देव श्रीमाली, GWALIOR. आज ( 8 नबंवर) गुरुनानक जयंती है। सिख पंथ के संस्थापक और पहले गुरु नानक देव द्वारा स्थापित सिख और खालसा पंथ का ग्वालियर से बड़ा गहरा नाता है। सिख पंथ के छठवें गुरु हरगोविंद सिंह साहब का लंबा समय ग्वालियर में बीता और उन्होंने अपनी सूझबूझ से किले में जहांगीर द्वारा किले में कैद करके रखे गए चालीस हिन्दू राजाओं की रिहाई कराई। इससे उनका नाम ही दाताबन्दी छोड़ पड़ गया। ग्वालियर किले में जिस स्थान पर वे रहे थे, वहां आज एक भव्य गुरुद्वारा है। यह दाताबन्दी छोड़ गुरुद्वारा सिखों का अब बड़ा तीर्थ है, जहां दुनिया भर से सिख धर्मावलंबी रोज यहां अरदास करने और मत्था टेकने पहुंचते है। गुरु की किले से जुड़ी कहानी आज भी लोगों को रोमांचित करती है।
जब 13 साल की उम्र में कैदी बनकर ग्वालियर आए गुरू हरगोविंद साहब
गुरूद्वारा दाताबंदी छोर के सेवादार सुक्खा सिंह ने बताया कि देश में जब मुगल सल्तनत काबिज थी। उनके बादशाह जहांगीर ने सिख धर्म के बढ़ते प्रभाव को देखकर सिंखों के छठवें गुरू हरगोविंद साहिब को हुकमरानों के आगे न झुकने पर छल पूर्वक ग्वालियर किले में अघोषित कैद करवा लिया। ग्वालियर दुर्ग जो कि उस समय एक जेल के रूप में इस्तेमाल किया जाता था वहां ले आए। जब उन्हें लाया गया तो उस समय उनकी उम्र महज 13 साल थी। फिर भी उन्होंने किसी की पराधीनता स्वीकार नहीं की।
जहां करते थे साधना वहां आज है दाताबंदी छोड़ गुरुद्वारा
जब गुरू सहिब ग्वालियर पहुंचे तो उस समय उनके अलावा 52 अन्य राज्यों के राजा जिन्होनें मुगल सामराज्य की पराधीनता को स्वीकार नहीं किया था, वे भी वहां कैद थे। जब गुरू साहिब को जेल मे अंदर किया गया, तो वहां कैद राजाओं ने बड़े जोर -शोर के साथ उनका स्वागत किया। लगभग 2 साल 3 माह तक गुरू साहब को कैद रखा गया। इस दौरान उन 52 राजाओं से भी उनके संबध मधुर हो गए। बताया जाता है कि जहां बैठकर गुरू साहिब आध्यात्म करते थे। वहीं आज गुरूद्वारा दाता बंदी छोड़ बना हुआ है, जो पूरी दुनिया में सिख समाज छठवां सबसे बड़ा तीर्थ स्थल है।
जब 52 राजाओं को छोड़ने की रखी शर्त
जैसे-जैसे दिन बीते गुरू साहिब और राजाओं के संबध और भी मधुर हो गए। वहीं इस दौरान जहांगीर की तबियत बेहद खराब रहने लगी। काफी दवाओं और नीम हकीमों की दवा का भी जब कुछ असर नहीं हुआ तो मुगुलों के सबसे बड़े पीर साहिब सांई मियां पीर को दिल्ली बुलाया गया। उन्होंने जहांगीर की बेगम और स्वयं उसे बताया कि तुमने किसी अल्लाह के नेक बंदे को कैद कर रखा है। जब तक आप उन्हें नहीं छोड़ोगे, दुख तुम्हें नहीं छोड़ेगा। जहांगीर तत्काल समझ गया कि गलती क्या है। जहांगीर ने तत्काल गुरूसाहिब को छोड़ने का फरमान जारी किया। लेकिन गुरू साहिब ने अकेले जाने से मना कर दिया और शर्त रखी कि वे अकेले नहीं बल्कि उनके साथ कैद किए गए सभी 52 हिन्दू राजाओं को साथ लेकर ही किले से जीवित जाएंगे।
कैसे गुरू साहिब ने उन 52 राजाओं को कैद से छुड़वाया
जहांगीर ने अपने स्वास्थ्य को लेकर भयभीत देखते हुए गुरू की शर्त को मान तो लिया लेकिन एक शर्त रखी कि जो भी राजा गुरू के वस्त्रों को पकड़कर बाहर जाएगा, वहीं आजाद हो सकता है, तो गुरू ने जहांगीर की कूटनीति को समझते हुए एक विशेष कुर्ता बनवाया। इसमें 52 कलिया बनी हई थीं। इन 52 कलियों को प्रत्येक राजा ने पकड़ा और बाहर आए गए।
यहीं से हुई सिखों की दीवाली की शुरुआत
सेवादार सिंह ने बताया कि यहां से आजाद होने के बाद गुरू सीधे अमृतसर पहुंचे। जहां उनका स्वागत उनके अनुयायियों ने ठीक उसी तरह किया,जिस तरह भगवान श्री राम का वनवास के बाद अयोध्या लौटने पर हुआ था। इसी के साथ जिस दिन वे वहां पहुंचे थे, संयोग से वह दीपावली का ही दिन था। लेकिन पहले सिख दीवाली नहीं मनाते थे लेकिन उस दिन सभी ने अपने घरों के आगे दीपक जलाकर उनका स्वागत किया और उन्हे सम्मान दिया। तभी से सिख समाज में भी दीपावली को विशेष परंपरा के रूप में मनाया जाता है, जो आज भी कायम है। इस सब की शुरूआत ग्वालियर से हुई थी।
गुरु ने सबसे पहले शस्त्र विद्या सीखने का किया था आह्वान
गुरु हरगोविंद सिंह के पिता अर्जन देव था । वे सिखों के पांचवे गुरु थे। उनके बलिदान के बाद अल्पायु में उन्हें सिख संगत के छठवें गुरु के रूप में गद्दीनशीन किया गया लेकिन उन्होंने सिखों को अस्त्र -शस्त्र का प्रशिक्षण लेने प्रेरित किया। उन्होंने कहा कि उनके सभी भक्तों का अस्त्र - शस्त्र विद्या से पारंगत और शारीरिक सौष्ठव से सम्पन्न होना जरूरी है । इसके साथ ही सिख धर्मावलंबी मजबूत देहयष्टि वाले होने लगे।