JHABUA. मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव से ठीक एक साल पहले द सूत्र एक मुहिम चला रहा है। मूड ऑफ एमपी-सीजी (mood of mp cg) के तहत हमने जाना कि विधानसभा में मौजूदा हालात क्या हैं, जनता क्या सोचती है। अगले विधानसभा चुनाव में क्षेत्र का गणित क्या रहेगा। इसी कड़ी में हमारी टीम झाबुआ विधानसभा सीट पर पहुंची...
झाबुआ के इतिहास को जानिए
झाबुआ रियासत ब्रिटिश राज के दौरान भोपलवार एजेंसी के अधीन मध्य भारत में एक प्रमुख रियासत थी। अपनी आदिवासी सांस्कृतिक विरासत के लिए देश-विदेश में प्रमुख उत्सव भगोरिया देखने यहां पर्यटकों का मेला लगता है। इस उत्सव में ना केवल आदिवासी संस्कृति की झलक, बल्कि राजनीतिक रूप से खुद को मजबूत साबित करने की नेताओं का कोशिश भी आसानी से दिखती है। पार्टी चाहे कोई भी हो, उसके छोटे से लेकर बड़े नेता झाबुआ के भगोरिया मेले में मांदल की थाप पर थिरकते नजर आ जाते हैं।
झाबुआ का राजनीतिक मिजाज
झाबुआ विधानसभा सीट अनुसूचित जनजाति (एसटी) वर्ग के लिए आरक्षित है। मप्र के बड़े आदिवासी नेताओं में शुमार कांग्रेस के कांतिलाल भूरिया इस विधानसभा सीट से विधायक हैं। परंपरागत रूप से देखा जाए तो झाबुआ सीट पर कांग्रेस का एकतरफा राज रहा है, लेकिन 2003 से यहां से बीजेपी ने अपनी पकड़ मजबूत की और 2003, 2013 और 2018 में बीजेपी का परचम लहराया। 2023 में जयस यहां एक निर्णायक भूमिका में रहेगी। मुकाबला त्रिकोणीय कांग्रेस-बीजेपी और जयस के बीच रहेगा।
झाबुआ राजनीतिक समीकरण
झाबुआ का फैसला यहां के 2 लाख 77 हजार मतदाता करते हैं, जिसमें 1 लाख 39 हजार पुरुष मतदाता और 1 लाख 38 हजार महिला मतदाता हैं। हाल ही में पेसा एक्ट लागू कर, जनजाति गौरव यात्रा और टंट्या मामा के नाम पर चौराहों और मूर्ति लगाकर बीजेपी ने जहां आदिवासी वर्ग में पैठ बढ़ाने की कोशिश की तो वहीं कांग्रेस के सुप्रीम लीडर राहुल गांधी भी भारत जोड़ो यात्रा में आदिवासी वर्ग को साधते नजर आए थे। आदिवासी नेतृत्व की मांग लेकर जन्मी जयस भी इलाके में बड़ा दखल रखती है। जयस यहां कांग्रेस और बीजेपी दोनों का खेल बिगाड़ने वाले के रूप में देखी जा रही है। हालिया समीकरण देखकर लगता है कि 2023 में होने वाले चुनाव में आदिवासी सीटों पर कांटे के मुकाबले देखने को मिलेंगे।
झाबुआ में जातियों का खेल
इस विधानसभा सीट पर हार-जीत का समीकरण जातिगत आधार से ही बनते और बिगड़ते हैं। झाबुआ की 85 फीसदी आबादी आदिवासी है, लेकिन आदिवासी वोटर्स में भी अलग-अलग वर्ग हैं और उनकी भी उपजातियां हैं। 85 फीसदी आदिवासी मतदाताओं में भील, पटलिया और भिलाला मतदाता हैं। भील मतदाताओं के मुकाबले पटलिया और भिलाला समाज की संख्या कम है। भील और भिलाला कांग्रेस का मजबूत वोट बैंक है, लेकिन पिछले कुछ सालों में बीजेपी ने इसमें सेंधमारी की है। दूसरी ओर पटलिया समाज का झुकाव बीजेपी की तरफ ज्यादा रहता है।
झाबुआ के मुद्दे
इस आदिवासी इलाके में जहां मूलभूत सुविधाओं का अभाव है तो इलाका प्राथमिक विकास से भी अछूता है। इस इलाके में बेरोजगारी, पलायन, उद्योग की कमी, भ्रष्टाचार भी बड़े मुद्दे हैं। यहां आदिवासियों के लिए जमीन का पट्टा ना मिलना और पेसा एक्ट के बारे में पर्याप्त जानकारी का ना होना भी समस्या है। इस इलाके में उद्योगों की भारी कमी है। यहां रोजगार की तलाश में करीब 65 से 70 फीसदी मजदूर गुजरात और अन्य राज्यों में जाने के लिए मजबूर हैं। वहीं, इलाके में स्वास्थ्य सेवाओं की लचर हालत भी मरीजों को गुजरात जाने पर मजबूर करती है।
द सूत्र की चौपाल में उठे सवाल
जब इन सभी मुद्दों पर हमने कांग्रेस-बीजेपी के नेताओं से सवाल-जवाब किए तो दोनों ही दल एक-दूसरे पर आरोप लगाते नजर आए। इसके अलावा द सूत्र ने इलाके प्रबुद्धजनों, वरिष्ठ पत्रकारों और इलाके की आम जनता से बात की उसमें कुछ और सवाल निकल कर आए...
- 1. इलाके में कोई उद्योग क्यों नहीं आ सके ?
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