मध्य प्रदेश में वोटरों के बदले मिजाज से घबराने लगे ‘किलेदार’, सुरक्षित नहीं रहे नेताओं के अभेद गढ़

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Arun Dixit
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मध्य प्रदेश में वोटरों के बदले मिजाज से घबराने लगे ‘किलेदार’, सुरक्षित नहीं रहे नेताओं के अभेद गढ़

BHOPAL. मध्यप्रदेश में 2023 का चुनाव सत्ताधारी दल बीजेपी और विपक्षी पार्टी कांग्रेस के लिए बहुत चुनौतीपूर्ण है। पिछले पांच सालों में प्रदेश की सियासत 180 डिग्री पर घूम गई है। सरकार बनाने के लिए दोनों राजनीतिक दलों की नजर उन विधानसभा सीटों पर हैं, जिनको किला या अभेद गढ़ कहा जाता है। ये बात दूसरी है कि पिछले पांच सालों में वोटर के बदले मिजाज से अब इन अभेद किलों के किलेदार भी घबराने लगे हैं। यानी यूं कहें कि ये अभेद गढ़ सुरक्षित नहीं रहे हैं तो शायद गलत नहीं होगा। पिछले पांच साल की चुनावी राजनीति तो कुछ यही कह रही है। 



पांच साल का चुनावी इतिहास, जनता का बदलता मिजाज



अगर हम बहुत पीछे न जाएं और पिछले पांच साल का चुनावी इतिहास खंगालें तो जनता का बदलता मिजाज साफ नजर आता है। 2018 में चुरहट से पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के पुत्र और कांग्रेस के बड़े चेहरे अजय सिंह राहुल बीजेपी से हार गए, जबकि चुरहट को कांग्रेस का गढ़ माना जाता था। गुना लोकसभा से साल 2019 में ज्योतिरादित्य सिंधिया की हार भी इस बात का बड़ा उदाहरण है। निकाय चुनाव में कांग्रेस ने 57 साल के इतिहास को बदल दिया। ग्वालियर नगर निगम में कांग्रेस का कब्जा हो गया और यहां तक कि बीजेपी के गढ़ मुरैना नगर निगम में भी कांग्रेस ने जीत हासिल की। ये सियासी हालात हमको बताते हैं कि जनता का मूड अब परंपरागत से हटकर प्रगतिशील हो चला है। जनता का यही मिजाज है, जो किलेदारों को डरा रहा है। शुरुआत कांग्रेस से करते हैं। कांग्रेस का सबसे बड़ा और अभेद किला लहार है। यहां पर नेता प्रतिपक्ष डॉ गोविंद सिंह पिछले सात बाद यानी 35 साल से विधायक हैं। अब तक बीजेपी ने यहां जीत की कई बार कोशिश की लेकिन उसके हाथ निराशा ही लगी। यही कारण है कि सवाल बीजेपी की रणनीति पर भी उठे। इस बार फिर बीजेपी यहां सेंधमारी करने की कोशिश कर रही है। लोगों के बदलते मिजाज को डॉ गोविंद सिंह भी भांपने लगे हैं। द सूत्र से बातचीत में उन्होंने माना कि जनता कुछ भी कर सकती है। 



पिछोर और राघौगढ़ में भी बदलने लगा हवा का रुख



कांग्रेस का एक और अभेद गढ़ पिछौर है। यहां पर पिछले तीस साल से कांग्रेस के केपी सिंह कक्काजू विधायक हैं। क्या यहां भी अब हवा बदलने लगी है। इस सवाल का जवाब हमने केपी सिंह से ही जानने की कोशिश की। उन्होंने बेबाकी से अपने खिलाफ एंटी इन्कमबेंसी को स्वीकार किया। राघौगढ़ विधानसभा सीट पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह की रियासत का हिस्सा रही है। अब उनके पुत्र जयवर्द्धन सिंह यहां से दूसरी बार के विधायक हैं। बीजेपी की योजना में राधौगढ़ का किला भी शामिल है। बीजेपी की इस प्लानिंग ने जयवर्द्धन सिंह को सतर्क कर दिया है। इसी तरह खिलचीपुर विधानसभा में पिछले चार चुनाव में एक बार बीजेपी जीती है और तीन बार कांग्रेस के प्रियव्रत सिंह ने यहां जीत हासिल की है। प्रियव्रत सिंह अब अपना गढ़ बचाने के लिए यहां की जनता को ये बताने लगे हैं कि अगली बार कांग्रेस की ही सरकार बनेगी। यानी जनता यहां से विधायक नहीं मंत्री चुनने वाली है। कांग्रेस के नेता भी मानते हैं कि अब जनता किसी की जागीर या बंधुआ नहीं रही है। राजा-महाराजाओं का दौर गुजर चुका है। अब जो जनता का मानस समझेगा वही सिक्का राजनीति में चलेगा। यानी कांग्रेस नेताओं की इस बदलती सोच से साफ जाहिर हो रहा है कि नेताओं को अब जनता का डर सताने लगा है।



बीजेपी के किलेदार खुद को नहीं मान रहे सुरक्षित 



पहले कांग्रेस की और अब बीजेपी की नेता इमरती देवी डबरा से लगातार तीन बार विधानसभा चुनाव जीतीं और वो भी भारी मतों से। लेकिन 2018 में बड़े अंतर से जीतने वाली इमरती 2020 में आखिर क्यों हार गईं। अपने गढ़ में पराजय का ये भी एक उदाहरण है। इमरती साफ कहती हैं कि उन्होंने जनता के बीच जाना छोड़ दिया था तो जनता ने उन्हें छोड़ दिया। अब फिर उन्होंने जनता का पल्लू पकड़ लिया है। बीजेपी का गढ़ बना दतिया पर कांग्रेस की नजर है। पिछले तीन बार से यहां से वर्तमान में गृहमंत्री नरोत्तम मिश्रा ने जीत हासिल की है। लेकिन पिछले चुनाव में वे बमुश्किल जीत हासिल कर पाए थे। इस बार स्थितियां और चुनौतीपूर्ण हैं। दतिया में नरोत्तम मिश्रा का चुनावी प्रबंधन संभाल रहे उनके पुत्र सुकर्ण मिश्रा चुनौती को देखते हुए कमियों पर पैबंद लगाने लगे हैं। सागर जिले की रहली और खुरई भी कुछ इसी तरह की सीटें हैं, जहां पर बीजेपी जीतती आ रही है। रहली से तो चार दशक यानी आठ बार से गोपाल भार्गव ही विधायक हैं। वे इस समय विधानसभा में सबसे ज्यादा बार विधानसभा चुनाव जीतने वाले नेता हैं। भोपाल की नरेला सीट से मंत्री विश्वास सारंग अपनी हैट्रिक लगाने की तैयारी कर रहे हैं। लेकिन सबसे ज्यादा चुनौती उनको इस बार मिलने वाली है। इसका अंदाजा उनको भी लग गया है। साढ़े 16 साल से प्रदेश की सत्ता पर काबिज बीजेपी के नेता भी अपनी सीट की मरम्मत में जुट गए हैं। अब उनको लगने लगा है कि ये पब्लिक है और चुनाव में ये किसी को भी अर्श से फर्श पर पहुंचा सकती है।


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