ग्वालियर-चंबल में जो जीतेगा दलितों का दिल, विधानसभा चुनाव में लहराएगा उसी की जीत का परचम

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Dev Shrimali
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ग्वालियर-चंबल में जो जीतेगा दलितों का दिल, विधानसभा चुनाव में लहराएगा उसी की जीत का परचम

BHOPAL. मध्यप्रदेश में विधानसभा चुनावों की रणभेरी भले ही नहीं बजी हो लेकिन ग्वालियर-चम्बल में तो बज ही गई है। इसकी खास वजह भी है। 2018 में जब विधानसभा चुनाव हुए थे तब बीजेपी को सपने में भी अंदेशा नहीं था कि लगातार चौथी बार उनकी सरकार की वापसी नहीं हो सकेगी। दिल्ली से लेकर भोपाल में बैठे नेता मंत्रिमंडल के गठन की तैयारी में बैठे थे और बीजेपी समर्थक नौकरशाह तंत्र को बिठाने की लिस्टिंग में व्यस्त थे। लेकिन परिणामों ने पांसा पलट दिया था। इसकी वजह थी ग्वालियर-चंबल अंचल से बीजेपी का सूफड़ा साफ हो जाना। इसमें भी एक सूक्ष्म वजह थी दलितों का बीजेपी के खिलाफ एकजुट होकर वोट करना।





दलित वोटों ने पलटा पांसा





हालांकि शिवराज सिंह को चुनाव से पहले ही इस गुस्से का अहसास हो चला था और अति उत्साह में उन्होंने दलितों के गुस्से की आग बुझाने के लिए अपने बयानों से जो पानी उड़ेला वह तो पेट्रोल बन गया। उनके द्वारा दलितों को दी गई माई के लाल की अस्वस्ति ने उन्हें पूरी तरह से अकेला कर दिया। ग्वालियर-चंबल में दलित हिंसा के बाद यह वर्ग बीजेपी के हाथ से चला गया और माई के लाल में सवर्णों ने भी दूरी बना ली। लेकिन चुनाव परिणामों का विश्लेषण बताता है कि दलित वोटों का बीजेपी के खिलाफ ध्रुवीकरण ही इन चुनावों में बीजेपी को इस दुर्गति की चौखट तक ले गया।





7 में सिर्फ एक दलित सीट जीत सकी थी बीजेपी





ग्वालियर-चंबल संभाग में कुल 34 विधानसभा सीटें हैं जिनमें से पांचवां हिस्सा यानी 7 सीटें तो अनुसूचित जाति वर्ग के लिए ही आरक्षित हैं। यूं भी यह पूरा अंचल दलितों के बाहुल्य वाला है। 2013 के विधानसभा नतीजों में कांग्रेस इन 7 में से एक भी सीट नहीं जीत सकी थी, लेकिन 2018 में बाजी एकदम पलट चुकी थी। 7 में से 6 सीटों पर कांग्रेस ने अपना जीत का परचम लहरा दिया और बीजेपी के खाते में आई सिर्फ एक गुना सीट जहां से बीजेपी के गोपीलाल जाटव ने जीत दर्ज की थी। यूं भी गुना सीट लंबे समय से बीजेपी के दबदबे वाली सीट थी। लेकिन बीजेपी विरोधी इस आंधी में गोहद में लाल सिंह आर्य जैसा दिग्गज नेता भी हार गया।





दलित-सवर्ण संघर्ष से लिखी गई पठकथा





ग्वालियर-चंबल संभाग में कांग्रेस को मिली शानदार जीत की वजह दरअसल कांग्रेस के प्रयास नहीं, बल्कि लोगों की बीजेपी से नाराजगी थी। ग्वालियर-चंबल अंचल कांशीराम की प्रयोगशाला था और उन्होंने अपनी बहुजन समाज पार्टी के बैनर पर पहला उम्मीदवार भी भिंड लोकसभा क्षेत्र में उतारा था। इसके बाद यहां दलितों को अपनी तरफ समेटते हुए बसपा फैलती गई और कांग्रेस सिकुड़ती गई। हालांकि सीटों के गणित में भले ही बीएसपी कोई बड़ा मुकाम हासिल नहीं कर पाई हो, लेकिन दलित वोटों के नुकसान ने कांग्रेस को एकदम हाशिए पर लाकर रख दिया था। यहां तक कि अनुसूचित वर्ग के लिए आरक्षित सीटों पर भी दलितों के बीएसपी के साथ जाने और सवर्णों के वोटों पर कब्जे के चलते बीजेपी ही जीत का ध्वज फहराती रही। लेकिन अप्रैल 2018 को ग्वालियर से शुरू हुआ दलित-सवर्ण संघर्ष बीजेपी की सत्ता के लिए खतरनाक बन गया। दलित वोटों का बीजेपी के खिलाफ इतना सशक्त ध्रुवीकरण हुआ कि उन्होंने खुद ही अपने वोट बांटने से रोके और सिर्फ बीजेपी को हराने वाले प्रत्याशी को देने की रणनीति बनाई। उधर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने दलितों के गुस्से को लेकर दिया गया माई का लाल वाला बयान सवर्णों में घर-घर घुस गया। अब दलित बीजेपी को हराना चाहते थे और सवर्ण शिवराज सिंह को। इन्होंने इसी लाइन पर मतदान किया और सामने सिर्फ कांग्रेस थी सो जीत का सेहरा उसके उम्मीदवारों के सिर बंधा। यह ध्रुवीकरण इतना गहरा था कि जब भिंड सीट पर कांग्रेस जीतती नहीं दिखी तो दलित और सवर्ण दोनों ने मिलकर बहुजन समाज पार्टी के प्रत्याशी को इक्जाया होकर वोट डाल दिया। परिणाम देखकर सब चौंक पड़े। भिंड जैसी सीट पर बीएसपी के क्षत्रिय प्रत्याशी संजीव सिंह संजू ने 35 हजार 896 मतों के भारी अंतर से बीजेपी से चुनाव लड़े कद्दावर नेता राकेश चौधरी को हरा दिया। वोटों का इतना सशक्त ध्रुवीकरण हुआ कि कांग्रेस प्रत्याशी रमेश दुबे महज सवा 8 हजार वोट ले सके और जमानत गंवा बैठे। भिंड जिले की गोहद, मुरैना जिले की अम्बाह, दतिया जिले की भांडेर, ग्वालियर जिले की करैरा और अशोकनगर जिले की अशोक नगर सीट बीजपी के हाथ से जाती रही।





दलितों की खिलाफत से सामान्य सीटें भी हारी बीजेपी





दलितों के बीजपी के खिलाफ लामबंद होने का असर सामान्य सीटों पर भी पड़ा। अधिकांश जगह पर कांग्रेस प्रत्याशियों को दलितों का थोक वोट मिला और बाकी मुस्लिम और अपनी जाति के वोट बटोरकर उन्होंने अपनी राह आसान कर ली। इस ध्रुवीकरण में बीजेपी ग्वालियर दक्षिण जैसी अपनी सबसे मजबूत और पक्की सीट तक हार बैठी और उसके नरोत्तम मिश्रा, अरविंद भदौरिया यशोधरा राजे सिंधिया जैसे जो नेता जीते भी वह भी एकदम हार की कगार पर खड़े होकर। हालांकि कांग्रेस के दिग्गज नेता राम निवास रावत को हराने के लिए बीजेपी का टोटका कारगर रहा। बीजेपी ने इस सामान्य सीट पर एक सहरिया आदिवासी को ही टिकट थमा दिया और जातीय समीकरण बिठाकर रावत को हरवाने में कामयाबी हासिल कर ली।





उपचुनावों में भी नहीं बदला ट्रेंड





2019 में ज्योतिरादित्य सिंधिया ने अपने समर्थक विधायकों के साथ इस्तीफा दिलवाकर कमलनाथ के नेतृत्व वाली सरकार गिरवा दी और कोरोना का असर जब थोड़ा कम हुआ तो नवंबर 20 में अंचल की 16 सीटों पर उपचुनाव हुए। हालांकि इनमें से ज्यादा सीटें तो बीजेपी जीतने में कामयाब रही, लेकिन उसके लिए चिंता की बात रही कि 2018 का ट्रेंड उसका पीछा नहीं छोड़ रहा था। 6 आरक्षित सीटों में से बीजेपी ने 2 भले ही जीत लीं, लेकिन भांडेर में कांग्रेस के फूलसिंह बरैया महज 161 वोटों से हारे और अम्बाह सीट को जिताने के लिए केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर द्वारा एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ा।





नगर निगमों के जरिए फिर दिया झटका





सिंधिया और उसके समर्थकों के बीजेपी में आने से बीजेपी आलाकमान को लगा था कि इसके बाद वह दलित वोटों से हो रहे नुकसान की भरपाई इनसे कर लेंगे, लेकिन नगरीय निकाय चुनावों के परिणामों ने उसकी इन उम्मीदों पर भी पानी फेर दिया। 57 साल से जनसंघ के जमाने से बीजेपी का अभेद किला बनी ग्वालियर नगर निगम के मेयर पद बीजेपी के हाथ से जाता रहा। यहां विधानसभा उपचुनाव में कांग्रेस से जीते सतीश सिकरवार की पत्नी डॉ. शोभा सिकरवार ने शानदार जीत हासिल कर बीजेपी को भोपाल से लेकर दिल्ली तक हिला दिया। इसमें चौंकाने वाली बात ये है कि शोभा की 28 हजार के जीत के अंतर में साथ फीसदी दलित वार्डों का ही है। इसके अलावा संभाग की इकलौती आरक्षित नगर निगम मुरैना भी पहली बार बीजेपी के हाथ से जाती रही, जबकि इससे केंद्रीय कृषि मंत्री और अंचल के कद्दावर नेता नरेंद्र सिंह तोमर से सीधी प्रतिष्ठा जुड़ी थी।





कांग्रेस और बीजेपी दोनों के सामने कड़ी चुनौती





इस साल नवंबर में होने वाले विधानसभा चुनावों में भी अंचल में जीत की चाबी दलितों के पास ही है जो फिलहाल कांग्रेस के आसपास है। कांग्रेस के सामने इसे बचाने की बड़ी तगड़ी चुनौती है कि वह इस वोट को बीएसपी में जाने से रोके, क्योंकि अगर वह इसमें कामयाब नहीं हो सकी तो उसे फिर 2013 जैसे नतीजे ही हासिल हो सकेंगे। कमलनाथ इस दिशा में लगे भी हैं। उन्होंने बीएसपी के फाउंडर नेताओं में से एक फूलसिंह बरैया को पार्टी में शामिल करके उनको उपचुनाव भी लड़ाया। उनके जरिए वह बीएसपी के कैडर में घुसपैठ करने की कोशिश में लगे हैं। दूसरा युवा दलित चेहरे के रूप में देवाशीष जरारिया को आगे बढ़ाने में भी पार्टी लगी है। पार्टी में इनकी हैसियत को बताने के लिए बरैया की बेटी और जरारिया की खुद की शादी में कमलनाथ, दिग्विजय सिंह से लेकर सभी दिग्गज ग्वालियर पहुंचे। उधर ऐसा नहीं कि बीजेपी इस गेम से अपने को अलग किए हुए है। उसके भी अपने गेम प्लान है। पहला तो वह अपने दलित नेताओं को ताकतवर बनाकर दिखाने में लगी है ताकि उनके जरिए वह दलितों की फिर बीजेपी में वापसी करवा सके। इसी रणनीति के चलते उपचुनाव से पहले ही बीजेपी ने गोहद क्षेत्र से विधायक मंत्री लाल सिंह आर्य को बीजेपी अनुसूचित जाति मोर्चा के अध्यक्ष जैसे पद पर ताजपोशी कर दी थी। इसके अलावा हाल ही में भांडेर सुरक्षित सीट से एमएलए रहे घनश्याम पिरोनिया को बांस बोर्ड का अध्यक्ष बनाकर केबिनेट मंत्री का दर्जा दे दिया ताकि भांडेर में पार्टी की राह आसान हो सके। यानी संकट दोनों जगह है क्योंकि दलित वोट बैंक की चाबी जिसके भी हाथ लगेगी ग्वालियर चम्बल संभाग से सत्ता की चाबी उसी के पास आएगी। फिलहाल इसमें कांग्रेस का पलड़ा भारी दिख रहा है और अगर आज के माहौल सेहम दलित वोटों का रुझान नापें तो थर्मामीटर पर कांग्रेस को 10 में से 7 नंबर मिलते दिख रहे हैं और बीजपी के लिए फिलहाल राह बहुत कठिन है। यानी उसे सिर्फ 3 अंक पर ही संतोष करना पड़ेगा। यानी बीजेपी को सत्ता की चाबी हासिल करने के लिए अभी कठिन दौर से गुजरना पड़ेगा।



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