शिव ''राज'' में अफरा-तफरी का माहौल, एंटी-इन्कम्बेंसी भुनाकर क्या कांग्रेस 1967 जैसा चमत्कार कर पाएगी?

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Atul Tiwari
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शिव ''राज'' में अफरा-तफरी का माहौल, एंटी-इन्कम्बेंसी भुनाकर क्या कांग्रेस 1967 जैसा चमत्कार कर पाएगी?

BHOPAL. नवंबर-दिसंबर 2018 में हुए मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजे दो कारणों से खास रहे थे। पहला यह कि छप्पन साल के बाद ऐसा हुआ, जब किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं  मिला यानी सरकार बनाने का स्पष्ट जनादेश ना कांग्रेस को मिला और ना बीजेपी को, पर सबसे ज्यादा सीटें जीतने वाली कांग्रेस ने सपा और बसपा के इक्का-दुक्का विधायकों में बल पर कमलनाथ के नेतृत्व सरकार बना ली थी। 1962 में भले किसी को बहुमत नहीं मिला, पर कांग्रेस को सीटें भरपूर मिली थीं। तब जनसंघ भले दूसरे नंबर की पार्टी थी, पर उसके सदस्यों की संख्या दो अंकों में थी, समाजवादी और प्रजा समाजवादी दल का भी वजूद था। बहरहाल कांग्रेस ने निर्दलीय विधायकों के बल पर सरकार बना ली थी। पिछले चुनाव में प्रदेश के इतिहास में पहली बार दूसरे नंबर की पार्टी यानी सत्तारूढ़ बीजेपी 100 से ज्यादा सीटें जीतने में कामयाब रही, 15 साल की सत्ता विरोधी लहर के बावजूद..! तब जब कांग्रेस की कमान दिग्विजय सिंह और कमलनाथ जैसे अनुभवी नेताओं के हाथ में थी और सिंधिया साथ में थे।

 

इसके बरअक्स दिग्विजय सिंह को बंटाढार का खिताब देकर उनके 10 साल राज की एंटीइन्कम्बेंसी को बीजेपी के अनिल दवे जैसे युवाओं की टीम ने खूब भुनाया और कांग्रेस को दो अंकों में समेट दिया था। इधर केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया ने अपनी आजी यानी दादी विजयाराजे सिंधिया द्वारा 1967 में प्रदेश की पंडित द्वारका प्रसाद  मिश्र के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार को गिराने की कमलनाथ को गिराए जाने से तुलना कर घोषणा की है कि मैं उन्हीं का वंशज हूं। पर दोनो सरकारों के पतन में सिंधियाओं की भूमिका में जमीन आसमान का अंतर है। पंडित द्वारका प्रसाद मिश्र की सरकार ने 1967 के विधानसभा चुनाव में पूर्ण बहुमत हासिल किया था, पर विजयाराजे ने दलबदल और धनबल से जनता द्वारा चुनी सरकार गिरा दल-बदलू गोविंद नारायण सिंह को मुख्यमंत्री और कइयों को मंत्री बनवा दिया था। इस बार की तरह तब दलबदल करने वाले विधायकों ने सदस्यता से इस्तीफा देकर दोबारा चुनाव नहीं लड़ा था।



दरअसल, मिश्र जी में 1967 में टिकट वितरण में ग्वालियर इलाके में विजयाराजे समर्थकों को टिकट देने से इनकार कर दिया। तब वो कांग्रेस से अलग हो गईं। उनके विद्रोह के बावजूद पंडित मिश्र ने कांग्रेस को बहुमत दिलाकर पार्टी के बड़े नेताओं और राजनैतिक समीक्षकों चकित कर दिया था। 



विजयाराजे के दलबदल के खेल के बाद ही अन्य प्रदेशों में भी दलबदल का काला अध्याय शुरू हुआ, जिसे आयाराम-गयाराम से भी जाना जाता है। बाद में गोविंद नारायण सिंह फिर पाला बदल कांग्रेस में लौट गए। तब विजयराजे ने सारंगगढ़ के नरेशचंद्र सिंह का कांग्रेस से दलबदल करा मुख्यमंत्री बनाया, पर सरकार हफ्तेभर भी नहीं चली। इसके बाद पंडित मिश्र को मुख्यमंत्री बनना था, जो नेता प्रतिपक्ष थे पर शपथ के एक दिन पहले हाईकोर्ट द्वारा मिश्र जी का चुनाव अवैध घोषित करने से श्यामाचरण शुक्ल की लाटरी खुल गई। तब हाईकोर्ट के फैसले की टाइमिंग पर सवाल उठे थे।

 

जब 1962 में प्रदेश में कांग्रेस को बहुमत नहीं मिला और मुख्यमंत्री काटजू तक चुनाव हार गए। तब पार्टी का माथा ठनका और इसके जिम्मेदार तख्तमल-देशलहरा गुट को सबक सिखाने पंडित द्वारका प्रसाद मिश्र की कांग्रेस में वापसी कराई गई और कामराज योजना के तहत मंडलोई के इस्तीफे के बाद तख्तमल जैन को पराजित कर वो मुख्यमंत्री बने। सख्त मिजाज के पंडित मिश्र ने अभूतपूर्व प्रशासनिक दक्षता से सरकार चलाई और लौह पुरुष कहलाए। उन्होंने 1967 के आम चुनाव में मध्य भारत के टिकट वितरण मे विजयाराजे की नहीं चलने दी। तब वो कांग्रेस से अलग हो गईं। उनके विद्रोह के बावजूद पंडित मिश्र ने कांग्रेस को बहुमत दिलाकर पार्टी के बड़े नेताओं और राजनैतिक समीक्षकों चकित कर दिया था।

 

शिवराज राज में खुदकुशी की बढ़ती घटनाएं, बच्चों में बढ़ता कुपोषण, सरकारी अस्पतालों की दुर्दशा,गांव में पानी के लिए आपाधापी, सड़कों पर मरते लोग और सरकारी तंत्र में बढ़ता भ्रष्टाचार हालत की निराशाजनक तस्वीर ही पेश कर रहे हैं। शिवराज के ओबीसी आरक्षण एजेंडे के चलते नई भर्तियां ना होने और पदोन्नतियों पर रोक से सरकारी तंत्र में अफरा-तफरी का माहौल है। ऐसे में नौ महीने बाद होने वाले विधानसभा चुनाव में क्या कांग्रेस एंटी-इन्कम्बेंसी को भुनाकर 1967 जैसा चमत्कार कर पाएगी? क्या शिवराज के लिए भी बंटाढार जैसा खिताब तलाशा जाएगा...! 



प्रदेश कांग्रेस की लीडरशिप से बहुत उम्मीद नहीं जगती। कंप्यूटर बाबा भारत जोड़ो यात्रा में दिखाई देते हैं तो कमलनाथ बागेश्वर धाम में हाजिरी बजाते नजर आते हैं। पिछले चुनाव के बाद सरकार बनने पर बिना प्रशासनिक अनुभव के जयवर्धन सिंह, सचिन यादव और कमलेश्वर पटेल को सीधे केबिनेट मंत्री बना दिया गया था। तीनों की एकमात्र काबिलियत दिग्विजय सिंह, सुभाष यादव और इंद्रजीत पटेल का पुत्र होना थी। ऐसे में मुझे 1967 की याद आ रही है, जब बालकवि बैरागी ने जनसंघ के दिग्गज सुंदरलाल पटवा को मनासा (मंदसौर) से हराकर खलबली मचा दी थी। तब पंडित मिश्र ने विधायक दल की बैठक में उन्हें बधाई दी, पर उन्हें संसदीय सचिव ही बनाया था।


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