राजतंत्र की महारानी लोकतंत्र की राजमाता बन गईं, रानी रहने के बाद साध्वी सा जीवन बिता सबके दिलों में बस गईं थी

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Pratibha Rana
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राजतंत्र की महारानी लोकतंत्र की राजमाता बन गईं, रानी रहने के बाद साध्वी सा जीवन बिता सबके दिलों में बस गईं थी

देव श्रीमाली, GWALIOR. आज ( 25 जनवरी) को राजमाता विजयाराजे सिंधिया की 22वीं पुण्यतिथि है।  उनका निधन 25 जनवरी 2000 को हुआ था। वे देश के सबसे शक्तिशाली राजघरानो में से एक ग्वालियर के सिंधिया राज परिवार में बहू के रूप में आईं और फिर महारानी रहीं। जब देश आजाद हुआ, तब वे महारानी थी। महाराजा जीवाजी राव सिंधिया की रियासतें जाने के बाद राजनीति में आने में कोई रुचि नहीं थी और 1848 में जब सिंधिया स्टेट का विलय हो गया और उन्हें राज प्रमुख बना दिया गया तो उन्होंने नई लोकतांत्रिक सरकार को शपथ दिलाने के अलावा कोई काम नहीं किया। लेकिन तब महारानी की राजनीतिक सूझबूझ और प्रशासनिक क्षमता को देखकर उन्होंने उन्हें राजनीति में जाने को कहा और वे कांग्रेस की सक्रीय सदस्य बन गईं। 





वैभव,सत्ता और संघर्ष तो उनके रक्त में था 





यूं तो विजयाराजे सिंधिया बनने से पहले ही सत्ता, वैभव और संघर्ष तीनों ही उनके रक्त में समाहित हो चुके थे। वे भले ही मध्यप्रदेश के एक सरकारी बंगले में थी। उनका जन्म ननिहाल में हुआ। सागर के राणा परिवार में 12 अक्टूबर 1919 को ठाकुर महेंद्र सिंह और चूड़ा देवेश्वरी की बेटी के रूप में जन्म लेने वाली इस राजकुमारी का नाम मां ने रखा लेखा देवेश्वरी। लेकिन जब वे सिंधिया राज परिवार में ब्याहकर ग्वालियर आ गईं तो वे बन गईं महारानी विजयाराजे सिंधिया। हालांकि वे महारानी बनने से पहले भले ही सागर की कोठी नंबर पांच में रहती थी, लेकिन उनके रक्त में तो ब्लू ब्लड ही था। अर्थात राजसी रक्त। इसका जिक्र खुद उन्होंने अपनी आत्मकथा "राजपथ से लोकपथ " तक में किया। उन्होंने लिखा- मेरे नाना खड्ग शमशेर जंग बहादुर नेपाल के सर सेनापति थे। उनकी ही सल्तनत थी लेकिन पारिवारिक कलह ने राणाओं को आपस में एक दूसरे के खून का प्यासा बना दिया कि महज पैंतालीस साल में उन्हें नेपाल छोड़ना पड़ा। 





ननिहाल में हुई थी परवरिश





अंग्रेजी सरकार ने भारत मे उन्हें आश्रय देना तो स्वीकार कर लिया लेकिन नेपाल सरकार ने दो शर्तें डाल दीं। एक- उन्हें नेपाल से सटी सीमा पर स्थायी निवास नहीं मिलेगा और भारत मे बसे राणाओं से आपस में सम्पर्क नहीं करेंगे। दरअसल उन्हें भय था कि वे लोग फिर इकट्ठे होकर उन्हें सत्ता से बेदखल न कर दें। इसलिए अंग्रेजों ने उन्हें अपनी छावनी सागर में बसाया। यहां की सुरम्य पहाड़ियों के बीच उन्होंने महलनुमा छोटी हबेली बनवाई। हालांकि नेपाल में रहते राणा परिवार में महिलाओं को पढ़ाया ही नहीं जाता था, लेकिन इनकी मां चूड़ा देवेश्वरी की संगत अंग्रेज महिलाओं से होने के कारण वे पढ़ लिख गईं। उनका विवाह जालौन जिले के एक डिप्टी कलेक्टर ठाकुर महेंद्र सिंह के साथ हुआ, लेकिन यह विवाह ज्यादा दिन तक नहीं चला और वे लौटकर सागर आईं तो फिर कभी वापिस नहीं गईं। लेकिन तब तक उनके गर्भ में एक संतान पल रही थी। सागर के सिविल लाइन के बंगला नामक पांच में  12 अक्टूबर 1919 को एक बेहद खूबसूरत बेटी का जन्म हुआ और नाम रखा- लेखा दिव्येश्वरी। लेकिन इसके नौ दिन बाद ही उनकी मां का आकस्मिक देहांत हो गया। बेटी को ले जाने को लेकर विवाद भी हुआ, लेकिन आखिरकार लेखा दिव्येश्वरी की परवरिश ननिहाल में ही हुई।





ऐसे हुई ग्वालियर के महाराज से पहली मुलाकात





बात दिसंबर 1929 की है। नानी को पता चला कि दिल्ली में विमानों की फरवरी में बड़ी प्रदर्शनी लग रही हैं तो उनका दिल्ली जाने का प्रोग्राम बन गया। वे दिव्यलेखा को भी साथ लेकर अपनी ब्यूक सात सीटर मोटर गाड़ी से नौकर चाकरों सहित निकली। आत्मकथा में वे लिखती हैं- तड़के हम लोग सागर से निकले और दोपहर में ग्वालियर पहुंच गए। यहां हम लोग किंग जॉर्ज पार्क में आकर रुके जिसे अब गांधी उद्यान कहा जाता है। पीछे ही जयविलास प्रासाद था। तब मैं दस साल की थी। मेरे कानों में घोड़े की टाप सुनाई दी। मैंने देखा काले और सफेद दो घोड़े मेरी तरफ चले आ रहे हैं। इनमे से एक पर किशोर तो दूसरे पर किशोरी बैठी थी। साथ ही पीछे अश्वारोही दस्ता भी था। वे सामने से गुजरे और फिर झाड़ियों से होते हुए राज प्रासाद में जाकर ओझल हो गए। पूछने पर पता चला ये जीवाजी राव महाराज और उनकी बहिन कमलाराजे थीं। नानी के दिल मे वह बस गए। दिव्यलेखा ने 1937 में पहली बार अपने पिता को देखा। तब वे झांसी में रहते थे। बहरहाल कुछ लड़कों से रिश्ते की बात चली अंततः महाराज सिन्धिया से मुंबई के ताज होटल में मुलाकात हुई। 21 फरवरी को मराठा पध्दति से जीवाजी राव और दिव्यलेखा के विवाह की रस्म हुई और मैं महारानी विजयाराजे सिंधिया बन गईं।





लोकतंत्र की राजमाता 





देश आजाद होने के कुछ साल बाद ही पूर्व महाराज जीवाजी राव का लंबी बीमारी के चलते निधन हो गया और विजयाराजे महारानी से राजमाता बन गई। लेकिन अब वे लोकमाता बनने की ठान चुकीं थी। उन्होंने अपनी वेशभूषा अत्यंत साधारण कर ली। श्वेत वस्त्र धारण करना और भागवत भजन में अपने को समर्पित करते हुए सहज,उदार, ममता ममतामयी व्यवहार आए। उन्होंने ऐसे ओतप्रोत किया कि पक्ष हो या विपक्ष,नेता हो या आमजन उनका नाम कोई नहीं लेता था, बस लोग उन्हें राजमाता के नाम से संबोधन करते थे। 





माधवराव को बहुत चाहती थी लेकिन मलाल था कि साथ नहीं रह पाए





राजमाता अपने इकलौते बेटे माधव राव को बेहद प्यार करती थी। लेकिन दोनों के बीच गंभीर मतभेद हो गए और दोनों ने ज्यादातर जीवन अलग- अलग ही बिताया। जय विलास पैलेस में भी दोनों अलग-अलग रहते थे और आपस मे बातचीत के भी सम्बंध नहीं थे। वे गुस्सा और भावातिरेक में कभी-कभी माधव राव के खिलाफ कुछ बोल भी देती, लेकिन तत्काल आंखों से झर-झर आंसू बहाते हुए ये भी कहती- बेटा आप तो जानते हो कि भैया कितना भोला है। माधवराव को वे इसी नाम से पुकारतीं थी। यहां एक बात और उल्लेखनीय है कि माधव राव और राजमाता के बीच कितने भी मतभेद रहे हों माधवराव ने जीवनपर्यंत कभी उनके बारे में एक शब्द नहीं कहा। तब एक मैगजीन में राजमाता के एक इंटरव्यू छपा। उसमें माधव राव के बारे में उन्होंने काफी कुछ कहा। इसी में माधव राव का इंटरव्यू था, जिसमें उन्होंने बस इतना कहा - वे मां हैं, उन्हें सब कहने का अधिकार है। वे बड़ी हैं सब कह सकतीं हैं। मैं उनका बेटा हूं। क्या जबाव दूं।





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सौम्यता और सादगी की प्रतिमूर्ति थी





राजमाता अत्यंत सहज,भोली और ममतामयी थीं। वे अपरिचित ,अनजान और सामान्य से व्यक्ति से भी इतनी आत्मीयता से मिलकर घर परिवार की बातें करने लगती, मानो वे उसी के घर की हों और उनके इस व्यवहार का खामियाजा अनेक बार उनकी पार्टी को ही भुगतना पड़ता था। ऐसे ही एक वाकये का साक्षी मैं भी हूं । बात 1993 के चुनावों के बाद की है। एमपी में फिर से कांग्रेस की सरकार बन गई थी और दिग्विजय सिंह सीएम की शपथ भी ले चुके थे। लेकिन वे विधायक नहीं थे। दरअसल राघोगढ़ विधानसभा चुनावों का मामला कोर्ट में चला गया था सो स्थगन के चलते दिग्विजय सिंह चुनाव लड़कर विधायक नहीं बन सके। आखिरकार चाचौड़ा से उनके खास शिव नारायण मीणा ने त्यागपत्र दिया और जगह खाली की। चुनाव का ऐलान होने ही वाला था। प्रचार शुरू हो गया था। राजमाता को एक सामाजिक संस्था द्वारा बनवाए गए अस्पताल का भूमिपूजन के लिए बुलाया गया। इसमें सीएम दिग्विजय सिंह को भी आमंत्रित किया गया। मैं ग्वालियर से रिपोर्टिंग करने गया था। कार्यक्रम शुरू हो चुका था।  दिग्विजय सिंह नही पहुंचे। मैं भीड़ में पीछे खड़ा था। राजमाता का भाषण शुरू ही होने वाला था अचानक मुझे भीड़ में से चुपचाप मंच की तरफ जाते हुए दिग्विजय सिंह और उनकी पत्नी आशा सिंह दिखी। न तो कोई सुरक्षा न कोई तामझाम। किसी की उन पर निगाह भी नहीं थी। मैं भी पीछे पीछे हो लिया। वे बगल से अचानक मंच पर चढ़े और सपत्नीक राजमाता के चरणस्पर्श किया। राजमाता ने भावुक होकर कहा- विजयी भव:। मैंने सुन लिया। तब फैक्स होते थे। मैंने रात में जैसे-तेसे एक स्थानीय पत्रकार तोमर की मदद से फैक्स की दुकान खुलवाकर खबर भेजी। हेडिंग थी - राजमाता ने दिग्गी को विजयी भव:का आशीर्वाद दिया। सुबह अखबार बंटते ही सियासत में भूकंप मच गया। पूर्व सीएम सुंदर लाल पटवा और सरदार ने इसके बचाव में प्रेस कॉन्फ्रेंस की, लेकिन कांग्रेस वालों ने अखबार की फोटो कॉपी करवाकर गांव-गांव बंटवाई। इस तरह राजमाता के आशीर्वाद से बीजेपी के पूरे प्रचार अभियान की हवा निकाल दी।





लेकिन अगर ठान ले तो फिर विद्रोही हो जातीं थी





लेकिन राजमाता भले ही कितनी भी सहज,सरल थी लेकिन जब बात प्रतिष्ठा और आन बान शान की आ जाए तो वे एकदम विद्रोही मुद्रा में आ जाती थी। इसी भावना ने मां-बेटे के बीच की दूरियां बढ़ाईं, लेकिन इससे पहले उन्होंने राजनीति के चाणक्य कहे जाने वाले पंडित द्वारका प्रसाद मिश्र की सरकार ढहा थी। बात 1967 की थी। तब राजमाता कांग्रेस में थी और सरगुजा महाराज के घर पुलिस भेजने के मामले पर उनकी मिश्रा ने अनदेखी की तो उन्होंने प्रदेश की सरकार ही गिरा दी थी,लेकिन खुद कोई पद न लेकर गोविंद नारायण सिंह के नेतृत्व में फलिया बार गैर कांग्रेसी सरकार का गठन करवा दिया था।





पदलिप्सा से सदैव रहीं दूर





राजमाता को फिर तकालीन नेता नारायण कृष्ण शेजवलकर ने प्रयास कर जनसंघ में शामिल करा लिया। जनसंघ से लेकर बीजेपी को आज इस मुकाम पर लाने में उन्होंने सदैव तन,मन,धन से सहयोग किया, लेकिन कभी कोई पद न मांगा और न स्वीकारा। वे अनेक बार लोकसभा और राज्यसभा की सदस्य बनीं, लेकिन उन्होंने कभी भी मंत्री या मुख्यमंत्री बनने के बारे में कोई इच्छा प्रकट नहीं की बल्कि पार्टी ने उन्हें जो भी दायित्व सौंपा उसे मान अपमान भूलकर स्वीकार किया। 1980 में बीजेपी का गठन हुआ और पूरे उत्तर भारत मे चुनाव लड़ना तय किया गया। रायबरेली में इंदिरा गांधी के खिलाफ चुनाव लड़ने के लिए राजमाता से कहा गया। पराजय तय है यह जानते हुए वे तत्काल रवाना हो गईं। जबकि जैसे ही यह सूचना उनके बेटे माधवराव को लगी तो राजमाता से बोलचाल के संबंध न होते हुए भी वे अम्मा महाराज के इस निर्णय से बहुत क्रुद्ध हो गए और कार लेकर सीधे शेजवलकर के नई सड़क स्थित घर पहुंच गए। जैसे-तैसे उन्हे समझाकर वापिस भेजा गया। राजमाता चुनाव लड़ी और बुरी तरह हारी लेकिन उनके चेहरे पर इसका कोई मलाल नहीं रहा।





राजमाता ने सच ही लिखा था 





अपनी आत्मकथा की भूमिका में राजमाता ने बड़े ही आध्यात्मिक अंदाज में लिखा है - “एक दिन ये शरीर यहीं रह जाएगा, आत्मा जहं से आई है, वहीं चली जाएगी...शून्य से शून्य में। स्मृतियां रह जाएंगी। अपनी इन स्मृतियों को मैं उनके लिए छोड़ जाऊंगी, जिनसे मेरा सरोकार रहा है, जिनकी मैं सरोकार रही हूं। आज राजमाता जहां भी हैं, हमें देख रही हैं, हमें आशीर्वाद दे रही हैं। हम सभी लोग जिनका उनसे सरोकार रहा है, जिनकी वो सरोकार रही हैं। क्योंकि हर देशवासी उनका परिवार ही था। राजमाता जी कहती भी थीं- “मैं एक पुत्र की नहीं, मैं तो सहस्रों पुत्रों की माँ हूं, उनके प्रेम में आकंठ डूबी रहती हूं।



 



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