JABALPUR. राजनीतिक दृष्टि से महाकौशल में जबलपुर, कटनी, सिवनी, नरसिंहपुर, मंडला, डिंडौरी, छिंदवाड़ा और बालाघाट जिले हैं। यहां के परिणाम हमेशा ही चौकाने वाले रहे हैं। 2018 के चुनाव में बीजेपी को निराशा मिली थी, जिसकी वजह आदिवासियों की नाराजगी मानी गई थी। कांग्रेस ने सीएम का चेहरा कमलनाथ को आगे कर चुनाव लड़ा था। इससे गृह जिले छिंदवाड़ा की 7 की 7 सीट कांग्रेस ने जीत लीं। इसी तरह जबलपुर में कांग्रेस को 8 में से 4 सीट मिली थीं। अब क्या 2023 के चुनाव में भी कांग्रेस ऐसा ही प्रदर्शन कर पाएगी या बीजेपी को बड़ी सफलता मिलेगी, आइए जानते हैं...
बीजेपी का सत्ता विरोधी लहर से होगा सामना
2023 में महकौशल की 38 सीटों पर ही सत्ता का दारोमदार रहेगा। यहां 2018 में बीजेपी को महज 13 सीट पर ही संतोष करना पड़ा था। जबकि कांग्रेस ने 24 सीटें जीती थीं। यह 2013 के प्रदर्शन का दोगुना था जो एक निर्दलीय जीते, वे भी कांग्रेस समर्थक थे। वर्तमान परिदृश्य देखने से स्पष्ट है कि बीजेपी को सत्ता विरोधी मत परेशान करेंगे। महंगाई, बेरोजगारी और प्रदेश शासन के कर्मचारियों की नाराजगी चरम पर है। यही वजह है कि बीजेपी नए वोटर की तलाश में सक्रिय है।
बीजेपी का आदिवासियों पर फोकस
बीजेपी ने नए आदिवासी मतदाता को आकर्षित करने मुहिम चला रखी है। मतदाता कितना प्रभावित होगा, यह आने वाला समय बताएगा। कांग्रेस की सक्रियता भी कम नहीं है। जब भी महाकौशल की बात होती है तो एकछत्र नेता पूर्व सीएम कमलनाथ का नाम आता है। यहां कांग्रेस के अन्य बड़े नेताओं का उतना प्रभाव नहीं है। कुछ क्षेत्रों में पूर्व सीएम दिग्विजय सिंह समर्थकों का प्रभाव है। उनके टिकट मिलने पर ही जीत की दावेदारी बनेगी। कांग्रेस का फोकस बीजेपी से नाराज वोटर्स पर है। इसी तरह कांग्रेस ने आदिवासी नेताओं को सक्रिय किया है। पूर्व सीएम कमलनाथ और दिग्विजय सिंह की खासी पकड़ इन क्षेत्रों में है। कांग्रेस इसी का लाभ लेने के लिए सक्रिय है।
बीजेपी को कड़ी चुनौती
कांग्रेस कमलनाथ सरकार के कामों को भी गिना रही है, लेकिन सबसे अहम सवाल है कि जिन 24 स्थानों पर कांग्रेस ने जीत हासिल की थी, क्या वह बढ़त कायम रहेगी? यही अंक गणित पर कांग्रेस की सरकार बनने का जवाब देगा। 2013 के आंकड़े देखने पर स्पष्ट है कि बीजेपी को 24 और कांग्रेस को 13 सीट मिली थीं। एक स्थान पर निर्दलीय को जीत मिली थी। 2018 में यही आंकड़ा पलट गया और 24 स्थान पर कांग्रेस को जीत मिली। 2013 के प्रदर्शन को दौहराने के लिए बीजेपी संगठन को मेहनत करनी होगी।
नाराजगी कम नहीं
सता के साथ ही नाराजगी भी साथ चलती है। मतदाता और कार्यकर्ता दोनों में ही नाराजगी दिखने लगी है। 2018 के बाद कांग्रेस की सरकार 15 महीने रही, लेकिन समर्थक निगम मंडल में नियुक्त को चक्कर ही लगाते रहे। इस दौरान पहले प्रशासनिक गतिविधियों को ठीक करने में लगी रही, तब तक कार्यकर्ता मंत्रियों की कोठी के ही फेर में रहा गए और सरकार चली गई। 15 महीने बाद बीजेपी की सरकार आ तो आ गई, लेकिन बीजेपी का कार्यकर्ता निगम मंडल की आस में अभी तक बैठा रह गया। अब चुनाव को मात्र 9 माह बचे हैं, ऐसे में कार्यकर्ता की तरफ विधायक और संगठन के पदाधिकारी आशा भरी नजरों से देख रहे हैं और कार्यकर्ता मुंह फुलाए बैठा है। पंचायत और नगरीय निकाय के चुनाव भी हो गए हैं, जिनको टिकट नहीं मिली वे अब अपनी बारी का इंतजार कर रहे हैं।
मामूली अंतर दिखेगा 2018 का
2023 के लिए आज यदि चुनाव होते हैं तो बहुत मामूली अंतर ही देखने को मिलेगा। अभी बीजेपी नुकसान में दिखती है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह का जादू कमजोर हो गया है। घिसे पिटे वादे और नारों से मतदाता आकर्षित नहीं हो रहा। इसका मतलब यह भी नहीं है कि कांग्रेस में सब कुछ ठीक है। वहां भी स्थानीय बड़े नेताओं में वर्चस्व का अंदरूनी संघर्ष चल रहा है। यह कांग्रेस को नुकसान पहुंचाएगा।