इंदौर में डॉ. अमित कंसल बोले- ICU के खर्च को कम नहीं किया जा सकता, कम से कम इसकी इफेक्टिवनेस बढ़ाने की जरूरत

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Rahul Garhwal
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इंदौर में डॉ. अमित कंसल बोले- ICU के खर्च को कम नहीं किया जा सकता, कम से कम इसकी इफेक्टिवनेस बढ़ाने की जरूरत

योगेश राठौर, INDORE. किसी हॉस्पिटल का 13 प्रतिशत खर्च वहां के आईसीयू में होता है। अगर आईसीयू के खर्च को कम नहीं किया जा सकता है तो कम से कम उसकी इफेक्टिवनेस बढ़ाने की जरूरत है। ये कहना है सिंगापुर से आए डॉ. अमित कंसल का। वे इंडियन सोसाइटी ऑफ क्रिटिकल केयर मेडिसिन (आइएससीसीएम) की 29वीं वार्षिक सम्मेलन क्रिटिकेयर-2023 में संबोधित कर रहे थे। उन्होंने कहा कि कॉस्ट इफेक्टिवनेस तभी बेहतर होगी जब आप क्वलिटी से कोई समझौता नहीं करेंगे। इसको लेकर कई पब्लिकेशन है जो कहते है कि आप सिर्फ क्वालिटी पर फोकस कीजिए कॉस्ट अपने आप कम हो जाएगी।



अलग-अलग आईसीयू की बजाए बनाएं सिंगल आईसीयू



डॉ. कंसल ने कहा कि अभी भारत में एक हॉस्पिटल 4-5 आईसीयू (हार्ट का अलग, बच्चों का अलग, लीवर का अलग, आदि)का ट्रेंड है जबकि इसे एक क्लोज्ड आईसीयू में बदलकर खर्च को कम और ट्रीटमेंट को ज्यादा इफेक्टिव किया जा सकता है और पैंडेमिक जैसी सिचुएशन में इस प्रकार के आईसीयू को मैनेज करने में भी आसानी होती है।



नर्सिंग स्टाफ की ट्रेनिंग जरूरी



ऑर्गनाइजिंग चेयरमैन और आइएससीसीएम के अध्यक्ष डॉ. राजेश मिश्रा ने बताया कि किसी भी हॉस्पिटल में पेशेंट की जान सिर्फ टेक्नोलॉजी के भरोसे नहीं बचाई जा सकती। किसी भी हॉस्पिटल या आईसीयू का बैकबोन वहां का नर्सिंग स्टाफ है। वो जितना बेहतर पेशेंट की केयर करेगा उतनी ही तेज पेशेंट की रिकवरी होगी। इसके लिए नर्सिंग स्टाफ की प्रॉपर ट्रेनिंग होती रहनी चाहिए।



पेशेंट से ज्यादा बीमारी पर हो रहा फोकस



पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज, रोहतक के प्लमोनरी एंड क्रिटिकल केयर मेडिसिन सीनियर प्रोफेसर एंड हेड डॉ. ध्रुव चौधरी ने कहा कि अगर आप पेशेंट की अच्छी तरह बातचीत करके हिस्ट्री लेते हैं, अच्छी तरह से एग्जामिनेशन करते हैं और जो भी बेसिक टेस्ट है वो करते हैं तो 100 में से 85 प्रतिशत केस में आसानी से तलाश सकते हैं कि दिक्कत क्या है। ये मैं सिर्फ अपने एक्सपीरियंस से नहीं कह रहा हूं बल्कि डाटा भी ऐसा शो कर रहे हैं। मैं 30-40 साल से मेडिकल प्रोफेशन में हूं। जैसे-जैसे टेक्नोलॉजी आ रही है सबका ध्यान उस ओर जा रहा है। उसका नतीजा ये हो रहा है कि पेशेंट को लोग अनदेखा कर रहे हैं और बीमारी पर फोकस किया जा रहा है। जब कोई घर का कमाने वाला या युवा सदस्य आईसीयू में चला जाता है तो वहां टेक्नोलॉजी से ज्यादा परिवार के लोगों को भावनात्मक सपोर्ट और ह्यूमनाइजेशन टच की होती है।



'मैं पेशेंट का हाथ जरूर पकड़ता हूं'



आप जब पेशेंट को छूते हैं, बात करते हैं तो उसे लगता है कि कोई मुझे अपना समझ रहा है। ये बातें जो पुराने फिजिशियन में थीं, उसे टेक्नोलॉजी ने थोड़ा बदल-सा दिया है। मैं आईसीयू में हमेशा पेशेंट को उसके नाम से याद रखता हूं ना कि उसके बेड नंबर से। इसके अलावा मैं पेशेंट का हाथ जरूर पकड़ता हूं। इससे पेशेंट को अपनापन महसूस होता है और वो बेहतर रिस्पॉन्स करता है।



'मानसिक शांति मिलती है'



ऑर्गनाइजिंग सेक्रेटरी डॉ. राजेश पांडे ने कहा कि खाली पेशेंट से बातचीत नहीं बल्कि उसके परिवार के साथ बातचीत करनी चाहिए। वे बातों-बातों में ऐसी कई बातें बता देतें है जिससे आपको समस्या समझने में आसानी हो जाती है। इससे एक-दूसरे पर विश्वास बनता है और अगर आप को परेशानी समझ में आ गई तो आप कम टेस्ट कराते हैं। इससे पेशेंट का कॉस्ट भी कम हो गया और सबसे बड़ी बात जो आप पेशेंट को मानसिक शांति देते हैं, उससे हीलिंग बैटर और फास्ट होती है। ये सारी बातें आजकल के जो टेक्निकल साउंड डॉक्टर होते हैं, उन्हें सीखने की जरूरत है।



डॉक्टर को पेशेंट का एडवोकेट बनने की जरूरत



को-ऑर्गनाइजिंग चेयरमैन डॉ. संजय धानुका ने कहा कि जैसे किसी भी रिश्ते में विश्वास का होना जरूरी है, उसी तरह डॉक्टर और पेशेंट के बीच भी विश्वास की डोर मजबूत होनी चाहिए। ऐसे में अगर डॉक्टर से कोई गलती हुई है तो उसे छिपाने के लिए झूठ बोलने के बजाय उसे स्वीकारते हुए पेशेंट के साथ शेयर करना चाहिए। डॉक्टर्स डरते हैं कि हमें कोई कोर्ट-कचहरी का सामना ना करना पड़े, लेकिन डाटा बताता है कि ऐसा करने पर पेशेंट डॉक्टर की बात समझते हैं। डॉक्टर को हॉस्पिटल एडमिनिस्ट्रेशन का एडवोकेट बनने की बजाय पेशेंट का एडवोकेट बनना है। एब्स्ट्रेक्ट कमेटी के को-चेयरमैन डॉ. आनंद सांघी ने बताया ने कहा कि आईसीयू में जो पेशेंट्स होते उनको और उनके परिजन को बीमारी के साथ-साथ आईसीयू का डर भी बहुत परेशान करता है। ऐसे में डॉक्टर से मिलने वाले आत्मीय व्यवहार उनको उससे उबरने में मदद करता है।



प्रेगनेंट लेडी पर नहीं हो पाती ज्यादा रिसर्च



इजराइल से आई डॉ. शेरोन इनाव ने कहा कि प्रेगनेंसी में कॉफी सारे कॉम्प्लिकेशन होते हैं और हर बॉडी अलग तरह से रिएक्ट करती है। इस दौरान महिलाएं और उनके परिजन किसी भी प्रकार का रिस्क नहीं लेना चाहते हैं, इसलिए वे किसी भी प्रकार की रिसर्च और स्टडी में शामिल होने से बचते हैं। ये वजह है कि प्रेगनेंसी और उस दौरान होने वाले कॉम्प्लिकेशन को लेकर दुनियाभर में बेहद कम रिसर्च ही हो पाती है। उन्होंने कहा कि भारत में इजराइल की तुलना में मोटिलिटी रेट काफी ज्यादा है। भारत में ये संख्या 1 लाख में 97 है, वहीं इजराइल में ये संख्या बेहद कम है। इसका कारण ये है कि वहां के लोगों में इसको लेकर अवेयरनेस काफी ज्यादा है। वहां प्रेगनेंट लेडी का फॉलोअप जल्दी-जल्दी लिया जाता है और इसको लेकर एक क्लियर प्रोग्राम बना हुआ है। इसके साथ ही सारा डाटा कंप्यूटराइज होता है, जिससे उनका ध्यान रखना आसान हो जाता है। महिलाओं को प्रेगनेंसी से पहले अपनी मेडिकल कंडीशन का पता होना चाहिए।



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मूट कोर्ट के जरिए डॉक्टर्स को दी कानून की जानकारी



जॉइंट ऑर्गनाइजिंग सेक्रेटरी डॉ. विवेक जोशी ने बताया कि इस अवसर पर मूट कोर्ट का आयोजन डॉ. ध्रुव चौधरी के नेतृत्व में किया गया। उन्होंने मूट कोर्ट में पुराने केस के माध्यम से बताया कि अगर कोई भी डॉक्टर किसी पेशेंट के इलाज के दौरान मेडिकल साइंस में दिए गए प्रोटोकॉल को फॉलो कर रहा है तो वो किसी भी तरह से उसके मनचाहे आउटकम या रिजल्ट ना आने के लिए जिम्मेदार नहीं है। इसलिए डॉक्टर को हमेशा मेडिकल साइंस के प्रोटोकॉल का ध्यान रखना है। साइंटिफिक कमेटी के को-चेयरमैन डॉ. निखिलेश जैन ने इसके अलावा मूट कोर्ट में डॉक्टर के सामने आने वाली विभिन्न लीगल कंडिशन का सामना कैसे करना है, इसके बारे में भी बताया। इस पूरी प्रक्रिया का उद्देश्य डॉक्टर को लीगल प्रोसीजर की बारीकियों से अवगत करवाना था।


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