BHOPAL. हर कहानी में एक हीरो होता है एक विलेन। चुनाव के केस में जीतने वाले को हीरो मान लेते हैं और हारने वाले को विलेन। मध्यप्रदेश की सियासत में भी यही दो किरदार रहे हैं एक हारने वाला और एक जीतने वाला लेकिन इस बार मध्यप्रदेश की सियासी पिक्चर मल्टी स्टारर होने वाली है। इस बार चुनाव में सिर्फ हीरो और विलन नहीं बल्कि साइड हीरो, सपोर्टिंग हीरो जैसे बहुत से किरदार होंगे। जिनकी वजह से चुनावी पिक्चर बड़ी दिलचस्प हो गई है।
मध्यप्रदेश के मैदान में क्षेत्रीय दलों की एंट्री
हर चुनाव में मध्यप्रदेश में बस बीजेपी कांग्रेस छाए रहते हैं। लेकिन इस बार यूपी और बिहार की तर्ज पर क्षेत्रीय दल भी चुनावी मैदान में जमकर धमाल मचाएंगे। उनके धमाल के ख्याल से ही कांग्रेस-बीजेपी का टेंशन बढ़ चुका है। कहां बीजेपी ये मान बैठी थी कि उसकी वजह से क्षेत्रीय दल खत्म हो रहे हैं। जबकि मध्यप्रदेश में हकीकत इससे परे है। यहां क्षेत्रीय दलों ने बीजेपी और कांग्रेस दोनों की नाक में दम कर दिया है। हालात ये है कि दोनों बड़े दल इन नए और छोटे दलों के अनुसार अपनी रणनीति तैयार कर रहे हैं।
मध्यप्रदेश में इस बार अलग स्थितियां
मध्यप्रदेश की सियासत को करीब से जानने और समझने वाले ये जानते हैं कि यहां राजनीति हमेशा दो दलीय ही रही है। मध्यप्रदेश में जब कांग्रेस युग था उस वक्त बीजेपी दूसरी बड़ी पार्टी थी और जब से बीजेपी सत्ता में काबिज हुई है तब से कांग्रेस दूसरी पार्टी रही है। ये दो दल ही मध्यप्रदेश की दशा और दिशा तय करते रहे हैं। बीच-बीच में कभी समाजवादी पार्टी और कभी बहुजन समाज पार्टी के बैनर से नेताओं ने जीत हासिल की है। और कभी-कभी गोंडवाना गणतंत्र पार्टी का नाम आता रहा है। कहने का मतलब ये कि छोटे-मोटे दल मध्यप्रदेश में रहे जरूर लेकिन कभी सुर्खी नहीं बन सके। गाहे बगाहे ये मौका मिला भी तो कभी सत्ता की दशा और दिशा तय नहीं कर सके। लेकिन इस बार स्थितियां अलग हैं।
बीजेपी-कांग्रेस की राह के रोड़े क्षेत्रीय दल
प्रदेश ही नहीं पूरे देश में बीजेपी पहले से कहीं ज्यादा दमदार है। कांग्रेस भी एक जीत के बाद एमपी में पूरे कॉन्फीडेंस से लबरेज है लेकिन इस बार उनकी हर राह में रोड़े हैं। ये रोड़े हैं क्षेत्रीय दल। जो कभी इतने ताकतवर और इतने ज्यादा चर्चाओं में कभी नहीं रहे जितना इस बार हैं। अगर ये कहा जाए कि ये दल हर अंचल पर अपनी मौजूदगी से असर डालेंगे तो ये भी गलत नहीं होगा। अंचलों के अलावा अलग-अलग किस्म के वोट बैंक भी इन क्षेत्रीय दलों से प्रभावित होंगे।
सही साबित हो रहा न्यूज स्ट्राइक का दावा
कुछ ही दिन पहले बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने एक कार्यक्रम में कहा था कि बीजेपी के विस्तार के साथ क्षेत्रीय दल खत्म होते जाएंगे। न्यूज स्ट्राइक में हमने बारीकी से अध्ययन करके ये दावा किया था कि क्षेत्रीय दलों के वजूद को खत्म करना आसान नहीं है। एमपी में न्यूज स्ट्राइक का दावा सही होते हुए भी नजर आ रहा है। मध्यप्रदेश में दोनों राष्ट्रीय दल जितने मजूबत हुए हैं। क्षेत्रीय दल भी उतनी ही तेजी से उनका गणित बिगाड़ रहे हैं। इस बार स्थितियां और भी ज्यादा खराब है। इन क्षेत्रीय दलों की वजह से बीजेपी और कांग्रेस के थिंक टैंक को ज्यादा सोचने पर मजबूर कर दिया है। माइक्रो लेवल पर जाकर रणनीति बनाने की मजबूरी का एक हिस्सा ये क्षेत्रीय दल भी हैं। जिनकी मौजूदगी किसी न किसी बड़े दल के आंकड़ों पर या वोट बैंक पर असर जरूर डालेगी और यही डर दोनों पार्टियों को नए सिरे से प्लानिंग करने पर मजबूर कर रहा है। मध्यप्रदेश में कांग्रेस और बीजेपी के अलावा कभी-कभी सपा और बसपा की धमक सुनाई देती थी। इस बार ये लिस्ट थोड़ी लंबी हो गई है।
- इस बार मध्यप्रदेश के चुनावी मैदान में जयस भी है जो आदिवासी वोटबैंक पर असर डाल रही है। असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी भी एक खास तबके को अपनी तरफ खींचने की तैयारी में है।
क्षेत्रीय दलों की मौजूदगी से वोट बैंक पर पड़ेगा असर
कांग्रेस बीजेपी माने या न माने, ये तय है कि जहां भी इन दलों की मौजूदगी होगी वहां किसी एक के वोट बैंक पर असर पड़ेगा। किसी एक दल को फायदा होगा और किसी एक दल का नुकसान भुगतना होगा। फिलहाल ये दावा नहीं किया जा सकता कि कौनसा क्षेत्रीय दल किसी राष्ट्रीय दल का गेम खराब करेगा। ये बड़े दलों की आने वाली रणनीति के आधार पर तय होगा। नए गठजोड़ और नए समीकरण भी अहम भूमिका निभाएंगे। मसलन जयस अब तक ये दावा करती रही कि वो कांग्रेस के साथ है। आगे क्या होता है ये कहा नहीं जा सकता। क्योंकि पिछले दिनों जयस प्रमुख ने ये ऐलान कर दिया कि वो प्रदेश की 80 सीटों पर उम्मीदवार उतारने जा रही है। जयस की तरह अगर गोंडवाना गणतंत्र पार्टी भी चुनावी मैदान में उतरती है तो सियासी समीकरण बदल जाएंगे।
बीजेपी का वोट बैंक छिटका तो कांग्रेस को होगा फायदा
प्रीतम लोधी के बहाने सियासी सीढ़ियां चढ़ रही सपा उत्तर प्रदेश से सटे मध्य प्रदेश के इलाकों में अच्छा प्रभाव दिखा सकती है और दलित वोट बैंक के लिहाज से इसका खामियाजा कांग्रेस को भुगतना पड़ सकता है। हालांकि लोधी की वजह से बने नए समीकरण हालात बदल सकते हैं। जो फिलहाल तो ये इशारा कर रहे हैं कि बीजेपी का साथ देने वाले लोधी वोटर्स इस बार नाराजगी जता सकते हैं। नाराज होकर वो कांग्रेस में भले ही न जाए लेकिन सपा का साथ देने से गुरेज नहीं करेंगे। इसी तरह यादव वोटर्स, ओबीसी और एससीएसटी वोटर्स को भी नया विकल्प मिल सकता है। बीजेपी का वोट बैंक छिटका तो कांग्रेस को फायदा होगा।
शहरी क्षेत्रों के वोट बैंक को प्रभावित कर सकते हैं क्षेत्रीय दल
इसी तरह आम आदमी पार्टी के प्रभाव को भी कम नहीं आंका जा सकता। नगरीय निकाय चुनाव में अपनी धमक दिखा चुका ये दल शहरी क्षेत्रों के वोट बैंक को प्रभावित कर सकता है। शहरी क्षेत्रों का अधिकांश वोट बैंक बीजेपी का माना जा सकता है। हालांकि राष्ट्रीय परिदृश्य पर आप को कांग्रेस का विकल्प भी कहा जा रहा है। ओवैसी की पार्टी भी मुस्लिम बहुल इलाकों में असर दिखा सकती है। वैसे एआईएमआईएम को बीजेपी की बी पार्टी करार दिया जाता रहा है। एमपी में भी ओवैसी की आमद का कुछ असर तो जरूर दिखाई देगा। कांग्रेस बीजेपी इन दलों के साथ हाथ मिलाएं या न मिलाएं। पर ये तय है कि इन दलों को नजरअंदाज करना दोनों के लिए आसान नहीं है।
2023 के चुनाव में हो सकता है उलटफेर
इन दलों की दस्तक और हर दिन हो रहे नए ऐलान ने बीजेपी-कांग्रेस की नींद तो उड़ा ही दी है। माइक्रो लेवल की प्लानिंग करने पर दोनों दलों को मजबूर कर दिया है। हालात ये हैं कि चुनाव चंद महीनों की दूरी पर हैं और बड़े दल अब तक छोटे दलों से निपटने की रणनीति बनाने में ही उलझे हुए हैं। क्योंकि इन दलों की मौजूदगी बड़ा चुनावी उलटफेर करेगी, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता। माना जा रहा है कि 50 सीटों पर बीजेपी और कांग्रेस के बीच नजदीकी मुकाबला हो सकता है। जहां हार-जीत का अंतर 1000-2000 तक रहने की संभावना है। इस स्थिति में स्थानीय दलों की भूमिका को कम करके नहीं आंका जा सकता है।