सब एडिटर ऑफिस ना पहुंचे तो उसका काम खुद ही करने लगते थे, केंद्र में कौन मंत्री होगा, इस पर उनकी राय मायने रखती थी

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Ajay Bokil
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सब एडिटर ऑफिस ना पहुंचे तो उसका काम खुद ही करने लगते थे, केंद्र में कौन मंत्री होगा, इस पर उनकी राय मायने रखती थी

BHOPAL. अभय छजलानी मध्य प्रदेश के पत्रकारिता जगत की उन बहुचर्चित बिरली ‍हस्तियों में थे, जिन्होंने अपने कृतित्व और व्यक्तित्व से चार दशकों तक ना केवल पत्रकारिता बल्कि प्रदेश और खासकर इंदौर के राजनीतिक, सामाजिक, खेल जगत को गहरे तक प्रभावित किया। अच्छी लेखनी के धनी होने के साथ-साथ अभय जी अच्छे वक्ता और कुशल संगठक भी थे। ‘नईदुनिया’ जैसा हिंदी का एक क्षेत्रीय अखबार अगर बीती सदी में हिंदी पत्रकारिता के राष्ट्रीय क्षितिज पर अपनी अलग चमक बिखेर सका और अपने आप में एक मानक बन सका तो उसमें अभयजी की दृष्टि, सोच और कल्पनाशीलता की भी अहम हिस्सेदारी थी। इसकी नींव राहुल बारपुते और राजेन्द्र माथुर जैसे मूर्धन्य पत्रकारों ने रखी और जिसे अभयजी जैसे पत्रकार मालिक ने भरपूर सींचा। सौभाग्य से मैं उन लोगों में से हूं, जिन्हें अभयजी का खूब स्नेह और आशीर्वाद मिला।



 



अभयजी (प्यार से उन्हें ‘अब्बूजी’ कहा जाता था) से मेरी पहली भेंट नईदुनिया (इंदौर) के लिए भर्ती किए जाने वाले प्रशिक्षु पत्रकारों के लिए किए जा रहे साक्षात्कार के समय हुई। इस साक्षात्कार में मैं चुनिंदा युवाओं में से एक था, ‍जो इसके पहले ली गई कठिन लिखित परीक्षा में उत्तीर्ण हुआ था। नईदुनिया के इंदौर स्थित मुख्‍यालय के एक कक्ष में हमें एक-एककर बुलाया जा रहा था। इंटरव्यू बोर्ड में तीन दिग्गज बैठे थे। बीच में अभय छजलानी तो अखबार के प्रधान संपादक और मालिक थे, दोनो तरफ हिंदी पत्रकारिता के एक और नक्षत्र राहुल बारपुते ( जिन्हें हम बाबा कहते थे) और विद्वान पत्रकार डॉ. रनवीर सक्सेना बैठे थे ( डॉ. सक्सेना मूलत: अर्थशास्त्री थे, लेकिन अर्थशास्त्र समेत कई विषयों पर उनकी गहरी पकड़ थी। श्रद्धेय राजेन्द्र माथुरजी के ‘नवभारत टाइम्स’ जाने के बाद वो ही नईदुनिया में रोज संपादकीय लिखते थे)। करीब 15 मिनट के इंटरव्यू में यूं तो कई सवाल पूछे गए, लेकिन अभयजी ने मुझसे कहा कि तुम प्रशिक्षु पत्रकार के रूप में नईदुनिया क्यों आना चाहते हो? ( इसका कारण यह था कि मैं ‘नईदुनिया’ में यदा-कदा छपता रहा था और उस वक्त इंदौर के साप्ताहिक ‘प्रभात किरण’ में उप संपादक के रूप में काम कर  रहा था)। 





अभयजी के कहने का आशय यह था ‍कि मेरे पास पत्रकारिता का अनुभव होते हुए भी मैं ट्रेनी क्यों बनना चाहता हूं? मैंने अपनी समझ से जवाब दिया कि भले ही मैं छोटे अखबारों में काम कर चुका हूं, लेकिन नईदुनिया जैसे बड़े और प्रतिष्ठित बैनर में मैं पत्रकारिता का ककहरा नए सिरे से सीखना  चाहता हूं, इसलिए। अभयजी ने मुझे कुछ हैरत भरी निगाहों से देखा। फिर हल्की से मुस्कान के साथ बोले- ठीक है। 





10 जनवरी 1987 को मैं नईदुनिया का हिस्सा बन गया। पत्रकारिता प्रशिक्षुओं की पहली मीटिंग को अभयजी ने ही सम्बोधित किया। कहा- नईदुनिया में काम करना एक विरल और शुभ अवसर है। इसने जो मानदंड कायम किए हैं और जिन मूल्यों को सहेजा है, आप लोग उसकी रक्षा करेंगे, यही अपेक्षा है।



 



उसके बाद अभयजी से कई बार सामना होता रहा। उसका एक कारण यह था कि नईदुनिया की कार्य संस्कृति में ‘मालिक’ और ‘नौकर’ जैसा कोई भेद नहीं था। कई बार अगर टेलीप्रिंटर उप संपादक आने में ‍किसी कारण से लेट हो जाता था तो खुद अभयजी ही खबरों के टैग संपादित कर जारी करना शुरू कर देते थे, ताकि समय जाया ना हो। उप संपादक के ड्यूटी पर आते ही कह देते थे कि भई, मैंने इतना हिस्सा जारी कर दिया है, आगे तुम देख लेना। इतना सुनकर देरी से आने वाला उप संपादक खुद ही शर्मिंदा महसूस करता था।



 



‘नईदुनिया’ में पत्रकारीय मूल्यों को अभयजी ने कायम रखा। वो थे निष्पक्ष, प्रामाणिक और निर्भीक पत्रकारिता। 1987 में ही इंदौर में एक बहुचर्चित इंदुप्रभा कांड हुआ था, जिसमें एक जैन साध्वी ने संन्यास छोड़तर एक हिंदू कारोबारी से शादी कर ली थी। इससे जैन समाज उद्विग्न था। अभयजी पर भी उसी समाज से होने के कारण अखबार में रिपोर्टिंग को लेकर दबाव था। लेकिन उन्होंने इसकी चिंता नहीं की। ‘नईदुनिया’ में उस मामले की निष्पक्ष रिपोर्टिंग हुई। विशेष अवसरों पर नईदुनिया के विशेषांक अपने आप में मिसाल होते थे। इसके पीछे भी अभयजी की रचनात्मक दृष्टि और समय की नब्ज पर पकड़ महत्वपूर्ण भूमिका निभाती थी। यही कारण था कि नईदुनिया महज एक अखबार नहीं था, वो समकालीन बौद्धिक, सांस्कृतिक, सामाजिक और खेल जगत की धड़कन हुआ करता था। वहां कोई पर्दा या केबिन नहीं था, कोई भी कभी भी सहज भाव से आ सकता था। चर्चा और बहस मुबाहिसा कर सकता था। पारिवारिकता ‘नईदुनिया’ का एक अनुकरणीय मूल्य था। जिस तरह लोग उसे ‘अपना अखबार’ मानकर आलोचना या प्रशंसा करते थे, वह अद्भुत और दुर्लभ था और इसे कभी अन्यथा नहीं लिया जाता था।



  



‘नईदुनिया’ को बौद्धिक छवि के साथ-साथ उसे प्रिंटिंग और ले आउट के क्षेत्र में ऊंचाइयों पर पहुंचाने का श्रेय भी अभयजी को ही जाता है। यह वो समय था, जब मानो ‘नईदुनिया’ इंदौर की धड़कन में तब्दील हो चुका था। पाठकों के प्रतिदिन आने वाले सैकड़ों पत्र इसके गवाह थे।  इंदौरवासियों की तो सुबह ‘नईदुनिया’ पढ़कर ही होती थी। अभयजी ने इंदौर और मप्र के खेल जगत को आगे ले जाने में भी अहम भूमिका‍ निभाई। खासकर मप्र के टेबल टेनिस को अखिल भारतीय स्तर पर ले जाने में उनका बड़ा योगदान रहा। इंदौर को ‘अभय प्रशाल’ जैसा विशाल इनडोर स्टेडियम अभयजी की ही देन है। 





मध्यप्रदेश के राजनीतिक फलक नईदुनिया के तेवर और तेज का करीब पांच दशकों तक असर रहा तो इसके पीछे अभयजी बड़ा कारण थे। कुछ लोग नईदुनिया को कांग्रेस की तरफ झुका हुआ अखबार मानते थे, लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं था। ‘नईदुनिया’ सत्ता समर्थक और सत्ता‍ विरोधियों को बराबरी की जगह थी। इंदिरा गांधी द्वारा 1975 में लागू आपात काल का मुखर विरोध करने वाले अखबारों में ‘नईदुनिया’ अग्रणी था। 26 जून 1975 के अंक में नईदुनिया’ ने अपना संपादकीय पेज खाली छोड़ा था, जो सत्ता की तानाशाही का अनूठा और प्रखर विरोध था। यह अब अपने आप में इतिहास बन चुका है। इस निर्णय में अभयजी की भी बड़ी भूमिका थी। राजनीतिक दृष्टि से अभयजी का जलवा ऐसा था कि बीसवीं सदी के आखिरी दशकों में इंदौर से मंत्रिमंडल में कौन शामिल हो, इस पर उनकी राय मायने रखती थी। कई बार उन्होंने अपने समर्थकों को मंत्री भी बनवाया। 





‘नईदुनिया’ के अलावा अभयजी की दूसरी चिंता इंदौर हुआ करती थी। इंदौर के विकास, उसकी समस्याओं और व्यवस्थाओं को लेकर वो हमेशा चिंतित और सक्रिय रहते थे। वो शायद पहले ऐसे सिटी रिपोर्टर पत्रकार मालिक थे, जिन्होंने इंदौर पर केंद्रित अपने साप्ताहिक कॉलम को प्रदेश स्तर का बना दिया था। इसके अलावा लता मंगेशकर जैसा प्रतिष्ठित पुरस्कार शुरू करवाने में भी उनकी अहम भूमिका रही।



 



अभयजी नईदुनिया के बौद्धिक, सांस्कृतिक आभामंडल का एक चमकता सितारा थे। उन्होंने अखबार में मालिक की भूमिका को एक अलग पर्सनल टच हमेशा दिया। पारिवारिक कारणो से मेरा ‘नईदुनिया’ इंदौर से से भोपाल कार्यालय में स्थानांतरण इसीकी बानगी है। मकसद यही था कि नईदुनिया का कर्मचारी निश्चिंत और मन लगाकर काम कर सके। यह ‘नईदुनिया’ की कार्य संस्कृति थी, जहां स्वानुशासन सर्वोपरि था। न कोई चीख पुकार, न कोई डांट फटकार। सहज सरल भाव से सारा काम चलता था।  अभय जी से कोई भी कर्मचारी सीधे बात कर अपनी समस्या बता सकता था। 





अभयजी अच्छे पत्रकार होने के साथ नई नई प्रतिभाओं को जोड़ने में भी यकीन रखते थे। सप्ताह में एक दिन सकारात्मक समाचारों के प्रकाशन की शुरूआत उन्होंने ही की थी। पत्रकारिता और इंदौर पर उन्होंने कई संग्रहणीय अंक ‍तथा अन्य प्रकाशन निकाले। रचनात्मक पत्रकारिता के लिए उन्हें जब पद्मश्री मिला तो यह बिल्कुल स्वाभाविक था। हालांकि कुछ वर्षों बाद ही आर्थिक कारणों से नईदुनिया की मिल्कियत बदल गई। उसी के साथ प्रामाणिक, प्रखर और रचनात्मक पत्रकारिता का अध्याय भी समाप्त हो गया। इस मायने में अभयजी का प्रिंट मीडिया के सुनहरे इतिहास के एक चमकते नक्षत्र का अस्त होना है। उन्हें हार्दिक श्रद्‍धांजलि।



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