बेहट में तानसेन की तान से टेढ़ी पड़ गयी थी भगवान शिव की मढ़िया, ग्वालियर का यह मंदिर संगीतज्ञों के लिए तीर्थ जैसा

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Atul Tiwari
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बेहट में तानसेन की तान से टेढ़ी पड़ गयी थी भगवान शिव की मढ़िया, ग्वालियर का यह मंदिर संगीतज्ञों के लिए तीर्थ जैसा

देव श्रीमाली, GWALIOR. ग्वालियर में इन दिनों भारतीय शास्त्रीय संगीत के महान गायक और अनेक राग रागनियों के जन्मदाता तानसेन की स्मृति में विश्वस्तरीय तानसेन संगीत समारोह चल रहा है। इसका आयोजन ग्वालियर शहर के मध्य में स्थित मोहम्मद गौस के मकबरे पर स्थित तानसेन की समाधि पर बीते 98 वर्ष से होता है, लेकिन इसकी समापन सभा होती है शहर से 45 किलोमीटर दूर ग्राम बेहट में, वह भी एक मंदिर पर। यहां इसके आयोजन से जुड़ी किंवदंती आज भी रोमांचित करती है कि तानसेन ने अपनी पहली तान इसी मंदिर पर बैठकर छेड़ी थी। यही नहीं, वो तान इतनी इतनी जबर्दस्त थी कि शिव मंदिर ही टेढ़ा हो गया था और सैकड़ों साल बाद आज भी वह मंदिर स्थित है। तानसेन ग्वालियर के ही थे। उनका सही नाम तनसुख मकरंद पांडे था। उन्होंने स्वामी हरिदास से गायन की शिक्षा ली थी।



बेहट में ही जन्मे थे तानसेन



ग्वालियर के राजा मानसिंह तोमर, विंध्य क्षेत्र के महाराजा रामचंद्र सिंह के दरबारों में रहे तानसेन बाद में अकबर के नव रत्नों में शुमार हो गए। उनका जन्म ग्वालियर जिले के ग्राम बेहट में हुआ था। संगीत संबंधी लेखों में उन्हें मियां तानसेन भी उल्लिखित किया जाता है लेकिन सत्य ये है कि वे ब्राह्मण कुल में जन्मे थे। झिलमिल नदी के किनारे स्थित बेहट गाँव के मकरंद पांडे के यहां पैदा हुए तानसेन के जन्म को लेकर भी एक किंवदंती है कि मकरंद के यहां संतान तो कई हुईं लेकिन जीवित एक भी नही रह पा रही थी लिहाजा वे ग्वालियर आकर सूफी संत मोहम्मद गौस से मिले और संतान के लिए अर्जी लगाई। उनके आशीर्वाद से तानसेन का जन्म हुआ। हालांकि वे कब पैदा हुए इसको लेकर कोई सटीक दस्तावेज मौजूद नही है, लेकिन राजा मानसिंह और बैजू बावरा के कालखंड के विश्लेषण केबाद कुछ इतिहासकारों का मत है कि तानसेन का जन्म 1468 में हुआ था। 



कहते हैं कि तानसेन की तान से सब डोल जाते थे



भारतीय शास्त्रीय संगीत तो मानो तानसेन को विरासत में ही मिला और उनका नाम तो दुनिया में श्रेष्ठ गायन का पर्याय ही बन गया । हालांकि उनका असली नाम तो तनसुख उर्फ त्रिलोचन था लेकिन गांव के साथी लड़के उन्हें तन्ना के नाम से बुलाते थे जो कालांतर में तानसेन के नाम से ही प्रचलित हो गया। कहते है कि बालक तन्ना को बचपन से ही गायन का शौक था और वे अपने गायन के अभ्यास के लिए गांव के बाहरी इलाके में स्थित शिव मंदिर पर जाते थे। वे अपना अधिकांश समय इसी मंदिर पर संगीत साधना में बिताते थे। इस मंदिर परिसर में एक प्राचीन टेढ़ा शिव मंदिर आज भी मौजूद है । मान्यता है कि यह वही शिव मंदिर है जिसका उल्लेख तानसेन के संगीत साधना स्थल शिव की मढ़िया के रूप में मिलता है। यह रोमांचित इसलिए करती है, क्योंकि इससे जुड़ी कहानी तानसेन की संगीत साधना और शास्त्रीय संगीत की शक्ति का अहसास कराती है कि शास्त्रीय संगीत में वह शक्ति है कि उससे धरा और मेघ सब डोल सकते हैं।






तानसेन के आलाप से टेढ़ी हो गई थी शिव की मढ़िया



बेहट में स्थित शिव की यह टेडी मढ़िया आज भी देश के संगीतज्ञ और संगीत रसिकों के लिए ना केवल कौतूहल, बल्कि श्रद्धा का विषय है । बड़ी संख्या में लोग इसे देखने आते रहते हैं। मान्यता है कि अपनी संगीत साधना के दौरान एक बार बालक तानसेन ने ऐसा आलाप लगाया कि यह शिव मंदिर ही टेढ़ा हो गया। इसके बाद उनकी ख्याति बढ़ गयी। पिता मकरंद पांडे डर भी गए। वे तन्ना को लेकर ग्वालियर मोहम्मद गौस के पास पहुंचे। उन्हें पूरा हाल बताया तो उन्होंने उसे वही रखकर संगीत शिक्षा देनी शुरू कर दी। बाद में उन्हें वृंदावन भेजा गया, जहां हरिदास महाराज से शास्त्रीय संगीत के गुर सीखे। तानसेन ने मानसिंह के दरबार के मुख्य संगीतज्ञ बैजू बावरा से भी शिक्षा ली थी।



मानसिंह के दरबार में मिला स्थान



तानसेन की गायकी की खुशबू हर जगह बिखर चुकी थी। ग्वालियर के तत्कालीन राजा मानसिंह तोमर ना केवल संगीत प्रेमी थे, बल्कि संगीत मर्मज्ञ भी थे। उन्होंने स्वयं भी कई रागों की रचना की, जिसमें ध्रुपद मुख्य है। इसी से संगीत के ग्वालियर घराने की नींव पड़ी। मानसिंह तोमर की मृत्यु के बाद ग्वालियर में सजी संगीत की यह बगिया उजड़ गई। हरिदास से पारंगत होने के बाद तानसेन शेरशाह सूरी के पुत्र दौलत खां के आश्रय में रहे, फिर विंध्य क्षेत्र में स्थित बांधवगढ़ (वर्तमान रीवा) के राजा रामचंद्र के दरबारी गायक नियुक्त हो गए।



तानसेन पर अकबर का आया दिल 



तानसेन के मखमली और प्रभावी गायन की ख्याति पूरे देश में फैल चुकी थी। इसकी चर्चा बादशाह अकबर तक पहुंची तो वह उन्हें अपने दरबार की शोभा बढ़ाने पर अड़ गया। कहा तो ये भी जाता है राजा रामचंद नही चाहते थे कि तानसेन उनके यहां से जाएं, लेकिन अकबर उनको लेकर बहुत ही गंभीर था और इसके लिए हमला भी कर सकता था। यह खबर मिलने पर रीवा महाराज ने तानसेन को दिल्ली दरबार भेज दिया। अकबर ने भी तानसेन की कला को मान देने में कोई कोर-कसर नही छोड़ी। उन्हें अपने नवरत्नों में शुमार किया और ताउम्र उन्हें अपने आसपास ही रखा।



ये राग है तानसेन के बहुत प्रसिद्ध



तानसेन के तीन राग बहुत प्रसिद्ध हैं-



मियां की मल्हार



तानसेन द्वारा दीपक राग द्वारा प्रज्ज्वलित अग्नि को शांत करने के लिए राग मल्हार की रचना की। किंवदंती है कि इसके गायन से बारिश होने लगती थी। यह अत्यंत प्राचीन राग है, जिसे बारिश का राग भी कहा जाता है । इसे तानसेन भगवान शिव को बरसात के मौसम में खुश करने के लिए गाया करते थे। इसी को बाद में संगीतज्ञों ने मियां की मल्हार नाम भी दिया।



राग दरबारी कान्हड़ा



जब भी तानसेन का जिक्र होता है तो संगीतज्ञ इस राग का जिक्र जरूर करता है। जब भी ग्वालियर घराने की प्रस्तुति होती है तो पहली प्रस्तुति इसी की होती है। तानसेन ने इस राग की रचना तो कर ली थी लेकिन इसे सुनाया पहली बार अकबर के दरबार में। तभी से इसका नाम दरबारी कान्हड़ा पड़ गया।



ध्रुपद 



राजा मानसिंह के समय सृजित ध्रुपद यूं तो काफी पुराना था लेकिन इसका मूल कथ्य और गायन स्वरूप संस्कृत निबद्ध थी। इसे सुनकर रसिक झूमते तो खूब थे लेकिन ज्यादा समझ नही आता था। राजा मानसिंह के दरबार में उनकी इच्छा और सहयोग से तानसेन ने ध्रुपद को को संभाला और तभी इसे ध्रुपद नाम मिला। ग्वालियर घराने की नींव का पत्थर ध्रुपद ही है। इसके संरक्षण के लिए न केवल ग्वालियर बल्कि बेहट में भी एक ध्रुपद शिक्षण केंद्र खोला गया है जहां नई पीढ़ी को इस जादुई राग शैली की शिक्षा दी जाती है।



लाहौर में शांत हुए, ग्वालियर में समाधिस्थ 



सम्राट अकबर जहां भी जाता तानसेन उनके साथ ही काफिले का हिस्सा होते थे । सन 1589 में अकबर कश्मीर यात्रा पर निकला । उनके साथ तानसेन भी थे, लेकिन लाहौर में बीमारी के चलते इस महान संगीतज्ञ ने अपनी जीवन यात्रा को विराम दे दिया। भारतीय शास्त्रीय संगीत का यह सूरज अपने मखमली और जादुई गायन और अविष्कारित रागों की कालजयी अमूल्य थाती देश को सौंपकर अस्त हो गया। अकबर ने उनकी अंतिम ख़्वाहिश को पूरा करने के लिए उनकी पार्थिव देह को ग्वालियर भेजकर उनके गुरु मोहम्मद गौस के मकबरे के समीप समाधिस्थ करवाया।



सिंधिया शासकों ने शुरू करवाया तानसेन समारोह



तत्कालीन सिंधिया शासक माधो महाराज प्रथम ने गंगा-जमुनी से से संस्कृति से सराबोर आयोजन तानसेन की समाधि पर शुरू कराया । 1924 में इसकी शुरुआत उर्स के रूप में हुई लेकिन इस पर एक तरफ मराठा मठ के संत ढोली बुआ महाराज हरिकथा का गायन करते है और फिर मीलाद शरीफ भी होती थी। यह परंपरा आज भी अनवरत जारी है।


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