BHOPAL. कहते हैं दोस्त जब दुश्मन बनता है तो वो सबसे घातक साबित होता है। ये दुश्मनी चाहे युद्ध के मैदान में हो या फिर राजनीति के मैदान में हो खतरनाक ही होती है। एक ऐसी ही दोस्ती देश की सियासत में थी जिसकी मिसाल दी जाती थी आज वही दोस्ती मध्य प्रदेश में सबसे बड़ी सियासी दुश्मनी की इबारत लिख रही है। केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया और राहुल गांधी की सियासी लड़ाई कहां जाकर थमेगी, आज इस बात का अंदाजा लगाना किसी राजनीतिक पंडित के बस की बात नहीं है। लेकिन इस सियासी लड़ाई की शुरुआत कमलनाथ सरकार में दिग्विजय सिंह की दखल के बाद से शुरू मानी जाती है।
सिंधिया-राहुल का बचपन का था याराना
सिंधिया और गांधी परिवार की दोस्ती आज की नहीं दो पीढ़ियों से चली आ रही थी। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी और पूर्व केंद्रीय मंत्री माधवराव सिंधिया की दोस्ती के चर्चे संसद से लेकर सड़क तक होते थे। कहा जाता था कि राजनी और माधवराव दो रुप और एक परछाई थे। इनकी दोस्ती ने देश की राजनीति में अपना परचम फहराया था। राजीव गांधी की हत्या और पूर्व केंद्रीय मंत्री माधवराव सिंधिया की दुर्घटना में मौत के बाद दोनों के बेटे राहुल गांधी और ज्योतिरादित्य सिंधिया की दोस्ती भी इसी तरह संसद से लेकर सड़क तक छाई रही। कहा जाता है कि गांधी परिवार के सबसे करीबी लोगों में सिंधिया सबसे पहले गिने जाते थे। ये दोस्ती बचपन से ही परवान चढ़ रही थी, दोनों ही दून स्कूल से साथ पढ़े और इस दोस्ती की शुरुआत स्कूली दौर में ही हो गई थी। इसके बाद बदलते हालात के बाद दोनों ने धीरे-धीरे राजनीति की तरफ कदम बढ़ाए और आज दोनों की राजनीति के महारथी कहे जाते हैं।
एक सा पहनावा और साथ बैठना
सत्र के दौरान जब लोकसभा में राहुल गांधी और ज्योतिराज सिंधिया जाते थे तो कई मौके ऐसे आते थे जब दोनों एक जैसी ड्रेस में सदन में दिखाई पड़ते थे। वहीं दोनों ही नेता सदन में अगल-बगल ही बैठते थे। जब भी राहुल गांधी पर कोई तीखा हमला होता था तो सबसे पहले ज्योतिरादित्य सिंधिया उसका जवाब देते थे। कई टीवी डिबेट में जब एंकर या विपक्षी नेता राहुल पर सवाल उठाते थे तो सिंधिया उनकी ढाल बनकर सामने आते थे। ये दौर बीत गया और अब दोनों ही नेता एक-दूसरे के कट्टर सियासी दुश्मन बन चुके हैं। दोनों ही राजनीतिक दांवपेच के बीच एक दूसरे पर हमला करना नहीं भूल रहे हैं। कहा जाता है कि इस दोस्ती के टूटने की मुख्य वजह दिग्विजय सिंह रहे जो कि गांधी परिवार के खास सिपाहसालार में से एक माने जाते हैं।
जानिए कैसे हुई ग्वालियर और राघौगढ़ के बीच दुश्मनी
साल 1802 में ग्वालियर के महाराज दौलतराव सिंधिया ने राघौगढ़ रियासत के सातवें राजा जय सिंह को हरा दिया था। इसके बाद राघौगढ़ राजघराना ग्वालियर रियासत के अधीन आ गया था। दोनों परिवारों के संबंदों में खटास की शुरुआत यहीं से मानी जाती है। साल 1947 के बाद के बाद राघौगढ़ रियासत ने राजनीति में पहले एंट्री ली थी साल 1951 में राघौगढ़ के तत्कालीन राजा और दिग्विजय सिंह के पिता बलभद्र सिंह ने चुनाव लड़ा और जीते। दूसरी तरफ सिंधिया घराना 1957 में राजनीति में आया जब ज्योतिरादित्य सिंधिया की दादी विजयाराजे सिंधिया गुना संसदीय क्षेत्र से चुनाव में उतरीं। 1971 में दिग्विजय सिंह ने राजनीति में कदम रखा और चुनाव जीत गए। 1966 में बस्तर के राजा की हत्या के बाद विजयाराजे सिंधिया कांग्रेस छोड़ जनसंघ में शामिल हो गईं। 1971 में ही ज्योतिरादित्य के पिता माधवराव सिंधिया भी राजनीति में उतर आए। राजमाता जहां जनसंघ और बीजेपी की संस्थापक सदस्यों में से एक मानी जाती हैं तो वहीं उनके बेटे माधवराव सिंधिया कांग्रेस के प्रभावशाली नेताओं में शुमार थे।
191 साल बाद राघौगढ़ ने लिया बदला!
माधवराव सिंधिया संजय गांधी की दोस्ती के सहारे लगातार आगे बढ़ रहे थे। साल 1993 में मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनने जा रही थी। इस समय माधवराव सीएम पद के दावेदार थे, लेकिन दिग्विजय सिंह को ये बात नागवार गुजरी और उन्होंने अर्जुन सिंह के सहारे माधवराव की कुर्सी छीन ली। माधवराव सिंधिया को एस बात का मलाल अंतिम समय तक रहा। कहा जाता है कि साल 1802 में युद्ध के मैदान में मिली हार का बदला दिग्विजय सिंह ने राजनीति के मैदान में लिया था। माधवराव दुनिया को अलविदा कह गए लेकिन कहते हैं न आदमी बुढ़ा होता है बैर नहीं। दिग्विजय सिंह ने इसी तरह का एक और दांव चला साल 2018 में, इस बार माधवराव की जगह थे उनके बेटे ज्योतिरादित्य सिंधिया और अर्जुन सिंह की जगह कमलनाथ। बिसात वही सरकार की थी और लेकिन चाल दिगविजय की और इस बार भी दिग्वियज सिंह सफल हुए और जिस ज्योतिरादित्य के चेहरे पर चुनाव लड़ा गया था। उस चेहरे को श्यामला हिल्स के बजाय पुन: ग्वालियर भेजने में सफल रहे।
कमलनाथ ने शुरुआत में दिया था सम्मान
कमलनाथ ने मुख्यमंत्री पद की शपथ लेते हुए सिंधिया समर्थक विधायकों को भी मंत्री बना कर ज्योतिरादित्य सिंधिया का सम्मान बढ़ाने का पूरा प्रयास किया। इस दौरान पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के बेटे जयवर्धन सिंह, प्रियव्रत सिंह सहित उनके गुट के कई विधायक भी मंत्री बनाए गए। जब भी राजनीतिक वर्चस्व की बात होती तो कमलनाथ के सामने हमेशा सिंधिया और दिग्विजय सिंह को संतुष्ट करना सबसे टेढ़ी खीर साबित होता था। 2018 में बनी कमलनाथ सरकार में धीरे-धीरे दिग्विजय सिंह का दखल शुरू हुआ, जैसे-जैसे ये दखल बढ़ा वैसे-वैसे ज्योतिरादित्य सिंधिया की कमलनाथ से नाराजगी बढ़ती चली गई।
राज्यसभा की सीट पर बिगड़ी बात!
साल 2019 में ज्योतिरादित्य सिंधिया अपने ही एक समर्थक से लोकसभा का चुनाव हार गए। ये पहला मौका था जब ग्वालियर के राजमहल को 'संविधान के महल' में नहीं मिली थी। सिंधिया इस हार को कई दिनों तक भूला न सके। इस चुनाव में सिर्फ सिंधिया ही नहीं दिग्विजय सिंह को भी भोपाल सीट से मुहं की खाना पड़ी थी, और वो भी चुनाव हार गए थे। लेकिन सिंधिया ने राज्यसभा से सांसद बनने की तैयारी शुरु कर दी थी। उसी समय उनके सबसे बड़े सियासी दुश्मन माने जाने वाले पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह भी सिंधिया को फिर से रोकने की तैयारी में भी जुट गए थे। पहले कहा गया था कि ज्योतिरादित्य सिंधिया का नाम राज्यसभा में पहले नंबर पर जाएगा ताकि उन्हें किसी प्रकार की अड़चन पैदा न हो। इसके बाद उठाकर अचानक उनका नाम दूसरे नंबर पर कर दिया गया।
सिंधिया ने सड़क पर उतरने की दी थी चेतावनी, कमलनाथ को 'सड़क' पर ले आए
सिंधिया जब इस बात को लेकर राहुल गांधी के पास जाने लगे तो कहा जाता है कि उन्हें राहुल गांधी से मिलने का मौका ही नहीं मिल पाया। इसके बाद उन्होंने बीजेपी में जाने का मन बना लिया था। इसी बीच उन्होंने तत्कालीन मुख्यमंत्री कमलनाथ को सड़क पर उतरने की चेतावनी दी तो कमलनाथ ने उन्हें सड़क पर आ जाने को आमंत्रण दे डाला। कमलनाथ के इस बयान ने आग में घी का काम किया और ज्योतिरादित्य सिंधिया के बीजेपी में पहुंच गए और सड़क पर आने का आमंत्रण देने वाले कमलनाथ खुद सीएम हाउस से 'सड़क' पर आ गए।
कमलनाथ को लगा था कि मंत्री पद नहीं छोड़ेंगे सिंधिया समर्थक
जब मार्च 2020 में मध्यप्रदेश में कांग्रेस के दो गुटों के बीच सियासी घमासान चल रहा था तो तीसरा गुट टकटकी लगाए देख रहा था। इन गुटों में पहला गुट ज्योतिराज सिंधिया का माना जाता है जबकि दूसरा गुट दिग्विजय सिंह और तीसरा कमलनाथ का था। जब सिंधिया समर्थक मंत्री और विधायक बागी हो रहे थे, उस समय कमलनाथ को यह भरोसा था कि सिंधिया समर्थक मंत्री अपना पद नहीं छोड़ेंगे। उन्हें जरा भी इस बात का एहसास नहीं ता कि सभी सिंधिया समर्थक मंत्री बेगलुरु को आपनी ठीकाना बना लेंगे। पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने भी कमलनाथ को दिलासा दिया था मगर जैसे ही सिंधिया समर्थक विधायक और मंत्रियों ने इस्तीफे दे दिए, उससे उनकी उम्मीदों को झटका लग गया।
इस बार दिग्विजय सिंह खा गए मात
राजनीतिक पंडितों का मानना है कि पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह इस बार सिंधिया से मात खा गए। क्योंकि दिग्गी का मानना था कि जब मंत्री और विधायक पद छोड़ने की बात आएगी तो सिंधिया समर्थक नेता सिंधिया को छोड़कर कांग्रेस के साथ आ जाएंगे। इसके बाद मध्य प्रदेश की राजनीति में सिंधिया का अस्तित्व ही खत्म हो जाएगा। पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह का ही आकलन गलत साबित हुआ और आज कांग्रेस की राह में ज्योतिरादित्य सिंधिया सबसे बड़े रोड़े बनकर सामने आ रहे हैं।
दोस्ती खत्म होते ही सियासी दुश्मनी मिसाल बनी
ज्योतिरादित्य सिंधिया और राहुल गांधी की दोस्ती उस समय खत्म हो गई, जब ज्योतिरादित्य सिंधिया ने बीजेपी का दामन थामते हुए कमलनाथ सरकार को गिरा दिया। इसके बाद कुछ समय तक ज्योतिरादित्य सिंधिया और राहुल गांधी ने एक दूसरे पर सीधे रूप से सियासी हमला कभी नहीं किया लेकिन जब 'भारत जोड़ो यात्रा' निकली तो राहुल गांधी ने मध्य प्रदेश के कई जिलों में ज्योतिरादित्य सिंधिया के खिलाफ बयान दिए। इसके बाद सिंधिया ने भी राहुल गांधी पर सियासी वार करने में कोई गुरेज नहीं किया। वर्तमान हालात सबके सामने हैं। ज्योतिरादित्य सिंधिया के सियासी हमले में सबसे पहले नंबर पर राहुल गांधी आ रहे हैं जबकि पूरी कांग्रेस मध्य प्रदेश में बीजेपी के खिलाफ बयान देने से ज्यादा ज्योतिरादित्य सिंधिया को टारगेट कर रही है। अब राजनीति में सिंधिया और गांधी की सियासी दुश्मनी की मिसाल दी जाने लगी है।