मध्यप्रदेश में ज्योतिरादित्य की महत्वाकांक्षी योजना पर शिवराज सिंह के फैसले ने लगाया ब्रेक, क्या अब होगा ‘टाइगर्स’ में टकराव?

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Harish Divekar
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मध्यप्रदेश में ज्योतिरादित्य की महत्वाकांक्षी योजना पर शिवराज सिंह के फैसले ने लगाया ब्रेक, क्या अब होगा ‘टाइगर्स’ में टकराव?

BHOPAL. मध्यप्रदेश में दो टाइगर आमने सामने हैं। आपने ये बात जरूर सुनी होगी कि एक टाइगर कभी अपने इलाके में दूसरे टाइगर को बर्दाश्त नहीं करता। ऐसा होता है तो दोनों के बीच टेरिटोरियल फाइट छिड़ जाती है। जो जीतता है इलाका उसका होता है। ये तो रही असल टाइगर की बात जो डिप्लोमेसी नहीं समझते। सीधे सादे वन्य प्राणी जो ठहरे, लेकिन यही टाइगर जब सियासत के जंगल में टकराते हैं तो कुछ देर तो दोस्त ही नजर आते हैं, लेकिन धीरे-धीरे इलाके की जंग शुरू हो ही जाती है। पर ये टाइगर हैं मंझे हुए डिप्लोमेट जो घोर दुश्मनी हो तो भी दोस्त ही नजर आते हैं। वो तो कोई फैसला सामने आ जाए तब लगता है कि कोई एक टाइगर दूसरे पर भारी पड़ गया है। इस बार टाइगर पर सवासेर साबित हुए हैं मुख्यमंत्री शिवराज  सिंह चौहान। अरे, चौंकिए नहीं दो में से एक टाइगर सीएम शिवराज ही तो हैं और दूसरा कौन है ये तो आप समझ ही गए होंगे।



टाइगर अभी जिंदा है वाली बैक टू बैक



तकरीबन तीन से चार साल पहले मध्यप्रदेश की सियासत ये जुमला खूब गूंजा। इस डायलोग ने टिकट खिड़की पर वो धमाल नहीं मचाया होगा जो मध्यप्रदेश की राजनीति में मचाया। प्रदेश में कमलनाथ की सरकार थी तब शिवराज सिंह चौहान ने कहा टाइगर अभी जिंदा है। दूसरे टाइगर हैं ज्योतिरादित्य सिंधिया। जो कांग्रेस में खुब दहाड़े, लेकिन कमलनाथ के इलाके में दहाड़ गूंज भी न सकी। सो बीजेपी में शामिल हुए और ऐलान कर दिया कि टाइगर अभी जिंदा है। तब से अब तक ये कंफ्यूजन बना हुआ है कि मध्यप्रदेश के असली टाइगर है कौन। कभी कोई सेर साबित होता है तो दूसरा सवा सेर। लेकिन चुनाव नजदीक आने के साथ साथ कौन सा टाइगर किस पर भारी पड़ रहा है ये साफ होता जा रहा है। 



सिंधिया की सियासी महत्वाकांक्षा उनके इमोशन्स से भी जुड़ी है



क्या सत्ता जिसके हाथ में है असली टाइगर वही है। यानी कि शिवराज सिंह चौहान। इन दिनों जो घटनाक्रम घट रहे हैं उसे देखते हुए इस सवाल का जवाब हां में भी हो सकता है। जो बार-बार पार्टी के नए नए टाइगर को अपनी ताकत का अहसास करवा चुके हैं। एक बार फिर ज्योतिरादित्य सिंधिया की महत्वाकांक्षा पर लगाम कसकर  सीएम शिवराज ने अपनी ताकत साबित कर दी है। मानो कह रहे हों कि टाइगर और चीते एक तरफ फिलहाल इस जंगल के वो बब्बर शेर हैं। ताजा मामला, जिसमें सीएम ने अपनी ताकत और डिप्लोमेसी दिखाई है वो न सिर्फ सिंधिया की सियासी महत्वाकांक्षा थी। बल्कि, उनके इमोशन्स से भी जुड़ी है।



सीएम शिवराज सिंह चौहान ने हाल ही में ऐसा फैसला लिया है जिसे सुनकर सिंधिया छटपटाए जरूर होंगे, लेकिन अभी कुछ कर गुजरने का मौका उनके सामने नहीं है। कांग्रेस छोड़ने के बाद बड़ी शान से कहा था कि उसूलों पर आंच आए तो टकराना जरूरी है।



शिवराज और सिंधिया का नया मामला भी टाइगरों से जुड़ा है



टाइगर शिवराज और टाइगर सिंधिया का नया मामला भी इत्तेफाक से टाइगरों से ही जुड़ा है। आपको याद होगा कि जबरदस्त गाजे बाजों के साथ कुछ ही समय पहले शिवपुरी के माधव नेशनल पार्क में टाइगर छोड़े गए थे। इस नेशनल पार्क को टाइगर रिजर्व बनाने की तैयारियां जोरो पर थीं। खुद सीएम और सिंधिया ने एक साथ यहां जाकर टाइगर्स को छोड़ा था। उस वक्त सिंधिया ने भावुक होकर कहा भी था कि- “27 साल पहले माधव नेशनल पार्क में बिग कैट की दहाड़ शांत हो गई थी। यह मेरे आदरणीय पिता का सपना था क्योंकि वह वन्य जीवन से जुड़े थे। उनकी जयंती पर वन्यजीवों को फिर से स्थापित करना उनके लिए सच्ची श्रद्धांजलि होगी।”



 नेशनल पार्क को टाइगर रिजर्व में बदलने सिंधिया ने पत्र भी लिखे



ये भी बता दें कि नेशनल पार्क का नाम माधव, सिंधिया के पिता माधव राव सिंधिया के नाम पर ही है और उनके एरिया शिवपुरी में ही आता है। इसी जंगल में सिंधिया घराने के राजाओं ने खूब शिकार भी खेला। जहां बाप दादा ने दिन गुजारे हों उस जगह से जज्बात जुड़ने लाजमी हैं। इस नेशनल पार्क को टाइगर रिजर्व में तब्दील करने के लिए सिंधिया ने सत्ता का हिस्सा रहते हुए पत्र भी लिखे। दिल्ली से तो मंजूरी मिली, लेकिन काम एमपी में आकर रुक गया। पिछले दिनों हुए स्टेट वाइल्ड लाइफ की बैठक के बाद सीएम शिवराज सिंह चौहान ने फिलहाल इस प्रस्ताव को टाल दिया है। दलील दी गई कि स्थानीय जनजातियों के 13 गांव बाधा बन रहे हैं। चुनावी साल में इतने गांवों की नाराजगी मोल लेना क्या सही होगा।



सिंधिया समर्थक पार्टी की कसौटी पर फिट नहीं बैठे तो टिकट भी काटे जाएंगे



शिवपुरी में माधव नेशनल पार्क टाइगर रिजर्व बनता तो वाहवाही सिंधिया की होती। इस चुनाव में तो उन्हें फायदा मिलता ही वोट भी उनके नाम से ही जाते। वैसे ये पहला मौका नहीं है जब मध्यप्रदेश में सिंधिया को अनसुना किया गया हो। इससे पहले नगरीय निकाय के टिकट वितरण के समय भी ग्वालियर चंबल की सीटों पर ही सिंधिया की ज्यादा नहीं चली थी। बीजेपी की कोर कमेटी की बैठकों से भी ऐसे वाकए सुनाई देते रहे हैं कि सिंधिया ने नाराजगी  जताई, बंद कमरे में चर्चा की या फिर बैठक छोड़कर ही चले गए। सिंधिया समर्थकों के खिलाफ पार्टी नेताओं की नाराजगी भी आलाकमान के दरबार तक पहुंचती रहती है। इसके अलावा चर्चा तो अब ये भी है कि चुनावी साल में बीजेपी किसी पुरानी शर्त के हवाले से कांप्रोमाइज करने के मूड में नहीं है। जो सिंधिया समर्थक पार्टी की कसौटी पर फिट नहीं बैठेंगे उनके टिकट भी काट दिए जाएंगे। ये इस बात का इशारा मान जा रहा है कि अब सिंधिया का कद घटाने की लगातार कोशिश हो रही है। 



चुनौती पूरे ग्वालियर चंबल को भगवा रंग में रंगने की है



सिंधिया के लिए आने वाले कुछ महीने चुनौतियों से भरपूर हैं। समर्थकों को टिकट दिलाने से लेकर उन्हें जिताने तक का काम तो करना ही है, लेकिन अब सिर्फ समर्थकों तक सीमित नहीं रहना। चुनौती पूरे ग्वालियर चंबल को भगवा रंग में रंगने की है। उसके बाद लोकसभा चुनाव भी जीतना है। ये सब उतना आसान नहीं है जितना नजर आता है।



आने वाले चंद महीने कदम-कदम पर लड़ाई होगी



डारविन का एक नियम है सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट। सियासत के जंगल पर भी ये थ्योरी लागू है। जो फिट होगा वही टिकेगा। अब सिंधिया को ये साबित करना है कि बीजेपी के जंगलों में दहाड़ने के लिए वो एकदम फिट टाइगर है। क्योंकि यहां पहले से कई टाइगर अपने इलाके सील कर चुके हैं। उनके राज में दखल देना है और जीतना है। ये इतना आसान नहीं होगा। क्योंकि आसार उनके खिलाफ नजर आने लगे हैं। आने वाले चंद महीने कदम-कदम पर लड़ाई होगी। टिकट दिलाने से लेकर चुनाव प्रचार तक। क्या बीजेपी के सूरमाओं के आगे उनकी ताकत कारगर साबित होगी।


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