अर्जुन सिंह ने गांधी से मिलने के बाद टाई छोड़ी थी, चुरहट में नेहरू की एक घोषणा से राजनीति में आए और पहला चुनाव निर्दलीय लड़ा

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Atul Tiwari
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अर्जुन सिंह ने गांधी से मिलने के बाद टाई छोड़ी थी, चुरहट में नेहरू की एक घोषणा से राजनीति में आए और पहला चुनाव निर्दलीय लड़ा

BHOPAL. मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे अर्जुन सिंह का आज जन्मदिन है। उनका जन्म एक राजपूत घराने में 5 नवंबर 1930 को मध्य प्रदेश के सीधी जिले के चुरहट में हुआ था। तीन बार मध्य प्रदेश का मुख्यमंत्री, पांच बार केंद्रीय मंत्री और राज्यपाल रहने के बाद 4 मार्च 2011 को 81 की उम्र में वे इस दुनिया से विदा हो गए थे। अर्जुन सिंह को कांग्रेस का चाणक्य भी कहा जाता था। वे राजनीति के माहिर खिलाड़ी थे। चुरहट में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के एक ऐलान के बाद वे राजनीति में कूदे। जानिए, अर्जुन सिंह की कहानियां



अर्जुन सिंह ने खाई थी एक कसम



साल 1952। देश में एक हिस्से में विधानसभा के चुनाव थे। प्रचार के लिए खुद तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवारलाल नेहरू पहुंचे थे। जिस उम्मीदवार के लिए नेहरू वोट मांगने पहुंचे उसी के खिलाफ बोले। भाषण के अंत में कहा। ये उम्मीदवार कांग्रेस का नहीं है। मंच के नीचे एक लड़का खड़ा था। ये वही लड़का है जो महात्मा गांधी से मिलने के बाद टाई पहना छोड़ देता है। 7 साल की उम्र में ये लड़का प्रयागराज (इलाहाबाद) पहुंचता है। महात्मा गांधी से मिलने के लिए टाई पहनकर जाता है और महात्मा गांधी उसकी टाई पकड़ लेते हैं। उसे बाद जीवन में कभी टाई नहीं पहनता। ये वही लड़का है जो अपनी जिद के कारण एक दिन के लिए मुख्यमंत्री बनता है और फिर राजीव गांघी के कहने पर इस्तीफा दे देता है। पांच बार केंद्र में कैबिनेट मंत्री बनता है। राज्यपाल भी बनता है। चंबल का कुख्यात डकैत पान सिंह तोमर जिसे खुली चेतावनी देता है और फूलन देवी को सामने देखकर सहम जाता है। फिर भी चंबल की तासीर में बड़ा बदलाव कर देता है। ये किस्सा है मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह का। 



1952 में तत्कालीन विंध्य प्रदेश के चुरहट विधानसभा में नेहरू चुनाव प्रचार के लिए पहुंचे थे। कांग्रेस ने अर्जुन सिंह के पिता राव शिवबहादुर सिंह को कांग्रेस का प्रत्याशी घोषित किया गया। रीवा से चुरहट की दूरी 53 किलो मीटर है। ये दूरी 53 किलो मीटर की नहीं बल्लि देश में एक राजनेता के उदय की तैयारी का रास्ता था। नेहरू रीवा से चुरहट पहुंचते हैं। जवाहर लाल नेहरू ने मंच से घोषणा करते हैं कि चुरहट से मेरे पार्टी का कोई प्रत्याशी नहीं है। उसके बाद राव शिव बहादुर सिंह निर्दलीय चुनाव लड़ते हैं और हार जाते हैं। ये घटना अर्जुन सिंह को झझकोर कर रख देती है। इसके बाद सियासत में होती है अर्जुन सिंह की एंट्री। सवाल ये हैं कि आखिर नेहरू ने ऐसा कहा क्यों?  रीवा से 53 किलोमीटर है चुरहट। रीवा रिसायत के महाराज मार्तंड सिंह के की सरकार में शिवबहादुर सिंह मंत्री बनते हैं। पन्ना में हीरा खदानों की लीज का नवीनीकरण होना था। आरोप लगे कि इसी में शिवबहादुर सिंह ने भ्रष्टाचार किया और 25 हज़ार की रिश्वत ली। इसी कारण नेहरू ने कहा था कांग्रेस का कोई उम्मीदवार चुरहट से नहीं है क्योंकि राव शिव बहादुर पर मुकदमा चल रहा था। 1952 शिव बहादुर सिंह चुनाव हारे और 1954 मुकदमा हारे। तीन साल की जेल हुई। जिसके बाद अर्जुन सिंह ने एक कसम खाई कि पिता की बेइज्जती का बदला लेने के लिए राजनीति में उतरेंगे।



अर्जुन सिंह ने पहला चुनाव निर्दलीय लड़ा, नेहरू के बुलावे पर कांग्रेस में गए



1957, क्षेत्र में अर्जुन की लोकप्रियता के कारण कांग्रेस में शामिल होने का ऑफर मिलता है। कांग्रेस टिकट देने को भी तैयार थी, पर उनका जवाब था- जीतने के बाद पार्टी जॉइन कर लूंगा। निर्दलीय मैदान में उतरते हैं, भारी मतों से मझौली से चुनाव जीतते हैं। अर्जुन सिंह के सामने कांग्रेस उम्मीदवार की जमानत जब्त हो जाती है। पिता के निर्दलीय चुनाव हारने और कांग्रेस में पिता की बेइज्जती पर अर्जुन ने कसम खाई थी कि मैं परिवार का कलंक धोकर रहूंगा। पिता की हार का कलंक निर्दलीय जीत से धोया। अब बारी थी कांग्रेस में शामिल होने की। विंध्य की सियासत में अर्जुन सिंह का कद बढ़ रहा था। बात दिल्ली में नेहरू तक पहुंच चुकी थी। नेहरू ने मिलने की इच्छा जताई। अर्जुन को संदेश भेजा गया कि प्रधानमंत्री मिलना चाहते हैं। जिस अर्जुन सिंह के पिता को नेहरू ने भरी सभा में बेइज्जत कर दिया था अब उसी पिता के बेटे को नेहरू ने आनंद भवन बुलाया था। अर्जुन नेहरू से मिलते हैं। कांग्रेस में शामिल होते हैं और अपनी कसम पूरी करते हैं। ये बात 1960 की है। कांग्रेस के टिकट से 1962 का चुनाव लड़ते हैं. जीतते हैं। 1963 में राज्यमंत्री बनते हैं।



गुरु से चुनाव हार गए थे अर्जुन 



अर्जुन सिंह 1967 में चुरहट विधान सभा का चुनाव हार जाते हैं। चंद्र प्रताप तिवारी ने अर्जुन सिंह को चुनाव हराया था। यह नाम अर्जुन सिंह के परिवार की सियासत में ये नाम आज भी मुश्किलें खड़ी कर रहा है। कहते हैं अर्जुन सिंह के हार के कारण थे उनके राजनीतिक गुरु द्वारका प्रसाद मिश्र यानी की डीपी मिश्रा। डीपी मिश्रा को लगता था कि अर्जुन सिंह विजयाराजे सिंधिया खेमे के हैं। इसलिए चुनाव से पहले ऐसा कलेक्टर चुरहट भेजा जाता है जो अर्जुन के लिए सियासी मुश्किलें खड़ी कर दे और अर्जुन सिंह को हार का सामना करना पड़ता है। अर्जुन बड़े कद वाले नेता बन चुके थे। उनके राजनीतिक कद को देखते हुए तत्कालीन उमरिया विधायक रणविजय प्रताप सिंह ने इस्तीफा देकर अपनी सीट से चुनाव लड़ने का ऑफर दिया था। अर्जुन सिंह चुनाव लड़े और जीत भी गए थे। 1967 में चंद्र प्रताप तिवारी ने अर्जुन सिंह को चुनाव हराया था तो 2018 में चंद्रप्रताप तिवारी के पोते शरेन्द्रु तिवारी ने अर्जुन सिंह के बेटे अजय सिंह राहुल भैया को चुनाव हराया।



प्रधानमंत्री के खिलाफ लिखी थी चिट्ठी, कांग्रेस से निकले और फिर कांग्रेस में गए



राजीव गांधी की हत्या के बाद पीवी नरसिंहराव प्रधानमंत्री बने। उनके और अर्जुन सिंह के बीच कभी नहीं बनी। बाबरी मस्जिद ढहाने के बाद अर्जुन सिंह ने प्रधानमंत्री के खिलाफ मुखर रूप अख्तियार कर लिया था। कई सवाल भी उठाए और सीधे प्रधानमंत्री को चिट्ठी भी लिखी। 1994 में उन्होंने मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया तो कुछ ही समय के भीतर उन्हें पार्टी से निलंबित कर दिया गया। उन्होंने एनडी तिवारी की अध्यक्षता में तिवारी कांग्रेस का गठन किया। अर्जुन सिंह खुद 1996 में लोकसभा का चुनाव मध्य प्रदेश में सतना से लड़े और हार गए। इसके बाद अर्जुन सिंह कांग्रेस में वापस लौट आए और 1998 का लोकसभा चुनाव उन्होंने होशंगाबाद संसदीय क्षेत्र से लड़ा, लेकिन इस बार भी वह हार गए। 2000 में अर्जुन सिंह राज्यसभा के लिए मध्य प्रदेश से चुने गए और मनमोहन सरकार में मानव संसाधन मंत्री बने।



एक दिन के लिए जिद में बने सीएम



अर्जुन सिंह पहली बार 1980 में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। अगला चुनाव भी उनके नेतृत्व में लड़ा गया। कांग्रेस की जीत हुई। पर इस बार कांग्रेस में गुटबाजी चरम पर थी। मुख्यमंत्री के लिए कई नेताओं ने अपना-अपना दावा पेश किया। कांग्रेस अलाकमान भी अर्जुन सिंह के खिलाफ हो गया था पर अर्जुन सिंह पीछे नहीं हटे। विरोधियों को मात देने के लिए अर्जुन सिंह सीएम की रेस के दावेदारों में बने रहे और 11 मार्च 1985 फिर से मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली। लेकिन एक दिन 12 मार्च को उन्हें पंजाब का गवर्नर बनाया गया। पंजाब का गवर्नर उन्हें तब बनाया गया जब सिख दंगों के कारण पंजाब जल रहा था। राजीव गांधी ने पंजाब को संभालने की जिम्मेदारी अर्जुन सिंह को सौंपी। एक दिन बाद अर्जुन सिंह ने पद से इस्तीफा दे दिया। कहा जाता है कि राजीव पहले ही उन्हें राज्यपाल बनाने का फैसला ले चुके थे, लेकिन अर्जुन सिंह अपनी जिद के कारण एक दिन के लिए सीएम बनना चाहते थे और बने भी।



संजय गांधी से थे बेहद करीब



अर्जुन सिंह का गांधी परिवार से गहरा लगाव था। संजय गांधी और अर्जुन सिंह के परिवार के सदस्यों के काफी मधुर संबंध थे। कहते हैं कि अक्सर संजय गांधी का प्लेन चुरहट में उतरता था और संजय कई बार अपनी रात अर्जुन सिंह के यहां बिताते थे। संजय गांधी, अर्जुन के प्रचार के लिए चुरहट तक गए थे। इंदिरा गांधी दतिया स्थिति पीतांबरा शक्ति पीठ पहुंची थी, तब रुकने के लिए उन्होंने अर्जुन सिंह का ही घर चुना था। संजय और अर्जुन की नजदीकियों के कारण ही वो मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। 1980 में कांग्रेस की जीत के बाद विधायक दल का नेता चुनने के लिए बड़े-बड़े नाम सामने आये। केपी सिंह, विद्याचरण शुक्ला, प्रकाशचंद सेठी, शिवभानु सिंह सोलंकी और अर्जुन सिंह। पर्यवेक्षक के तौर पर प्रणव मुखर्जी भोपाल आए। मतपेटी में वोट डाले गए। मतपेटी को दिल्ली मंगवा लिया गया। कहा गया कि मतपेटी हाई कमान के सामने खुलेगी। जिस कमरे में मत पेटी खुलनी थी, वहां अचनाक संजय गांधी पहुंचते हैं। मत पेटी खोले बिना ही संजय गांधी अर्जुन सिंह को विधायक दल का नेता घोषित कर देते हैं और वो मुख्यमंत्री बन गए।

 

दादा और दाऊ में दुश्मनी



अर्जुन सिंह को मध्यप्रदेश की सियासत में दाऊ के नाम से जाना जाता था। लेकिन दाऊ के साथ विंध्य की सियासत में एक दादा भी था। दादा और दाऊ की दुश्मनी टीआरएस कॉलेज से थी। टीआरएस कॉलेज का मतलब ही था विंध्य की सियासत का सबसे बड़ा अखाड़ा। टीआरएस कॉलेज का ये दादा था श्रीनिवास तिवारी। वहीं, श्रीनिवास तिवारी जिसे विंध्य का सफेद शेर कहा जाता था। अब सफेद शेर का जिक्र किया है तो ये भी जान लीजिए रीवा के राजा मार्तड़ सिंह पहली बार मोहन नाम के सफेद शेर को रीवा लाए थे उसके बाद से इस धरती को सफेद शेरों की धरती कहा जाने लगा। लेकिन सियासत के सफेद शेर बने दादा श्रीनिवास तिवारी। अर्जुन सिंह के एक दिन के सीएम बनने और हटने के पीछे का सियासी खेल दादा ने ही खेला था। रीवा में ठाकुर और ब्राह्मण केबीच राजनीतक लड़ाई रही है। जब 1985 के टिकट बंटे जा रहे थे अर्जुन सिंह ने फाइनल लिस्ट से दादा का नाम टिकट दावेदारों में से कटवा दिया था। दादा के समर्थन में नारे लगे दादा कांग्रेस छोड़ दो। तब श्रीनिवास तिवारी ने कहा था कांग्रेस मतलब सिर्फ अर्जुन थोड़े हैं। 12 मार्च 1985 को राजीव गांधी ने ने जब अर्जुन सिंह को राज्यपाल बनाया तो इसके पीछे श्रीनिवास तिवारी का खेल था। समर्थक आज भी इसे दादा का काम मानते हैं। वहीं अर्जुन सिंह के समर्थक कहते हैं, उनका राज्यपाल बनना पहले से तय था, मुख्यमंत्री तो वो अपना रुतबा दिखाने के लिए बने थे।



डकेतों ने किया था आत्मसमर्पण



अर्जुन सिंह को इसलिए भी याद किया जाता है। अर्जुन सिंह के दौर में चंबल के बड़े डकैतों ने सरेंडर कर दिया था। मलखान सिंह, फूलन देवी और घनश्याम सिंह जैसे डकैतों के समर्पण के लिए अर्जुन सिंह ने एक नीति बनाई थी। अर्जुन सिंह की राजनीतिक और प्रशासनिक कुशलता की वजह से उस दौर में चंबल के तमाम बड़े डकैतों ने उनके सामने सरेंडर किया था। कहा जाता है कि पान सिंह तोमर ने अर्जुन सिंह को खुली चेतावनी दी थी जिसके बाद पान सिंह तोमर के एनकाउंटर किया गया था। अर्जुन सिंह ने अपनी आत्मकथा ए ग्रेन ऑफ सेंड इन ऑवरग्लास ऑफ़ टाइम में लिखा है। खूंखार डकैत फूलनदेवी को जब मैंने पहली बार देखा, तब चौंक गया था। क्योंकि, मेरे सामने एक पांच फीट की लंबी लड़की। ऑटोमेटिक राइफल लिए मंच पर चढ़ रही थी। उसने मेरे पैर छूए और हथियार मेरे पैरों में हथियार डालकर हाथ जोड़ा। मेरी सहानुभूति उसके साथ थी। उन्होंने फूलन देवी के लिए लिखा था। जो लोग तलवार के दम पर जीते हैं। उनका नाश भी तलवार से ही होता है और फूलन का अंत भी कुछ ऐसा ही हुआ। 2001 में शेर सिंह राणा नामक शख्स ने फूलन की दिल्ली के अशोका रोड स्थित उनके आवास पर गोली मारकर हत्या कर दी थी।


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