मध्यप्रदेश में उपचुनाव वाली सीटों पर मुश्किल है बीजेपी की वापसी? पुराने नेताओं ने शुरू की जबरदस्त तैयारी!

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Harish Divekar
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मध्यप्रदेश में उपचुनाव वाली सीटों पर मुश्किल है बीजेपी की वापसी? पुराने नेताओं ने शुरू की जबरदस्त तैयारी!

BHOPAL. मध्यप्रदेश में चुनावी तैयारी में जुटी बीजेपी के लिए सिरदर्द की कोई कमी नहीं है। एक मुश्किल का हल निकालो तो दूसरी मुश्किल सामने आ जाती है। अब तक सियासी दुनिया में आपने अपनों से होने वाले खतरों के कितने नाम सुने होंगे। चलिए कुछ शब्द गिनते हैं। एक भीतराघात, दूसरा गुटबाजी, तीसरा कलह, चौथा तालमेल की कमी, पांचवा दलबदल। मध्यप्रदेश की बीजेपी में ये सारे फ्लेवर गहराई तक उतर चुके हैं। कुछ नजर आने लगे हैं तो कुछ को दबाए रखने की कोशिश जारी है। लेकिन ये सब तो कॉमन है, हर पार्टी में हर चुनाव में होता है।



बीजेपी की मुश्किलें बढ़ीं



अब आप पूछ सकते हैं या बीजेपी के नेता ही पूछ सकते हैं कि इसमें नया क्या है। नया क्या है हम बताते हैं। बीजेपी में सियासत के सारे फ्लेवर हैं। मजे की बात ये कि इन फ्लेवर में भी वैरायटी बहुत है। कहीं पुराने भाजपाई नाराज हैं। कहीं नए भाजपाई नाराज हैं। कहीं पुराने भाजपाइयों से भीतराघात का खतरा है किसी सीट पर नए भाजपाइयों से भीतराघात का खतरा है। इसी नई और पुरानी बीजेपी की वजह से प्रदेश की तकरीबन 30 विधानसभा सीटें पार्टी के लिए बड़ी मुश्किल बन चुकी हैं।



दलबदल की वजह से 30 सीटों का गणित उलझा



दलबदल की वजह से नाराजगी की आग तो मध्यप्रदेश में पूरी बीजेपी में लगी है, लेकिन कुछ 30 सीटें थोड़ी ज्यादा सुलग रही हैं। ये वही सीटें हैं जिनमें दलबदल की आग लगी और कांग्रेस की सरकार जलकर खाक हो गई। 2018 के चुनावी नतीजे कांग्रेस के पक्ष में गए। सरकार तो बनी, लेकिन बहुमत के आंकड़े से बहुत दूर नहीं जा सके जिसका फायदा बीजेपी ने उठाने में देर नहीं की।



मध्यप्रदेश में बीजेपी को हो सकता है नुकसान



कुछ विधायकों ने दलबदल कर बीजेपी ज्वॉइन की। बीजेपी की सरकार प्रदेश पर फिर काबिज हुई। चौथी बार भी मध्यप्रदेश बीजेपी की झोली में तो चला गया, लेकिन इस बार झोली की मजबूती जरा कम हो गई। जैसे-जैसे 2023 के चुनाव नजदीक आ रहे हैं ये झोली चिरने भी लगी है। जिसमें छेद होते जा रहे हैं जिनसे एक-एक कर पुराने साथी दूर हो रहे हैं। ये वो पुराने साथी हैं जो कभी बीजेपी की सत्ता में भागीदार थे, लेकिन 2020 के उपचुनाव में कुछ नए चेहरों ने उनकी जगह ले ली। अब वही पुराने चेहरे अपनी पुरानी पार्टी के लिए बड़ा खतरा बन सकते हैं। क्योंकि, एक बार फिर अपनी सियासी जमीन वो वापस चाहते हैं। उनकी यही चाहत बीजेपी को बड़ा नुकसान पहुंचा सकती है।



फिनिक्स पक्षी की तरह कांग्रेस की स्थिति



मध्यप्रदेश में कांग्रेस की स्थिति एक फिनिक्स पक्षी की तरह है। जो अपनी राख से दोबारा जन्म लेकर फिर सत्ता में उड़ान भरना चाहता है। सत्ता का ये आकाश पहले ही बीजेपी के कब्जे में है। पर उड़ान पर बहुत सी सीटों पर बहुत-सी बंदिशें हो सकती हैं। पर कतरने के लिए वही लोग तैयार बैठे हैं जो उड़ान की कमजोरियों से वाकिफ हैं। मतलब ये कि दलबदल वाली सीटों के पुराने नेता, जिन्हें नए नेताओं के चक्कर में नजरअंदाज कर दिया गया वो अब चुप बैठने वाले नहीं हैं। उनके लिए स्थिति तो करो और मरो वाली है। 28 सीटों के उपचुनाव के वक्त तो जैसे-तैसे वो शांत रहे। पर, इस बार भी शांत रहे तो सियासत की सक्रिय दुनिया में वापसी का दरवाजा बंद हो सकता है। यानी सियासी भविष्य पर ही फुल स्टॉप लग सकता है। इस फुल स्टॉप से पहले ही पुराने भाजपाई अपनी लाइन लंबी करने निकल चुके हैं।



बीजेपी के पुराने नेताओं ने कसी कमर



दलबदल कर आने वाले सारे नेताओं की सीट पर खलबली मची हुई है। कुछ ऐसी सीट हैं जहां पुराने भाजपाई हावी होने की पूरी कोशिश में हैं। कुछ ऐसी सीट भी हैं जहां नए भाजपाइयों का कोई दमदार विकल्प नहीं है। सबसे ज्यादा मुश्किल उन सीटों पर है जहां ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ दलबदल कर आने वाले नेताओं को हार का मुंह देखना पड़ा। उन सीटों पर बीजेपी के पुराने नेताओं ने कमर कस ली है।



पुराने नेता, नए अरमान




  • हाटपिपल्या सीट पर दलबदल कर आए मनोज चौधरी हारे, यहां से पूर्व विधायक दीपक जोशी सक्रिय हो चुके हैं।


  • बदनावर से राजवर्धन दत्तीगांव को वैसे कोई सीधी चुनौती तो नहीं है, लेकिन पुराने भाजपाई भैरोसिंह शेखावत वापसी की कोशिश कर सकते हैं।

  • पूर्व मंत्री रुस्तम सिंह भी मुरैना में ताकत लगा सकते हैं। यहां से सिंधिया समर्थक रघुराज सिंह कंसाना हार गए थे।

  • सुमावली सीट पर सिंधिया समर्थक एंदल सिंह कंसाना हार गए थे, कांग्रेस के कांग्रेस के अजब सिंह कुशवाहा यहां से विधायक हैं।

  • सांवेर से तुलसी राम सिलावट विधायक हैं। पुराने भाजपाई राजेश सोनकर यहां से टिकट की डिमांड कर सकते हैं।

  • सांची से प्रभुराम चौधरी के लिए पूर्व मंत्री गौरीशंकर शेजवार मुसीबत बने हुए हैं, वे गाहे-बगाहे अप्रत्यक्ष रुप से चौधरी को घेरने में कोई कसर नहीं छोड़ते। वे अपने बेटे मुदित शेजवार को मैदान में उतारना चाहते हैं।



  • पुराने दिग्गज भी अपनी ही पार्टी के दुश्मन



    मुसीबत इतने पर ही खत्म हो जाती तो क्या बात थी। पुराने दिग्गज भी अपनी ही पार्टी के दुश्मन बने हुए हैं। क्योंकि उन्हें अपनी सत्ता जो बचानी है। दमोह से पार्टी के कद्दावर नेता जयंत मलैया अलग बिसात बिछा रहे हैं। ग्वालियर में अनूप मिश्रा जैसे दिग्गजों को भी साधने के लिए पार्टी जी तोड़ कोशिश कर रही है। ये बात अलग है कि बीजेपी यही जाहिर करने में लगी है कि पुराने नेता पार्टी के सच्चे साथी हैं और उनसे कोई खतरा नहीं है।



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    असंतुष्ट नेताओं को अनदेखा नहीं कर सकती बीजेपी



    अंदरखानों की खबर ये है कि इन नेताओं को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। ये सभी पार्टी के माटी पकड़ पहलवान हैं, जिनकी जनता के बीच पकड़ बहुत गहरी है। ऐसी सीटों पर कांग्रेस और आप भी वेट एंड वॉच की स्थिति में है। दोनों ही दलों की ऐसे नेताओं पर नजर है जो बीजेपी से असंतुष्ट हैं और अपनी सीटों पर भी पकड़ रखते हैं। संभावना है कि ये ऐसे असंतुष्ट नेताओं को कांग्रेस या आप ऐन मौके पर कोई अच्छा ऑफर दे दे।



    बीजेपी के सामने सही प्रत्याशी चुनने की चुनौती



    कुछ ऐसे दमदार चेहरे भी हैं जिनके सामने न पुराने भाजपाई और न ही किसी कांग्रेसी की बड़ी चुनौती नजर आ रही है। इनमें सुरखी से गोविंद सिंह राजपूत, बमौरी से महेन्द्र सिसोदिया और ग्वालियर से प्रद्युम्न सिंह तोमर के नाम शामिल हैं, लेकिन कुछ सीटों पर नए और पुराने के बीच सही प्रत्याशी चुनने की बड़ी चुनौती बीजेपी को झेलनी ही होगी।



    बीजेपी के आगे कुआं और पीछे खाई



    नई और पुरानी बीजेपी के बीच असल बीजेपी सैंडविच बन चुकी है। डर इस बात का है कि ये सैंडविच बीजेपी के लिए सत्ता का स्वाद लेना मुश्किल ना कर दे। कांग्रेस सरकार को प्रदेश से बेदखल कर बीजेपी की सत्ता को यहां जमाने वाले पार्टी के कुछ चेहरे कहीं अब कांग्रेस सरकार की वापसी के लिए जोर लगाते हुए नजर ना आएं। पर संकट ये है कि पुराने को मनाया तो नया बिफर सकता है। नए को मनाकर रखा तो पुराने की नाराजगी भारी पड़ सकती है। फिलहाल बीजेपी के लिए ये आगे कुआं पीछे खाई वाली स्थिति है।


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