - जिन 4 सहायक प्रोफेसरों पर छात्रों के और टीचर्स ने शोषण और परेशान करने के आरोप लगाए, उनमें से सिर्फ एक को हटाया गया और बाकी तीन आरोपी आज भी वहीँ कार्यरत हैं।
"आतंरिक शिकायत समिति बनी, भोपाल में राज्यपाल को भी शिकायत की, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। कोई ठोस कार्यवाही न होते देख आरोपी प्रोफेसर्स के हौंसले बढ़ गए हैं।वो अभी भी सबको परेशान करते हैं। हमें हर वक़्त डर लगा रहता हैं। अगर ऐसा ही चलता रहा तो हमें यूनिवर्सिटी और अपनी पढ़ाई छोड़नी पड़ेगी।" —शिकायतकर्ता छात्राएँ, राजा मानसिंह तोमर संगीत एवं कला विश्वविद्यालय विश्वविद्यालय, ग्वालियर
2. हमीदिया अस्पताल मामला, 2022
14 जून को भोपाल के हमीदिया अस्पताल में हड़कंप मच गया था। हड़कंप इसलिए मचा क्योंकि पचास नर्सों ने एक साथ प्रदेश के मुख्यमंत्री, चिकित्सा शिक्षा मंत्री को पत्र लिखा और तत्कालीन सुपरिटेंडेंट डॉक्टर दीपक मरावी पर छेड़छाड़ और यौन शोषण के गंभीर आरोप लगाए थे। नर्सों ने एक शिकायती पत्र में लिखा था जो वायरल हो गया था। इस पत्र के बाद चिकित्सा शिक्षा मंत्री विश्वास सारंग ने कमिश्नर गुलशन बामरा को जांच के आदेश दिए। जांच के लिए करीब 400 से अधिक नर्सों के बयान लिए गए। जांच कमेटी ने दीपक मरावी को क्लीन चिट दे दी, जिसके बाद फिर से बवाल हुआ और दीपक मरावी को अधीक्षक पद से हटा दिया गया। नर्सों ने एक और बात कही थी कि वाक़ये के वक़्त ICC समिति उस अस्पताल में अस्तित्व में ही नहीं थी और जब शिकायत हुई तो आनन फानन में कमेटी का गठन किया गया। इसका मतलब साफ है कि यदि नर्सों की प्रताड़ना का मामला सामने नहीं आता तो हमीदिया अस्पताल में शायद समिति का गठन भी नहीं होता। इससे भी बड़ी बात ये हैं कि डॉ. मरावी को भले ही अधीक्षक पद से हटा दिया गया हो, लेकिन वो आज भी इसी अस्पताल में पोस्टेड हैं। वो भी तब जब ICC के रिपोर्ट में साफ़ हुआ था कि हमीदिया अस्पताल कार्यस्थल के हिसाब से महिलाओं के लिए अनुकूल नहीं है और उन्हें ऐसा माहौल दिया जा रहा है जहां महिलाएं काम नहीं कर सकतीं। इससे साफ पता चलता है कि अस्पताल प्रबंधन और स्वास्थ्य विभाग प्रिवेंशन ऑफ़ सेक्सुअल हरैसमेंट ऑफ़ वीमेन एट वर्कप्लेस एक्ट-2013 को लेकर गंभीर नहीं हैं।
3. वन विभाग उत्पीड़न केस,2021 ए
एक और ऐसे ही मामले में सरकारी विभाग में वर्कप्लेस सेक्सुअल हैरेसमेंट की शिकार महिला कर्मचारी का कहना हैं, "मेरे द्वारा शिकायत दर्ज करवाने के बावजूद आरोपी आज खुला घूम रहा हैं। न आंतरिक समिति मेरी कोई मदद कर पाई। और अब कोर्ट केस में भी वो बेल पर बाहर है। आज वो अलग डिपार्टमेंट में लेकिन एक ही कैंपस में काम करता है....कई बार रास्ते में आरोपी से टकराते हुए बची हूँ। इन सभी बातों से मानसिक तनाव और डर बना रहता है कि आरोपी फिर कहीं कोई हरकत न कर दे।
उपरोक्त तीनों ही केसेस इस रिपोर्ट की मुख्य बातो को साफतौर पर रेखांकित करते हैं- कार्यस्थल प्रताड़ना के मामलों में पीड़ित महिला को न्याय मिलने में देरी हो रही है। केसेस में गुनागारों का कन्विक्शन रेट काफी कम है, जिसकी वजह से गुनहगारों में सजा का डर खत्म हो रहा है। और ज्यादातर मामलों में पीड़ित महिला और आरोपी का एक ही जगह पर कार्यरत बने रहना। दरअसल, कार्यस्थल प्रबंधन का पीड़ित महिला कर्मचारी के प्रति पक्षपात भरा रवैये से विभागीय कार्यवाही पूरी न होना/ एक्शन न होना, ऐसे मामलों में पुलिस की लापरवाही और राजनीतिक शक्ति की कमी यौन उत्पीड़न के शिकार लोगों को न्याय दिलाने में देरी होने का सबसे बड़ा कारण है।
सुस्त और नाकाम आंतरिक समितियां?
ICC का सुचारु रूप से कार्य न करना भी कार्यस्थल यौन उत्पीड़न की मामलों में न्याय मिलने में देरी का प्रमुख कारण है। वैसे तो राज्य के ज्यादातर संस्थानों में ICC यानी इंटरनल कंप्लेंट कमेटी है ही नहीं, लेकिन जहां है भी तो इन समितियों का मुख्य काम यौन-उत्पीड़न की शिकायतों को दबाने का होता जा रहा है। जो महिलाएं शिकायत करती हैं, उन्हें पूरा संस्थान दबाने में लग जाता है। संस्थान की इज़्ज़त और साख नहीं बिगड़नी चाहिए। ऐसे ही महिला कर्मचारी निराश रहती हैं कि कुछ होना-जाना तो है नहीं, इसलिए लिखित शिकायतें दर्ज करने से बचती हैं ताकि शोषण के साथ थोड़ा-बहुत चैन से जी लें बजाय इसके कि शिकायत डालकर जीवन को नरक बना लें और करियर तबाह कर लें।
"इन्साफ मिलने में देरी उतना ही दर्दनाक है जितना कि स्वयं उत्पीड़न। मुकदमा लड़ने का फैसला करने के बाद, मुझे कई धमकियाँ मिली। मुझे परेशान करने वालों ने भी मेरे बारे में कई अफवाहें फैलाईं।” —गीता (परिवर्तित नाम)
कार्यस्थल उत्पीड़न पीड़ित महिला को इन्साफ मिलने में प्रक्रियात्मक देरी से अपराधी अक्सर इस दौरान पीड़ित को डराने की कोशिश करते हैं या फिर केस को अपने पक्ष में मोड़ने के लिए सबूतों के साथ छेड़छाड़ करते हैं। शायद न्याय पाने में शामिल इन्हीं दर्दनाक प्रक्रियाओं और कठिनाइयों के कारण पीड़ित महिला यौन उत्पीड़न का मामला दर्ज कराने के लिए अधिकारियों या पुलिस के पास जाने से हिचकिचाती है। वकील रचना ढींगरा भी इस बात से सहमत हैं कि कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के मामलों में न्याय मिलने की गति काफी धीमी है। जिसकी वजह से कई बार डेडएन्ड जैसी स्थिति उत्पन्न होती है। उहोंने एक बात कहीं कि ऐसे मामलों में कई बार आरोपी रेपीटेड ऑफेंडर होता है। क्योंकि लम्बी न्यायायिक प्रक्रिया को देखते हुए उसमें सज़ा का भय ख़त्म हो जाता है।
"ज्यादातर मामलों को दबा दिया जाता हैं। सालों तक पता नहीं चलता की केस का क्या हुआ। सरकारी महकमों के ही कितने ही केसेस में विक्टिम्स का पता नहीं। जबकि आरोपी खुला घूम रहा होता हैं। प्रताड़ित महिला ये सोचकर चुप हो जाती हैं कि उसकेकेस का कोई न्याय नहीं होगा, इससे अच्छा चुपचाप नौकरी ही कर लें।" —महिला मुद्दों पर सोशल एक्सपर्ट (नाम न बताने की शर्त पर)
महिलाओं के मौलिक अधिकारों का हनन और सरकार-समाज की असंवेदनशीलता
उपरोक्त सभी मामलों एवं कई अन्य में महिलाओं के सभी संवैधानिक अधिकारों को नकारा गया हैं। चाहे वो इन महिलाओं के गरिमा से जीवन जीने के अधिकार की बात हो या फिर इन RMTU यूनिवर्सिटी, ग्वालियर की छात्रों के शिक्षा के अधिकार का हनन हो या उन पीड़ित शिक्षिकाओं का सुरक्षित वातावरण में काम करने का अधिकार की बात हो। कामकाजी महिलाओं का संघर्ष बहुत जटिल हैं। घर से ऑफिस तक कदम-कदम पर समस्याओं से जूझना पड़ता है। शोषण के विरुद्ध न्याय न मिल पाना या उसमें लंबा समय लगना उनकी इस व्यथा को और भी ज्यादा बढ़ा देता हैं। देखा जाए तो हमें सभ्य कहलाने का हक ही नहीं है, क्योंकि मानवीय संवेदनाएं दूर-दूर तक दिखाई नहीं देती।
हम यह भूल जाते हैं कि हमारे साथ काम करने वाली महिला कर्मचारी भी इसी संसार का प्राणी है, जिसके कुछ मौलिक अधिकार हैं। और अगर हम उसके उन अधिकारों का ध्यान नहीं रख पा रहे हैं तो ये दर्शाता हैं कि समाज के तौर पर हम इन संवैधानिक मूल्यों को आत्मसात करने में पिछड़ रहें हैं। कार्यस्थल पर महिलाओं का उत्पीड़न बेहद चिंताजनक तो हैं ही, साथ ही कहीं ना कहीं हमारी सोच और समझ को भी उजागर करता है। आखिर हम जा कहां रहे हैं। मानवीय संवेदनशीलता को हमें नकारना नहीं चाहिए। सरकार और तमाम दफ़्तरों की जिम्मेदारी है कि वो कामकाज के माहौल को संवेदनशीय और महिलाओं के योग्य बनाएं। जिसमें लोग सम्मान के साथ काम कर सकें। उनके मानवाधिकारों का हनन ना हो। तभी आधी आबादी अपना सम्मान पा सकेगी।