मप्र में महिलाओं-आदिवासियों के लिए बने आयोग सफेद हाथी! महिला आयोग 3 सालों से ठप, अनुसूचित जनजातीय आयोग का भी अध्यक्ष नहीं

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Ruchi Verma
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मप्र में महिलाओं-आदिवासियों के लिए बने आयोग सफेद हाथी! महिला आयोग 3 सालों से ठप, अनुसूचित जनजातीय आयोग का भी अध्यक्ष नहीं

BHOPAL: चुनावी साल में बीजेपी का फोकस महिला, आदिवासी, अनुसूचित जाति और पिछड़ा वर्ग पर है। ये वर्ग किसी भी राजनीतिक दल के लिए वोटबैंक के लिहाज से अहम होते हैं। और कैसे न हो? आखिर मध्य प्रदेश का एक बड़ा वोटर तबका इसी वर्ग से आता है - दो करोड़ 60 लाख महिला वोटर्स और 1 करोड़ 53 लाख 16 हज़ार की जनजातीय आबादी यानी राज्य की कुल आबादी का 21%। लेकिन सवाल ये हैं कि क्या केवल वोटबैंक की राजनीति अहम है? इन वर्गों की जो समस्याएं है उनकी तरफ क्या सरकार और राजनीतिक दलों का ध्यान नहीं है? ये सवाल इसलिए उठा है क्योंकि इन वर्गों की समस्याओं को दूर करने के लिए जो राज्य महिला आयोग और राज्य अनुसूचित जनजाति आयोग गठित हुए हैं उनमें पिछले तीन से चार सालों से मुखिया और मुख्य कर्ताधर्ताओं के पद खाली ही पड़े हुए हैं। कागजी खानापूर्ति कार्यालयों में बाबू निपटा रहे हैं। यानी कामकाज तो हो रहा है मगर जनता के लिए किसी काम के नहीं। इसी तरह संस्थान में सरकारी खर्च तो हो रहा है लेकिन पीड़ितों की समस्याएं दूर नहीं हो पा रही है। राजनैतिक पार्टियों की रस्साकस्सी के बीच फंसे ये आयोग सफेद हाथी बन चुके हैं। मगर सरकार का इस तरफ ध्यान नहीं है। द सूत्र ने इन दोनों महत्वपूर्ण आयोगों की पूरी पड़ताल की है। इस रिपोर्ट में जानिये किस तरह से आयोग सफ़ेद हाथी साबित हो रहे हैं....





मध्य प्रदेश राज्य महिला आयोग: तीन साल के कामकाज ठप्प





"मुझे सोशल-मीडिया पर एक लड़का पिछले सितम्बर,2022 से काफी समय से परेशान कर रहा है। वो मुझे धमकाता है, पैसे मांगता है, जान से मारने की धमकी भी देता है। इस बात की शिकायत मैंने सम्बंधित थाने में CSP-SP सबसे की। इसके बाद मैंने CM हेल्पलाइन और राज्य महिला आयोग में भी ऑनलाइन शिकायत की, लेकिन मेरी शिकायत की कोई सुनवाई नहीं हुई।"





ये आपबीती है जबलपुर की महिला एक एकता ठाकुर की। एकता जबलपुर क्षेत्र क्रमांक 6 में जिला पंचायत सदस्य है। उन्हें एक आदमी पिछले सात महीनों से (सितम्बर, 2022) परेशान कर रहा है, जिसकी शिकायत उन्होंने हर मुमकिन जगह -थाने, CSP, SP, CM हेल्पलाइन - की, परन्तु महीनों बीत जाने के बावजूद उनकी कोई सुनवाई नहीं है।





"पुलिस प्रशासन का कहना है कि आपके साथ अभी कुछ हुआ तो नहीं है ना? क्या किसी महिला के साथ कोई दुर्घटना घट जाए तभी उसकी सुनवाई होगी? उससे पहले नहीं?"





एकता की शिकायतों के प्रति पुलिस-तंत्र का रवैया किस कदर असंवेदनशील है इसका अंदाजा तो उपरोक्त शब्दों से अच्छी तरह से लगाया जा सकता है। तपस्या तो एक जनप्रतिनिधि हैं। जब राज्य में एक जनप्रतिनिधि की समस्या की सुनवाई नहीं हो रही तो आम महिला की क्या परेशानी होती होगी, इसे समझना बिलकुल भी मुश्किल नहीं। पुलिस के इस रवैये से परेशान हो एकता ठाकुर ने राज्य महिला आयोग को भी ऑनलाइन शिकायत की, पर वहां भी कोई हल नहीं हुआ। होगा भी कैसे? क्योंकि प्रदेश में महिलाओं के खिलाफ उत्पीड़न की शिकायतें सुनने और कार्रवाई करने वाला राज्य महिला आयोग खुद ही सियासी खींचतान के चलते पिछले 3 साल से ठप पड़ा है। आयोग के अध्यक्ष पद को लेकर बीजेपी और कांग्रेस के बीच चल रही जंग के चलते यहां पीड़ित महिलाओं को इंसाफ मिलना तो दूर उनकी शिकायतों के निराकरण के लिए होने वाली रेगुलर सुनवाई नहीं हो पा रही है। इसकी वजह से सालाना ढाई करोड़ रुपए के खर्च से चलने वाले आयोग के सुनवाई कक्ष में ताला पड़ा हुआ है। नतीजन राज्य महिला आयोग से राहत नहीं मिलने की स्थिति में अब प्रदेश की पीड़ित महिलाओं के पास राष्ट्रीय महिला आयोग का रूख करने के अलावा रास्ता नहीं बचा हैं। आज, 8 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस है। इस अवसर पर महिलाओं की महिमा का बखान करते हुए सरकार द्वारा महिलाओं के सशक्तिकरण की बड़ी-बड़ी बातें की जाएंगी, जगह-जगह आयोजन किये जाएंगे। पर महिला आयोग के ये हाल देखकर सवाल उठ रहा है कि आखिरकार कैसे होगा राज्य में महिला सशक्तिकरण?





पहले जानिए आखिर मप्र महिला आयोग कैसे है राज्य की महिलाओं की सुरक्षा के प्रति जिम्मेदार







  • मध्यप्रदेश राज्य महिला आयोग का गठन राज्य सरकार द्वारा दिनांक 23 मार्च 1998 को मध्यप्रदेश राज्य महिला आयोग अधिनियम 1995 (क्र0 20 सन 1996) की धारा 3 के तहत किया गया।



  • यह आयोग सात सदस्यीय है, छ: सदस्य अशासकीय व एक सदस्य शासकीय है। राज्य सरकार ने अशासकीय में से अध्यक्ष को मंत्री तथा अन्य सदस्यों को राज्य मंत्री का दर्जा दिया है।


  • राज्य महिला आयोग सरकार की महिलाओं से जुड़ी नीतियों के समीक्षा भी करता है। और क्योंकि यह आयोग एक संवैधानिक निकाय है जिसे सिविल अदालत के अधिकार प्राप्त हैं और इसे जांचकर्ता और परीक्षणकर्ता की हैसियत प्राप्त है, इसकी सिफारिशों को सरकार अनदेखा नहीं कर सकती है।


  • प्रदेश में महिलाओं को सशक्त बनाने और उनकी गरिमा सुनिशिचत करने के लिए महिलाओं के प्रति भेदभाव वाले प्रावधानों को ख़त्म करना, हर क्षेत्र में उन्हें विकास के समान अवसर दिलाना, महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों एवं अपराधों पर त्वरित कार्यवाही करने की कार्यवाही करना।






  • सदस्यों के कमरों पर ताला, अध्यक्ष का इस्तीफ़ा





    पीड़ित महिलाओं की सुनवाई कर मदद के लिए कार्रवाई की सिफारिश करने वाला मध्य प्रदेश महिला आयोग इन दिनों खुद ही असहाय नजर आ रहा है। दरअसल, आयोग की अध्यक्ष और सदस्यों के कमरें पिछले 3 सालों से तालाबंद हैं। आयोग की अध्यक्ष शोभा ओझा ने जून, 2022 में अपने पद से ये कहते हुए इस्तीफा दे दिया था, "मुझे अपने ऑफिस में बैठने नहीं दिया जा रहा था...मैं खुद को एक अधिकारविहीन, शक्तिहीन बना दिए गए आयोग के मुखिया के दायित्व की संवैधानिक बाध्यताओं से मुक्त करना चाहती हूँ।" राज्य महिला आयोग में सियासी विवाद का मामला यह है कि कांग्रेस की कमलनाथ सरकार ने मार्च 2020 में सरकार गिरने से ठीक पहले 16 मार्च को शोभा ओझा को महिला आयोग का अध्यक्ष नियुक्त किया था। साथ ही आयोग की सदस्य भी नियुक्त किए थे। लेकिन बाद में बीजेपी सरकार बनने के बाद इन नियुक्तियों पर रोक लगा दी गई। इसके पीछे ये तर्क दिया गया कि आयोग में नियुक्ति की एक निर्धारित प्रक्रिया होती है, जिसका उपयोग कांग्रेस सरकार ने नहीं किया। इसके बाद बीजेपी सरकार ने महिला आयोग की अध्यक्ष शोभा ओझा के दफ्तर में ताला डलवा दिया। बाद में मामला कोर्ट में चला गया। हालांकि जून 2020 में हाईकोर्ट ने केस में स्टे-आर्डर देते हुए यथास्थिति बनाये रखने को कहा  ताकि आयोग में आने वाली शिकायतों की सुनवाई हो सके। लेकिन शोभा ओझा का आरोप रहा कि कोर्ट से स्टे होने के बावजूद  सरकार उन्हें काम नहीं करने दे रही है। सरकार कोर्ट के निर्देशों की भी अवहेलना कर रही है। और अंततः उन्होंने जून, 2022 में अपने अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा दे दिया।





    हर महीने 3000-4000 शिकायतें, हज़ारों शिकायतें पेंडिंग





    अब शोभा ओझा ने तो इस्तीफ़ा दे दिया, लेकिन क्योंकि उनका 1 साल का कार्यकाल अभी भी बचा हुआ हैं और हाईकोर्ट का केस में यथास्थिति बनाये रखने का निर्देश हैं इसलिए पद पर को नए अध्यक्ष की नियुक्ति भी नहीं हो रही हैं। यानी राजनैतिक पार्टियों के आपसी द्वन्द की शिकार राज्य की हज़ारों पीड़ित महिलाएं बन रहीं हैं। पिछले तीन सालों से (जनवरी 2019 से) मामलों की सुनवाई करने वाली महिला आयोग की संयुक्त बेंच की बैठक तक नहीं हुई है। हर महीने आयोग में अलग-अलग तरह की 300 से 350 के करीब और सालभर में करीब 3000-4000 के करीब शिकायतें आती हैं। शिकायतों के सुनवाई ना होने की वजह से महिला आयोग में पेंडिंग शिकायतों की संख्या बढ़कर 20 हजार के करीब हो गई है।





    महिला आयोग में सुनवाई न होने से अपराधियों की हिम्मत बढ़ी, महिलाओं के खिलाफ बढ़ते अपराध





    महिला आयोग की यह स्थिति तब है जबकि राज्य में महिलाओं हालत बेहद ख़राब है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) की रिपोर्ट के अनुसार, मध्य प्रदेश की महिलाओं के लिए सबसे असुरक्षित राज्य के रूप में बदनामी जारी है। राज्य में 2021 में 6,462 बलात्कार की वारदात दर्ज हुई। आंकड़ों को खंगाले तो पता चलता है कि देश में दर्ज हुए रेप के मामलों में हर दसवां मामला मध्यप्रदेश में दर्ज हुआ है। वहीं अगर महिलाओं के कार्यस्थल पर उत्पीड़न के बारे में बात की जाए तो इसके लिए कानून बनने के 9 साल बाद भी उत्पीड़न के मामलों का कोई ठोस आंकड़ा मौजूद नहीं है। ठोस डेटा ना होने की वजह से कार्यस्थल पर मानसिक एवं यौन उत्पीड़न रोकने के लिए कानूनों के सही क्रियान्वयन का पता नहीं चल पाता। शायद यही कारण है कि प्रदेश में कार्यस्थल पर महिलाओं के खिलाफ होने वाले उत्पीड़न के मामले भी बढ़ते जा रहे हैं। आयोग के पास आने वाली महिलाओं की शिकायतों में से 10% कार्यस्थल उत्पीड़न की होती हैं। आयोग के खस्ताहाल हालत से प्रदेश में अपराधियों की हिम्मत भी बढ़ती जा रही है। सार्वजनिक स्थानों पर और कार्यस्थल पर महिलाओं की हिफाज़त सुनिश्चित नहीं रह गई है। ऐसे मामलों में आरोपी खुले में घूम रहे हैं।





    आयोगों पर जनता का पैसा हो रहा बर्बाद! कामकाज ठप्प, पर आयोग का सालाना खर्च 2.50 करोड़ रूपए





    आपको बता दें कि विवाद के चलते आयोग का कामकाज जरूर ठप्प है, लेकिन ऐसा नहीं है कि आयोग पर कोई खर्चा न हो रहा हो। आयोग में सात सदस्य होते हैं जिसमें से छह सदस्य अशासकीय व एक सदस्य शासकीय होता है। बाकी का सपोर्टिंग स्टाफ भी 30 के करीब होता है। आयोग पर सालाना होने वाला खर्च भी भारी भरकम है। वेतन, स्थापना एवं प्रशासनिक खर्च, मकान का किराया, यात्रा भत्ता, फर्नीचर अलाउंस, बिजली-पानी किराया, वाहन-ईंधन खर्च, फेस्टिवल अलाउंस आदि मिलाकर करीब 2.5 करोड़ रुपए आयोग पर हर साल खर्च होते हैं।





    सरकार महिलाओं के प्रति असंवेदनशील: शोभा ओझा, पूर्व अध्यक्ष, राज्य महिला आयोग





    द सूत्र ने महिला आयोग की पूर्व अध्यक्ष एवं कांग्रेस की वरिष्ठ  नेता शोभा ओझा से बात की तो उन्होंने कहा,"  महिला आयोग की स्थिति बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है। जहाँ प्रदेश महिलाओं के खिलाफ अत्याचार के मामले में नंबर एक पर लगातार पिछले 15 सालों से बना हुआ है। वहीं महिला आयोग जैसी संवैधानिक संस्था पर सरकार ने ताले डालकर रखे हुए हैं। इससे महिलाओं के प्रति सरकार की असंवेदनशीलता प्रदर्शित होती है। क्राइम एट वर्कप्लेस भी इस कदर बढ़ा हुआ है की पुलिस स्टेशन में FIR तो दूर, संबंधित कार्यालय में भी शिकायत करने के बावजूद पीड़िता को न्याय नहीं मिल पाता है। ऐसी महिलाओं को महिला आयोग की तरफ से न्याय मिल सकता था। लेकिन ये दुर्भाग्य है कि हाईकोर्ट से स्टेटस-को मिलने के बावजूद महिला आयोग में ताले डले हुए हैं और पीड़ित महिलाएं न्याय से वंचित हो रहीं हैं।"





    अध्यक्ष के न होने से आयोग पूर्ण तरीके से कार्यनिर्वहन नहीं कर पा रहा: अधिकारी 





    वहीं आयोग के एक अधिकारी ने कामकाज ठप्प होने के मामले में कुछ भी कहने से इनकार कर दिया। उनका कहना है चूँकि आयोग के मुख्य सदस्यों की नियुक्ति को लेकर मामला न्यायालय में चल रहा हैं, इसलिए उनका इस पर कुछ भी कहना उचित नहीं है। आयोग के पास आने वाली शिकायतों को हम अपनी तरफ से जिम्मेदार विभागों तक भेज देते हैं। जहाँ आगे की कार्यवाही होती है। लेकिन ये सच है कि अध्यक्ष के न होने से आयोग पूर्ण तरीके से कार्यनिर्वहन नहीं कर पा रहा है। क्योंकि राज्य महिला आयोग एक ऐसा अधिकार पूर्ण निकाय है - जिसे सिविल अदालत के अधिकार प्राप्त हैं और इस आयोग को जांचकर्ता, परीक्षणकर्ता और प्रेक्षक की हैसियत प्राप्त है - इसलिए इसकी सिफारिशों को सरकार अनदेखा नहीं कर सकती है। लेकिन अध्यक्ष के न होने से सरकार की नीतियों से जुडी सिफारिशें सरकार को नहीं दे पा रहे है।





    गुजरात दंगों के बाद भारत रत्न और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी ने मौजूदा पीएम नरेंद्र मोदी जो उस वक्त गुजरात के सीएम थे, उनसे कहा था कि मैं गुजरात के मुख्यमंत्री से कहूंगा कि राजधर्म का पालन करें और मोदी जी ने कहा था वो ही तो कर रहे हैं साहब! राजधर्म वो होता है जो प्रेमचंद की कहानी पंच परमेश्वर में जुम्मन शेख और अलगू चौधरी के किरदारों में नजर आता है। जब आप किसी कुर्सी पर बैठते हैं तब आपका नजरिया तटस्थ होना चाहिए। लोकतंत्र के चारों स्तंभ - न्यायपालिका, कार्यपालिका, विधायिका और मीडिया सभी के लिए ये लागू होता है। हाल ही में जब सरकार ने लाड़ली बहना योजना लॉन्च की, तो सीएम शिवराज घुटनों के बल बैठ गए और बहनों की जिंदगी बदलने का वादा किया और साथ ही बीजेपी को वोट देने की अपील भी की। एक पॉलिटिशिएन होने के नाते शिवराज ने अपना धर्म निभाया। अपनी पार्टी के लिए वोट मांगे इसमें कोई बुराई नहीं है।  मगर सवाल ये है कि एक मुख्यमंत्री होने के नाते क्या शिवराज को यूं ही घुटनों के बल बैठकर अपनी पीड़ित बहनाओं से माफी नहीं मांगना चाहिए कि वो उनकी शिकायतों को दूर नहीं कर पा रहे हैं? शिवराज राजनीतिक धर्म तो निभा रहे हैं परन्तु राजधर्म निभाते नजर नहीं आ रहे हैं। सरकार को जरुरत है अपना राजधर्म निभाने की और राज्य की महिलाओं को सुरक्षित माहौल देने की। इसके लिए महिला आयोग जैसे संस्थानों का सुचारु रूप से कार्य करना जरुरी है, और इसीलिए सरकार को राजनैतिक भेद भुलाकर आयोग में जल्द-से-जल्द नियुक्तियां करनी चाहिए।





    मध्यप्रदेश राज्य अनुसूचित जनजातीय आयोग: सालभर में 1000 के करीब शिकायतें, इंतज़ार हैं सुनवाई का





    जिस तरह से महिला आयोग के हाल हैं, वैसे ही हाल अनूसूचित जनजाति आयोग के भी है। यानी मध्यप्रदेश राज्य अनुसूचित जनजातीय आयोग भी खाली पड़ा है। राज्य की 21 फीसदी आबादी आदिवासी है, पर फिर भी आयोग में न अध्यक्ष है और न ही सदस्य हैं। दफ्तर तो रोज खुलता है, लेकिन यहां केवल बाबू और चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी ही मिलते हैं। फ़िलहाल, बस सचिव के तौर पर विक्रमादित्य सिंह यहाँ पदस्थ हैं। आयोग में मौजूद कर्मचारी ने द सूत्र को बताया कि आयोग में हर महीने करीब 50 के आसपास शिकायतें आती है, यानी सालभर में 1000 के करीब। इनमें से ज्यादातर शिकायतें दलित प्रताड़ना, अनुसूचित जनताइयों के लोगों के जमीन से जुड़ी समस्याओं की होती हैं, जैसे- पट्टा न मिलना, आदिवासी महिलाओं के साथ बलात्कार की घटनाएँ, सरकारी योजना का फायदा न मिलना, भूमि धोखे से किसी और को बेच दिया जाना। साल 2021 में नरेन्द्र मरावी के अनुसूचित जनजाति आयोग के अध्यक्ष पद से हटने के बाद से आज तक नए अध्यक्ष की नियुक्ति नहीं हो पाई है।





    जानिये आयोग कैसे करता हैं राज्य अनुसूचित जनजाति के लोगों की मदद







    • मध्य प्रदेश राज्य अनुसूचित जनजाति आयोग अधिनियम क्रमांक-25, वर्ष-1995 के अन्तर्गत गठित किया गया है। आयोग में एक अध्यक्ष एवं दो अशासकीय सदस्य होते हैं । आयुक्त,अनुसूचित जनजाति विकास आयोग के पदेन सदस्य हैं ।



  • अनुसूचित जनजाति के लोगों की शिकायतों को जिम्मेदार लोगो और विभागों तक पहुँचाना और उनपर त्वरित कार्यवाही को निश्चित करवाना।


  • अनुसूचित जातियों के कल्याण के लिए बानी सरकारी नीतियों और कार्यक्रमों के सही क्रियान्वयन की निगरानी करना और इनमें सुधार के बारे में राज्य सरकार को सुझाव देना।


  • कोई नई या छूट गई विशिष्ट जातियों, मूलवंशों या जनजातियों के लोगों को संविधान (अनुसूचित जाति) आदेश,1950 में शामिल करवाने के लिए राज्य सरकार को सिफारिश करना।


  • लोक सेवाओं तथा शैक्षणिक संस्थाओं में प्रवेश के लिए अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण के संबंध में सलाह देना।






  • अध्यक्ष की अनुपस्थिति से आयोग के कार्य पर असर





    नाम न बताने के शर्त पर एक वरिष्ठ कर्मचारी ने द सूत्र को बताया कि आयोग के पास इस वक़्त जो शिकायतें है, वो कम आ रही है। आयोग के अध्यक्ष की मौजूदगी में शिकायतें बढ़कर 2500 तक हो जाती हैं। इसका कारण ये है कि आदिवासी ज्यादा पढ़े-लिखे न होने के कारण सीधे आयोग में अपनी शिकायतें दर्ज़ कराने की जागरूकता नहीं रखते हैं। और अगर आयोग का अध्यक्ष रहता है तो वो अपने कार्यकाल में आदिवासी क्षेत्रों में दौरे-यात्राएँ करते है और जनशिकायत के कैम्प्स लगाते हैं। इससे आदिवासियों को मौका मिलता है अधिकारियों तक अपनी शिकायतें पहुंचाने का। और शिकायतें फास्ट्रैक तरीके से सुनी जाती हैं। पर अध्यक्ष और सदस्यों के अभाव में ऐसा नहीं हो पा रहा है। अभी जो शिकायतें देखी जाती हैं, वो कलेक्टर-SP लेवल पर दर्ज़ होती हैं। यानी शिकायतें तो आ रही हैं पर अध्यक्ष के अभाव में लम्बे समय तक उनपर कार्यवाही नहीं हो पा रही हैं। एक ताज़ा मामला तो राजधानी भोपाल का ही है, जहाँ भोपाल स्थित एक अनुसूचित जनजाति युवक का परिवार पिछले 37 सालों से अपनी जमीन के हक़ के लिए लड़ रहा हैं ....





    अनुसूचित जनजाति परिवार का जमीन के लिए 37 साल से संघर्ष जारी, आयोग में नहीं कोई सुनवाई





    दरअसल, भारत हेवी इलेक्ट्रिकल लिमिटेड यानी बीएचईएल में नौकरी करने वालों ने मिलकर 1985 में अपने अनुसूचित जाति-जनजाति कर्मचारी के लिए अनुसुचित जाति, जनजाति कर्मचारी गृह निर्माण सोसाइटी बनाई थी। केंद्र सरकार की अनुमति से जमीन भी आवंटित हुई, लेकिन राज्य सरकार और भोपाल का प्रशासन हकदारों को उनके प्लॉट पर कब्जा नहीं दिला पाया। अनुसूचित जाति-जनजाति के इन परिवारों के प्लॉटों पर झुग्गियां तन गई। गोविंदपुरा के सिद्दीकपुर में केंद्र सरकार ने इस सोसाइटी को 25 एकड़ जमीन दी थी। पिछड़ी जातियों के लिए बनी इस सोसाइटी का संघर्ष तो इतना लम्बा है कि कुछ परिवारों की तो तीसरी पीढ़ी संघर्ष कर रही है। बुद्ध मित्र नाम का ये युवक उनमें से ही एक है। बुद्ध मित्र के दादा ने इस सोसाइटी में प्लॉट लिया था। दो पीढ़ियां तो कब्जे के लिए संघर्ष करते हुए खत्म हो गई। अब बुद्ध मित्र ने ये बीड़ा उठाया है। लेकिन जिम्मेदार अधिकारियों के तर्क बुद्ध मित्र के गले नहीं उतरते। एसडीएम से लेकर कलेक्टर तक बस आश्वासन देते है। तो वहीँ अनुसूचित जनजाति आयोग में अध्यक्ष न होने से कोई सुनवाई ही नहीं है। 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सरकार ने सोसाइटी को जमीन देने का फैसला किया था। तब से आज तक सोसाइटी के सदस्य हक के लिए भटक रहे है। बुद्धमित्र जैसे ऐसे करीब 28 अनुसूचित जाती-जनजाति परिवार हैं जो न्याय के लिए हर दर पर दस्तक दे चुके है। लेकिन कही कोई सुनवाई नहीं हो रही।





    "2019-2020 में अनूसूचित जाती आयोग और अनुसूचित जनजाति आयोग, दोनों में हमने शिकायत की थी। प्रकरण वहां पर चालू हैं, परन्तु अध्यक्ष नहीं होने की वजह से वहां पर सुनवाई नहीं हो पा रही हैं। जो कर्मचारी हैं, उनका कहना हैं की उनके पास इतनी पावर नहीं कि वो सम्बंधित तहसीलदार या कलेक्टर को शिकायतकर्ताओं की समस्या के निदान के आर्डर दे पाएं। कर्मचारी कहते हैं कि अगर अध्यक्ष होते तो हमारी समस्या का निराकरण जल्दी हो जाता।"





    - बुद्ध मित्र, पीड़ित





    आयोग का सालाना खर्चा पौने दो करोड़ का





    बुद्ध मित्र जैसे कई लोग है जो इंसाफ की आस में भटक रहे हैं। आयोग का दफ्तर बकायदा खुल रहा है, पर कामकाज के सिलसिले में ठप्प है। बहरहाल, इन सब के बीच आयोग का सालाना खर्चा पौने दो करोड़ (1.75 करोड़) के आसपास का है। ऐसा तब है जब NCRB की 2022 की रिपोर्ट के अनुसार मध्य प्रदेश में अनुसूचित जनजाति के विरुद्ध सबसे ज्यादा (2627) अपराध दर्ज़ हुए।





    मंत्री कहती हैं जल्द होगी नियुक्तियां?





    अब राज्य अनुसूचित जनजातीय आयोग में अध्यक्ष और सदस्य पदों पर नियुक्तियों को लेकर द सूत्र ने जब अनुसूचित जनजाति विभाग की मंत्री मीना सिंह से सवाल पूछा तो उनका कहना था नियुक्तियां जल्द ही की जाएंगी। पर सवाल हैं  कब? अब तो सरकार का कार्यकाल ही चंद महीनों का बचा है। ऐसे में इस कार्यकाल में तो उम्मीद नहीं कि आयोग ठीक ढंग से काम करने लगे। इसीलिए एक सवाल और उठता हैं कि जब सरकार की नजर में इन आयोगों का कोई मतलब नहीं है तो फिर इन्हें बंद क्यों नहीं कर दिया जाता? सीढ़ी बात हैं कि  या तो राज्य महिला आयोग और अनुसूचित जनजाति आयोग जैसे इन आयोगों को ठीक तरह से चलाया जाए  वरना जनता के टैक्स का पैसा बर्बाद करने से क्या मतलब!



    मध्य प्रदेश राज्य अनुसूचित जनजाति आयोग मध्य प्रदेश राज्य महिला आयोग Shivraj Singh Chauhan National Commission for Women Madhya Pradesh State Women's Commission article 341 and 342 अनुच्छेद 341 Smriti Irani राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग National Commission for Scheduled Tribes