BHOPAL. आज राष्ट्रीय सुरक्षित मातृत्व दिवस है। ये कदम उन कई पहलों में से एक है जो भारत और मध्य प्रदेश सरकार ने मातृ और नवजात मृत्यु को कम करने के लिए की हैं। साल 2003 में शुरू किये गए इस दिवस का उद्देश्य था गर्भावस्था, प्रसव और प्रसव के बाद सेवाओं के दौरान महिलाओं के लिए स्वास्थ्य सुविधाएं बढ़ाना और उनकी देखभाल के बारे में जागरूकता बढ़ाना। मध्य प्रदेश में सुरक्षित मातृत्व दिवस और इस तरह की कई योजनाओं जैसे जननी-शिशु सुरक्षा कार्यक्रम, प्रधानमंत्री मातृत्व वंदना योजना, जननी सुरक्षा योजना का संचालन तो किया जाता है। लेकिन ये प्रदेश की माताओं और नवजातों का दुर्भाग्य ही है कि मेडिकल नेग्लिजेंस, भ्रष्ट एम्बुलेंस सर्विस और सरकारी डॉक्टर्स, ग्रामीण क्षेत्रों में सुरक्षित डिलीवरी के लिए गायनोकोलॉजिस्ट और एनेस्थीसिया देने वाले डॉक्टर की भारी कमी और दवाओं और चिकित्सा उपकरणों की अनुपलब्धता से राज्य के कई जिलों में गर्भवती माताएँ और नवजात बच्चे पैदा होते ही मौत के मुँह में समा रहे हैं। और शायद यही कारण है कि मध्य प्रदेश में मातृ स्वास्थ्य के लिए सबसे महत्वपूर्ण संकेतक यानी मातृ मृत्यु अनुपात (MMR-173) और शिशु मृत्यु दर (IMR-31) दोनों ही राष्ट्रीय औसत से ज्यादा बने हुए हैं। यानी साल में एक लाख सफल डिलीवरी होती है तो उसमें से 173 महिलाओं की डिलीवरी के दौरान या एक महीने के भीतर मृत्यु हो जाती है। जबकि देशभर का औसत है 97। यानी मातृ मृत्यु दर 57 फीसदी है। मप्र देशभर में दूसरे नंबर पर है। और शिशु मृत्यु दर है 31 यानी एक हजार बच्चों में से 31 बच्चों की मौत हो जाती है। और जो द सूत्र की ग्राउंड रिपोर्ट बताती है, उससे तो यही लगता है कि ये मातृत्व स्वास्थ्य से जुड़ा ये कलंक राज्य का पीछा जल्द नहीं छोड़ने वाला। MP में मातृत्व और बाल स्वास्थ्य की जमीनी हकीकत जानने के लिए पढ़िए रीवा, छत्तरपुर, झाबुआ, धार, रायसेन, सीहोर, सिंगरौली, भोपाल से ये विस्तृत रिपोर्ट
रीवा के लापरवाह जिला अस्पताल प्रशासन की वजह से नवजात की मौत
बिना मेडिकल सहायता के रास्ते में हुई गर्भवती की डिलीवरी, प्रीमैच्योर पैदा हुआ बच्चा
मध्य प्रदेश के रीवा जिले के कोल्हुआ गांव में 22 मार्च 2023 की रात को अचानक बिना किसी चेतावनी के रेखा देवी कोल को प्रसव का दर्द उठा। दिहाड़ी मजदूर पति रामजी कोल ने आशा कार्यकर्त्ता को खबर दी तो वहां से कुछ साफ़ जवाब नहीं मिला। जिसके चलते रामजी कोल ने अपनी औकात से बाहर जाकर एक गाड़ी किराए पर ली ताकि गर्भवती पत्नी को दभौरा के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र ले जाया जा सके। पर अस्पताल पहुंचने से पहले ही रास्ते में ही रेखा देवी कोल ने एक 7 महीने के प्रीमैच्योर बच्चे को जन्म दे दिया। इसके बाद 1 अप्रैल को शाम को बच्चे की तबियत खराब होने के कारण रात 10 बजे बच्चे को नजदीकी डभौरा में डॉक्टर को दिखाया गया। जहां पर डॉक्टर द्वारा जवाब दे दिया गया उसके बाद रामजी कोल ने निजी वाहन से बच्चे को संजय गांधी मेमोरियल अस्पताल रीवा में ले जाकर भर्ती करवाया गया। यहाँ पर बच्चे की गंभीर स्थिति को देखते हुए नवजात शिशु वार्ड में रखा गया। बच्चे को जिला अस्पताल में भर्ती तो कर लिया गया, लेकिन इसके बाद परिजनों की प्रताड़ना का जो सिलसिला शुरू हुआ। उससे पता चलता है कि मध्य प्रदेश में गरीबों के लिए उचित स्वास्थ्य व्यवस्था की उम्मीद करना कितना बेमानी है।
10 हजार का कर्ज लेकर आदिवासी पिता लाया बच्चे के लिए ब्लड और दवाइयां
संजय गांधी मेमोरियल अस्पताल के डाक्टर द्वारा नवजात के परिजनों को बताया गया कि बच्चे की स्थिति काफी गंभीर है और उसे ब्लड चढ़ाना पड़ेगा। परिजनों द्वारा जब अस्पताल में मौजूद ब्लड बैंक जाया गया तो वहाँ यह कहते हुए मना कर दिया गया कि ब्लड बैंक में ब्लड नहीं है, उसके बाद परिजनों द्वारा किसी दलाल के माध्यम से बाहर से ब्लड खरीद कर लाया गया और अस्पताल में नर्स को दिया गया। इसी तरह दूसरे दिन 2 अप्रैल को दोबारा नर्स ने एक बार फिर नवजात के परिजनों से ब्लड लाने को कहा। जिसके बाद परिजन गाँव से सेठ द्वारा 10 हज़ार रुपए कर्ज लेकर बाहर से ब्लड और दवाईयां लाए। यही नहीं बच्चे के एडमिट होने के बाद एक बार भी परिजनों की बच्चे से कोई मुलाकात नहीं करवाई गई। बाद जब बच्चे के लिए जब किसी दवाई की जरूरत पड़ती, तो परिजनों को बुलाकर दवाई की पर्ची पकड़ा दी जाती और बोला जाता है कि बाहर से दवाईयां जल्दी लाओ क्योंकि बच्चे की तबियत बेहद गंभीर है। अस्पताल प्रशासन के इस अमानवीय व्यवहार की शिकायत जब तत्कालीन रीवा कलेक्टर मनोज पुष्प को दी गई। तो अस्पताल प्रशासन कुछ हरकत में आया। लेकिन फिर भी बच्चे को बचाया नहीं जा सका, भर्ती करने के दूसरे दिन ही बच्चे ने दम तोड़ दिया।
बच्चे के शव को वापस पहुंचाने वाली एंबुलेंस ने लिए 3400 रुपए, नहीं बना जच्चा-बच्चा कार्ड और आयुष्मान कार्ड
लेकिन इसपर राज्य के स्वास्थ्यकर्मियों की बेशर्मी देखिये। यहां एक आदिवासी परिवार के नवजात की मौत हो गई और उसका शव ले जाने के लिए उसके पिता से पैसे मांगे गए। पीड़ित रामजी कोल ने द सूत्र को बताया, "यहां भर्ती करने के दूसरे दिन बच्चे की मौत हो गई। शव को ले जाने के लिए एंबुलेंस चालक ने 1,000 रुपये लेकर डीजल भरवाया, फिर घर पहुंचकर 2,400 रुपये और लिए।" कहा गया कि लाने-लेजाने का इतना खर्चा तो लगेगा ही!
नहीं बना जच्चा-बच्चा कार्ड और आयुष्मान कार्ड
यही नहीं बच्चे के पैदा होने के बाद भी अस्पताल ने बच्चे का जच्चा-बच्चा कार्ड तक नहीं बनवाया। परिवार के पास आयुष्मान कार्ड भी नहीं है। इस पूरे मामले में सिर्फ एक नवजात की मौत ही नहीं हुई। बल्कि एक गर्भवती महिला - जिसे अपनी गर्भावस्था और उसके बाद गुणवत्ता पूर्ण सेवाओं की आवश्यकता होती हैं - से सम्मान और सकारात्मक व्यवहार का अधिकार भी छीना गया। रेखा देवी कोल से अनुचित व्यवहार किया गया, गरीब होने के कारण भेदभाव हुआ| इस मामले में जब द सूत्र ने अस्पताल के अधिकारियों से बात करने की कोशिश की तो कोई जवाब नहीं दिया गया| सरकारी अस्पतालों में मौजूद एम्बुलेंस सर्विस द्वारा मरीज़ों से पैसे लेने का ये अकेला मामला नहीं है। ऐसी शिकायतें आए दिन आ रही हैं। इसी तरह का एक मामला छतरपुर जिले के सिमरिया गाँव से भी सुनने में आया। जहाँ नेहा लोधी के परिवारजनों से 108 एम्बुलेंस के स्टाफ ने उनसे 500 रुपये लिए गये|
सीहोर में डॉक्टर की लापरवाही से गई नवजात शिशु की जान
रीवा जिला अस्पताल में हुए इस मेडिकल लापरवाही से बच्चे के मौत और छत्तरपुर में एम्बुलेंस स्टाफ द्वारा मरीज़ों को परेशान करना - इन हालातों को देख कोई भी संवेदनशील इंसान दुखी हो जाएगा। लेकिन क्या हो अगर धरती के भगवान कहे जाने वाले डॉक्टर खुद ही भक्षक बन जाए, और थोड़े से पैसे के लालच में किसी की जान से खिलवाड़ करने लग जाए? ऐसा ही मानवता को शर्मसार करने वाला एक मामला सीहोर जिले के जिला चिकित्सालय से है, जहां एक सरकारी महिला डॉक्टर ने एक प्रसूता एवं उसके नवजात शिशु की जान के साथ खिलवाड़ इसलिए किया क्योंकि प्रसूता के परिजनों ने डिलीवरी के लिए डॉक्टर के निजी क्लीनिक पर ले जाने से मना कर दिया। जिससे नाराज महिला डॉक्टर ने प्रसूता के इलाज में लापरवाही बरती और नतीजा यह रहा कि नवजात शिशु पैदा होते ही मौत हो गई।
निजी क्लीनिक पर नहीं गए तो उपचार नहीं
दरसअल, शिकायतकर्ता आशा नागर की भाभी रितु नागर को 18 दिसंबर को जिला अस्पताल में प्रसव के लिए भर्ती कराया था। इस दौरान उन्हें काफी लेबर पेन हो रहा था। लेकिन जिला अस्पताल स्थित मेटरनिटी वार्ड में स्टॉफ और महिला चिकित्सकों द्वारा उपचार में लापरवाही बरती गई। सही समय पर उचित उपचार प्रसूता का नहीं किया गया। यहां पर पदस्थ महिला चिकित्सक निधि अग्रवाल द्वारा कहा गया कि मेरे प्राइवेट क्लीनिक पर आकर दिखाओ मैं तुम्हारा सुरक्षित प्रसव करा दूंगी। डॉ. निधि अग्रवाल ने अपने मोबाइल नंबर की पर्ची प्रसूता को दी और निजी क्लीनिक पर आने का दबाव डाला जब हम लोग निजी क्लीनिक पर नहीं गए तो सही से उपचार नहीं किया। प्रसूता को बार दर्द आने के बाद भी ऑपरेशन नहीं किया। 22 दिसंबर को प्रसूता का ऑपरेशन किया गया। जब तक काफी देर हो गई थी और डिलेवरी के कुछ समय बाद ही बच्चे की मौत हो गई। शिकायतकर्ता आशा नागर का आरोप है कि महिला चिकित्सक निधि अग्रवाल की लापरवाही के कारण नवजात शिशु की मौत हुई है। यदि पहले ही आपरेशन हो जाता तो यह घटना नहीं होती।
मामले की कलेक्टर से शिकायत
अपने साथ हुए इस हादसे से परिजन आक्रोशित हो गए और महिला डॉक्टर की शिकायत सीहोर कलेक्टर से कार्रवाई करने की मांग की। आशा नागर ने कलेक्टर से शिकायत की है। इस संबंध में जब अस्पताल के सिविल सर्जन से बात की गई तो उन्होंने जल्दी कार्रवाई करने की बात कही। हालंकि अभी तक किसी ठोस कार्यवाही का कोई ठिकाना नहीं है।
ग्रामीण क्षेत्रों में सुरक्षित डिलीवरी के लिए गायनोकोलॉजिस्ट और एनेस्थीसिया देने वाले डॉक्टर की भारी कमी
ये तो थी प्रदेश की मौजूदा स्वास्थ्य व्यवस्था। जो अमानवीयता के दीमक की वजह से लगभग खोखली हो चुकी है। जहाँ न तो गर्भावस्था, प्रसव और प्रसव के बाद महिलाओं के लिए किसी तरह की सुविधाएं हैं और न ही संवेदनशीलता। नवजात बच्चे समय के पहले सिर्फ इसलिए मौत के शिकार हो रहें हैं, क्योंकि उसने मध्य प्रदेश में जन्म लिया था। न किसी की जवाबदेही, न कोई मुआवजा। अब जानिये कि किस तरह मध्य प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों में सुरक्षित डिलीवरी के लिए गायनोकोलॉजिस्ट और एनेस्थीसिया देने वाले डॉक्टर की भारी कमी है, जिस वज़ह से कई जिलों में शिशु और मातृ मृत्यु दर राष्ट्रीय औसत से ज्यादा ही बनी हुई है।
धार जिला चिकित्सालय के बात करें। तो यहाँ होने वाली हाईरिस्क डिलेवरी एवं सिजेरियन डिलेवरी को लेकर जब द सूत्र ने पड़ताल की तो पता लगा कि जिला चिकित्सालय में गायनेकोलॉजिस्ट के पर्याप्त डॉक्टर हैं। लेकिन एनेस्थीसिया के 2 ही डॉक्टर हैं। इस वज़ह से उनके छुटी पर जाने से कई बार दिक्कतों का सामना करना पड़ता हैं। अस्पताल में होने वाली इस असुविधा की वज़ह से जरुरत पड़ने पर निजी चिकित्सक की सहायता लेनी पड़ती है। इस पूरी समस्या को लेकर शासन को पत्र लिखा गया हैं। प्रशासन ने आश्वासन दिया है कि जल्द ही कमी को दूर किया जाएगा।
बरेली सिविल अस्पताल में हाई रिक्स डिलीवरी के लिए नहीं है व्यवस्थाएं
रायसेन जिले की उदयपुरा विधानसभा की बरेली सिविल अस्पताल में अस्पताल बिल्डिंग तो अच्छी है, लेकिन सुविधाओं के नाम पर कुछ नही मिल रहा है। यहाँ हाई रिस्क डिलीवरी के डॉक्टर नहीं हैं। सिविल अस्पताल में विशेषज्ञों की इस कमी से काफी समस्याएँ हैं। डाक्टर नही होने से गर्भवती महिलाओं को रायसेन रेफर किया जाता है। जब बरेली सिविल अस्पताल में CBMO हेमंत यादव से हाई रिस्क डिलीवरी को लेकर की गई। तो उनका कहना है कि हमारे बरेली सिविल अस्पताल में एक ही डॉक्टर थे। जिनको स्वास्थ्य विभाग के द्वारा भोपाल हमीदिया में पहुंचा दिया गया है। जिससे कि बरेली से गर्भवती महिलाओं को रायसेन रेफर करना पड़ता है। वही ओपीडी में डॉक्टर नहीं बैठने से गांव से आए हुए मरीज परेशान होते हैं और परेशान होकर झोलाछाप डॉक्टर एवं निजी अस्पतालों में उपचार करवाते हैं। गायनोकोलॉजिस्ट और एनेस्थीसिया देने वाले डॉक्टरों की ये कमी सिर्फ धार और राजन जिले में ही नहीं है...बल्कि प्रदेश स्तर पर देखें तो CHC लेवल पर 332 स्त्री रोग विशेषज्ञ की जरुरत है, पर सिर्फ 39 स्त्री रोग विशेषज्ञ हैं। यानी 293 (88%) ज्ञानेकोलॉजिस्ट अभी भी कम हैं। इसी तरह एनिस्थीसिया स्पेशलिस्ट्स के 88% पद खाली पड़े हैं।
- जबलपुर जिले में गायनोक्लोजिस्ट के 19 पद स्वीकृत हैं। जिनमें से 8 पद पर गायनोक्लोजिस्ट कार्यरत हैं, यानि 11 पद खाली हैं। ये सब तब है जब वर्ष 2011-12 की एन्यूअल हेल्थ सर्वे की रिर्पोट के अनुसार जबलपुर संभाग में मातृ मृत्यु दर प्रति एक लाख माताओं में 246 है।
हालाँकि इस सब कमियों और डॉक्टरी असंवेदनशीलता के चलते नवजात बच्चों की मौतों और माताओं के स्वास्थ्य में कमी के बारे में जब द सूत्र ने खुद स्वास्थ्य मंत्री प्रभुराम चौधरी से बात की तो उन्होंने समस्याओं से ज्यादा सरकारी सुविधाओं के गुणगान शुरू कर दिए। हालाँकि उन्होंने कहा कि जहाँ कमिया हैं, वहां संज्ञान लेकर कार्यवाही की जा रही है। गौरतलब है कि SDG (सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स) के तहत भारत ने 2030 तक मातृ मृत्यु अनुपात को 70 पर लाने का लक्ष्य रखा है। पर प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल में महिलाओं, और बच्चों की अनदेखी,प्रसव पूर्व, जन्म के समय और प्रसवोत्तर सुविधाओं में कमी और पोषण आहार का घटिया स्तर इस बात को दूर-डोर तक सुनिश्चित करता नहीं दिखता। प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल के लिए की जा रही कम फंडिंग, प्रशिक्षित स्वास्थ्य देखभाल कर्मियों की कमी, और चिकित्सा उत्पादों के लिए कमजोर आपूर्ति श्रृंखलाएं और स्वास्थ्य प्रशासन की कई मौकों पर असंवेदनशीलता इस लक्ष्य को खतरे में डाल रही हैं।
(इनपुट्स : रीवा से अर्पित पांडे/ छतरपुर से टी गोस्वामी)