इंदौर मेयर, कलेक्टर और निगमायुक्त में जो रहा दमदार, उसी ने चलाया सिस्टम, विजयवर्गीय-मनीष सिंह ही अपने हिसाब से चला पाए

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Neha Thakur
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इंदौर मेयर, कलेक्टर और निगमायुक्त में जो रहा दमदार, उसी ने चलाया सिस्टम, विजयवर्गीय-मनीष सिंह ही अपने हिसाब से चला पाए

संजय गुप्ता, INDORE. इंदौर महापौर पुष्यमित्र भार्गव द्वारा कलेक्टर डॉ. इलैयाराजा टी को लिखे पत्र के बाद इंदौर नगर निगम VS प्रशासन को लेकर हलचल तेज हो गई है। बीते कुछ सालों को देखें तो यही बात सामने आती है जो दमदार रहा भले ही महापौर हो, कलेक्टर हो या निगमायुक्त, वहीं अपने हिसाब से इंदौर के पूरे सिस्टम को चला पाया है। महापौर के तौर पर केवल कैलाश विजयवर्गीय दमदार निकले तो निगमायुक्त के तौर पर मनीष सिंह और आशीष सिंह, कलेक्ट्रेट पर भारी पड़े। वहीं, कलेक्टर के तौर पर इंदौर के सिस्टम पर आकाश त्रिपाठी, मनीष सिंह ही सबसे ज्यादा भारी पड़े। एक दौर संभागायुक्त का भी आया जब कांग्रेस सरकार बनी, तब संभागायुक्त आकाश त्रिपाठी ने लीड किया। बीच में एक दौर डीआईजी संतोष सिंह का रहा, जब लंबे समय बाद इंदौर का सिस्टम डीआईजी ऑफिस से चलता था।





विजयवर्गीय की महापौर के रूप में दमदारी-





जब से नगर निगम में सीधे महापौर चुनने की प्रथा चली है, ऐसे में केवल कैलाश विजयवर्गीय इकलौते महापौर रहे हैं, जिन्होंने चाहे कलेक्टर हो या निगमायुक्त हो, किसी की नहीं चलने दी और एक तरफा अपने हिसाब से नगर निगम को चलाया। जब कलेक्टर मनोज श्रीवास्तव और सीएम दिग्विजय सिंह थे, तब मनोरमागंज की एक मल्टी कलेक्टर के कहने पर गिरने से विदेश दौरे पर रहे विजयवर्गीय भयंकर भड़के थे और कलेक्टर को साफ चेता दिया था। कि मैं मनोनीत व्यक्ति नहीं हुई सीधे चुना हुआ महापौर है, निगम कैसे चलाना है मुझे आता है। वहीं एक बार और निगम अपने हिसाब से चला तब मनीष सिंह यहां निगमायुक्त बने, उन्होंने पूरे सूत्र अपने हाथ में ले लिए थे और किसी भी अधिकारी का कोई दखल नहीं था। हालांकि, जब यही सिंह इंदौर कलेक्टर बने तब इन्होंने नगर निगम को अपने हिसाब से चलाया और तत्कालीन निगमायुक्त प्रतिभा पाल उनकी परछाई की तरह ही रही।





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10 सालों में इस तरह रहे कलेक्टर, निगम के संबंध





इंदौर महापौर की बात करें तो विजयवर्गीय के बाद आई उमा शशि शर्मा के समय नगर निगम सामान्य तरीके से चला, इसके बाद कृष्णमुरारी मोघे महापौर बने, तब उनके साथ निगमायुक्त भले ही कोई भी रहे हो, लेकिन तत्कालीन कलेक्टर आकाश त्रिपाठी का 3 साल तक भारी होल्ड रहा। निगम कहां सड़क बनाएगा, कहां पर रिमूवल होगा यह सभी कलेक्ट्रेट से ही तय होता था। मोघे ने भी उन्हें फ्री हैंड दिया, एआईसीटीएसएल से बसें संचालित हुई। उस समय कलेक्टर सिटी बस बोर्ड में एमडी भी होते थे। त्रिपाठी के जाने के बाद पी. नरहरि कलेक्टर बने, जो निगम के काम में ज्यादा नहीं उलझे, उधर वैसे भी मनीष सिंह निगमायुक्त के तौर पर आ गए थे। ऐसे में पूरी तरह मनीष सिंह ही निगम चला रहे थे और महापौर मालिनी गौड़ ने उन्हें फ्री हैंड दिया। सिंह के हटने बाद आशीष सिंह निगमायुक्त हुए और इधर कलेक्टर निशांत वरवड़े रहे, तब आशीष सिंह ने अपने हिसाब से निगम चलाया, कांग्रेस सरकार आने पर महापौर भी दरकिनार हो गई और निगमायुक्त से ही पुरा निगम चलता रहा।





2 साल तक प्रशासक बनकर त्रिपाठी, शर्मा ने चलाया निगम





महापौर मालिनी गौड़ का कार्यकाल पूरा होने के बाद सिंह पूरी तरह से निगम चला रहे थे, वहीं कांग्रेस सराकर आने पर प्रशासक संभागायुक्त आकाश त्रिपाठी बने। सिंह और त्रिपाठी ने पूरी तरह इंदौर के सिस्टम को चलाया, कलेक्टर लोकेश जाटव ने बहुत ज्यादा दखल नहीं दिया। बाद में जब माफिया अभियान चला तब भी लीड त्रिपाठी, सिंह ने ली थी और जाटव सहयोगी की भूमिका में थे। लेकिन जब बीजेपी की सरकार आई तब एक बार फिर कलेक्टर प्रभावी हुए और मनीष सिंह ने इंदौर कलेक्टर पद कोविड काल में काम संभालते ही महामारी एक्ट के चलते पूरी रह इंदौर सिस्टम को अपने हाथ में ले लिया। आशीष सिंह का ट्रांसफर हो गया और निगमायुक्त प्रतिभा पाल बनी जो सिंह की पसंद से ही आई थी, ऐसे में सिस्टम कलेक्टर के हिसाब से ही चला, महापौर थे ही नहीं और प्रशासक संभागायुक्त डॉ. पवन शर्मा रहे जिन्होंने कहीं भी अधिक दखल दी ही नहीं।





अब क्यों स्थितियां बदल रही है





इंदौर कलेक्टर डॉ. इलैयाराजा टी कभी इंदौर में नहीं रहे, इसलिए वह जनप्रतिनिधियों से लेकर अन्य सिस्टम से बहुत ज्यादा लिंक नहीं है। इसके पहले रहे कलेक्टर आकाश त्रिपाठी, मनीष सिंह पहले इंदौर के अधिकांश पदों पर रह चुके, इसलिए उनका होल्ड था। अब चुने हुए जनप्रितिनिधि 2 साल के गैप के बाद आ चुके हैं, वह अपने हिसाब से इंदौर को चलाना चाहते हैं, वहीं 2 साल के गैप के बाद अधिकारियों को जनप्रतिनिधियों के साथ ट्यूनिंग बैठाना भारी लग रहा है कि वह हर काम पूछकर करें। उधर विधानसभा चुनाव का साल है, ऐसे में जनप्रतिनिधियों को भविष्य का भी सोचना है और राजनीतिक अस्तित्व देखना है। महापौर पुष्यमित्र भार्गव के लिए विशेष लड़ाई है, क्योंकि वह पहली बार राजनीतिक पद पर आए और वह भी सीधे महापौर मिला, जो कभी पार्षद भी नहीं रहे और ना ही किसी अन्य राजनीतिक पद पर। निगम अधिकारी बेकाबू हो चुके हैं, ऐसे में वह भी ब्यूरोक्रेसी को अपने हिसाब से लेना चाहते हैं। इन सभी का असर है महापौर द्वारा कलेक्टर को लिखी यह चिट्‌ठी।



 



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