इटावा में जन्मी कांग्रेस को ग्वालियर की सिंधिया रियासत के इस पार काम करने की नहीं थी इजाजत, देश को आजादी मिली तब ही हो सका गठन

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Pratibha Rana
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इटावा में जन्मी कांग्रेस को ग्वालियर की सिंधिया रियासत के इस पार काम करने की नहीं थी इजाजत, देश को आजादी मिली तब ही हो सका गठन

देव श्रीमाली, GWALIOR. 1857 में अंग्रेजों को रानी लक्ष्मीबाई और राष्ट्रभक्तों से चुनौती मिली। हालांकि ब्रिटेनी हुकूमत ने पूरे इलाके में खून की नृशंस होली खेलकर इसे दबा दिया, लेकिन इस चुनौती ने अंग्रेजी हुकूमत को भयभीत कर दिया। इसके बाद भी अगले 2 साल तक अंग्रेजी क्रूरता के बावजूद राष्ट्रप्रेमी लोग उन्हें ललकारते रहे और जान लेकर भी अंग्रेजी सरकार भयभीत होती रही। बस इसी जज्बे और भय के बीच के टकराव के चलते चबंल और यमुना की कछार में एक अंग्रेज के दिमाग में कांग्रेस के गठन के विचार को जन्म मिला।



ऐसे हुआ कांग्रेस का जन्म



कांग्रेस पार्टी का आज 28 दिसंबर को जन्मदिन है। दरअसल 1857 की क्रांति के असफल हो जाने के बाद अंग्रेजी सेना पूरी तरह क्रूर होकर अमानवीयता का नंगा नाच करने लगी थी। कालपी से जिस रास्ते से रानी लक्ष्मीबाई का काफिला निकला, वहां के सैकड़ो युवाओं को सिर्फ शक के आधार पर फांसी पर लटकाया गया कि उन्होंने रानी को मदद की। सैकड़ो लोगों कर घर तोप लगाकर उड़वाये गए। ग्वालियर में सिंधिया के खजांची अमरचंद बांठिया को भी सराफा बाजार में भीड़ बुलाकर सार्वजनिक रूप से कई दिनों तक फांसी पर लटकाया गया। बावजूद बुंदेलखंड से लगे इलाकों में मिल रही छुटपुट चुनौती से अंग्रेज इस कदर भयभीत थे कि उन्होंने यमुना ,सिंध,चबंल,सिंध और पहुंज नदी के बीहड़ों में युवाओं का कत्लेआम शुरू कर दिया। जब यह सब चल रहा था तब चबंल के उस पार इटावा जिले के कलेक्टर एलन ऑक्टेवियन ह्यूम अर्थात ए ओ ह्यूम था। वह 4 फरवरी 1856 को जिले का कलेक्टर नियुक्त हुए। ये उस वक्त की बहुत बड़ी पोस्ट होती थी। उसने यहां अपनी फौज की क्रूरता भी देखी बल्कि हिस्सेदार भी रहा और इस उत्पीड़न के बावजूद संघर्ष पर आमादा लोगों की आंखों में तैरता विद्रोह का समंदर भी देखा। मूलतः पक्षी विशेषज्ञ ह्यूम समझ चुका था कि भय,उत्पीड़न,खौफ और बर्बरता से अब इस आग को नहीं दबाया जा सकता बल्कि भारत की जनता को प्रेम से विश्वास में लेने की योजनाबद्ध पहल शुरू करनी होगी। ऐसा नहीं हुआ तो बगावत की यह राख में दबी चिंगारी कभी भी शोला बनकर भड़क सकती है। उसने जन सुविधाएं मुहैया कराने की शुरुआत करने का निर्णय लिया और जिला मुख्यालय पर एक जिला चिकित्सालय का निर्माण कराया।  



ह्यूम ने की स्कूलों की स्थापना 



शिक्षा से लोगों को जोड़ने के लिए 32 स्कूलों की स्थापना की और इसमें बच्चे पढ़ने के लिए आएं इसके लिए उसने खुद गांव-गांव और बस्तियों में घूमकर लोगों को प्रेरित किया। इनमे विद्यार्थियों की संख्या 5683 तक पहुंच गई। इनमे दो कन्या विद्यालय भी थे, लेकिन तब बालिकाओं के स्कूल जाना तो दूर घर से निकलना भी मुनासिब नहीं समझा जाता था, नतीजतन इनमें छात्राओं की संख्या नगण्य ही रही। हालांकि अपने अड़ियल रुख के लिए जाने जाने वाले ह्यूम के क्रूरता के किस्से भी ग्वालियर से लेकर इटावा तक फैले कुंवारी,चबंल और यमुना के भरकों में खूब प्रचलित थे। जिस दिन ग्वालियर में रानी झांसी और अंग्रेजी सेना के बीच निर्णयक लड़ाई चल रही थी, तब ह्यूम ने वहां घेराबंदी कर रखी थी। तब विद्रोहियों ने उसे परिवार सहित खत्म करने की योजना बनाई थी। स्वाधीनता संग्राम के इतिहा लिखने वाले डॉ राम विद्रोही ने अपनी पुस्तक नई सुंबह में लिखा है कि 17 जून 1857 की रात वह गुप्त सूचना मिलने पर इतना घबरा गया कि महिलाओं के कपड़े पहनकर अपने परिवार के साथ बंगले से भागे और भिण्ड रोड पर स्थित ग्राम बढ़पुरा में पहुंच गए, जहां एक घर में जान बचाकर सात दिन तक छिपे रहे। 19 जून को अंग्रेजों ने रानी झांसी के प्राण लेकर फिर से ग्वालियर पर कब्जा कर लिया तभी ह्यूम इटावा लौटा। इसके बाद उसने अपने अधीन ग्रामों में रहने वाले अपने वफादार जागीरदार और जमीदारों की मदद से राजपूत रक्षक सेना बनाई जो प्रशासन से समन्वय का काम करती थी। 



ब्रिटिश सरकार हो गई आग बबूला



ह्यूम ने लोगों को कल्याण के जरिये ब्रिटिश प्रशासन से जोड़ने की कार्ययोजना और सफलतम प्रयोगों को लेकर एक रिपोर्ट तैयार करके ब्रिटिश सरकार के पास लंदन भेजी, लेकिन वह इसे देख खुश होने की जगह आग बबूला हो गई। ह्यूम को अपनी ही सरकार का कोपभाजन होना पड़ा। ह्यूम को उसकी सरकार विरोधी गतिविधियों के कारण पद से निलंबित कर जांच भी बिठा दी गई। हालांकि उसने लंदन जाकर अपने प्रयासों से जांच और निलंबन रद्द करवा लिया और फिर पूर्ववत इटावा ही बहैसियत कलेक्टर आ गया। 



रिटायरमेंट के बाद लंदन नहीं लौटा



ह्यूम 1882 में प्रशासनिक सेवा से रिटायर हो गया, लेकिन उसने लंदन न लौटने का निर्णय लिया। उसकी दिलचस्पी भारतीय मामलों में सदैव बनी रही। अपने रिटायरमेंट के तीन साल बाद उसने इंडियन नेशनल कांग्रेस नामक संस्था का गठन किया इसीलिए उन्हें कांग्रेस का संस्थापक अध्यक्ष कहा जाता है। उसने इस सामाजिक संस्था का पंजीयन 28 दिसंबर 1885 को हुआ इसलिए इसे ही इसका फाउंडर्स डे माना जाता है। 1912 में उसकी मृत्यु के बाद यह संस्था गोपाल कृष्ण गोखले के नियंत्रण में आ गई और फिर देश मे अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ बगावत का केंद्र।



देश भर में फैली लेकिन ग्वालियर चबंल से दूर रही



इटावा के कलेक्टर रहे ह्यूम ने कांग्रेस की नींव रखी और पूरे देश मे इसके बैनर तले ही स्वतंत्रता आंदोलन लड़ा लेकिन चौंकाने वाला किंतु सत्य तथ्य है कि महज 110 किलोमीटर दूर इस संस्था को प्रवेश की इजाजत नहीं थी। कमांडर अर्जुन सिंह ने अपनी आत्मकथा नींव के पत्थर में लिखा है कि चबंल के उस पार सिंधिया रियासत में कांग्रेस की गतिविधियां चलाने की इजाजत नहीं थी। वहां के स्वतंत्रता सैनानी अन्य संस्थाओं के नाम से सामन्तशाही के खिलाफ आंदोलन चलाते थे। 



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ग्वालियर में स्वतंत्रता आंदोलन के अग्रणी लोगों में रहे और महात्मा गांधी के साथ वर्धा आश्रम में कुछ समय बिताने वाले गांधीवादी कक्का डोंगर सिंह की आत्मकथा-महासमर के साक्षी में इसका उल्लेख बड़ी पीड़ा के साथ किया है। उन्होंने लिखा है-ग्वालियर रियासत में कांग्रेस का गठन नहीं हो सकता था क्योंकि तब ऊपर तय हुआ था कि अभी हम अंग्रेजों के खिलाफ एकजुट लड़ाई लड़े। देशी रियासतों में रहने वाले लोगों को स्वतंत्रता पश्चात उनका वाजिब हक मिलेगा। मैने दो बार गांधी से ग्वालियर आने का आग्रह किया। झांसी जाकर उनसे मिलकर विनय की लेकिन उन्होंने आमंत्रण अस्वीकार कर दिया। तब कहा गया कि अंग्रेजो के जाते ही राजा खुद सत्ता छोड़ भागेंगे। लेकिन आजादी के दीवानों को भला कहां चैन था। उन्होंने पहले डोंगर सिंह के नेतृत्व में कन्हैया लोकगीत के जरिए गांव-गांव अलख जगाई फिर थाटीपुर में अखाड़े के जरिए युवाओं को संगठित करने का प्रयास किया गया। इसके बाद अखिल भारतीय देशी राज्य प्रजा सभा का गठन किया गया। 17 दिसंबर 2927 को हुए अधिवेशन में सबसे पहले रियासत वाले क्षेत्रो में उत्तरदायी शासन की मांग उठी। 1936 के कराची अधिवेशन में पहुंचे पंडित जवाहर लाल नेहरू ने ये घोषणा तो की यदि स्वराज मिल जाता है तो रियासती जनता को भी उसमें हिस्सा मिलेगा, लेकिन इन क्षेत्रों में कांग्रेस की गतिविधियां चलाने की इजाजत नहीं मिली।



खंडवा में बनी नई संस्था



इस बीच 1932 मे खंडवा में एक नई संस्था सेंट्रल इंडिया पीपुल्स कांग्रेस के नाम से स्थापित हुई। गोविंद दास इसके अध्यक्ष बने इसके एक अधिवेशन की अध्यक्षता आचार्य नरेंद्र देव ने की। इसका एकमात्र लक्ष्य पूर्ण उत्तरदायी सरकार की स्थापना था। उधर ग्वालियर में ग्वालियर सार्वजनिक सभा की स्थापना की गई। मकसद वहीं था इसकी स्थापना उज्जैन में हुई क्योंकि इससे पहले टीडी पुस्तके,बाबू तखत मल जैन,जीपी पौराणिक,जगन्नाथ प्रसाद मिलिंद,श्यामलाल पांडवीय ,हरि कृष्ण जाधव भूता आदि ने मिलकर सिन्धिया सरकार को ग्वालियर राज्य प्रजा मंडल नाम की संस्था के पंजीयन के लिए आवेदन दिया था, लेकिन उसे सरकार ने स्वीकृत कर दिया था तो फिर उज्जैन में दूसरी संस्था रजिस्टर्ड कराई।



उत्तरदायी सरकार पर विवाद



जब आंदोलन गति पकड़ने लगा तो सिंधिया राज सरकार ने यहां लोगों के आक्रोश को शांत करने के लिए सत्ता में भागीदारी देने की पहल करते हुए उत्तरदायी सरकार के गठन करने का निर्णय लेते हुए सार्वजनिक सभा मे फूट डालने का प्रयास भी किया। बाबू तखत मल महाराज के मंत्रिपरिषद में शामिल हो गए। इससे उनके खिलाफ पूरे मध्यभारत में आक्रोश फूट पड़ा। मुरैना में परिषद की आपात बैठक हुई, जिसमें जैन के खिलाफ निंदा प्रस्ताव रखा गया लेकिन इस पर वोटिंग के पहले ही जैन ने मंत्री पद से इस्तीफा देकर माफी मांग ली।



नेहरू की यात्रा में कांग्रेस का नाम लेने पर रोक



कक्का डोंगर सिंह ने लिखा- स्वतंत्रता की घोषणा से पहले पंडित नेहरू ग्वालियर आए। वे राजबाड़े साहब के बंगले में ठहरे। वे देशी लोक परिषद के अधिवेशन में भाग लेने आये थे। मेला ग्राउंड में हुए अधिवेशन में राजाओं की संस्था नरेंद्र मंडल द्वारा उठाए गई मांगो पर विचार करना था। इसके अध्यक्ष शेख अब्दुल्ला थे। राजा महाराजा कह रहे थे कि उन्हें स्वतंत्र छोड़ दिया जाए। तमाम मनाही के बावजूद समारोह स्थल को कोंग्रेसमय कर दिया गया था। झंडे भी लहराए और नारे भी लगाए। 



इस वक्त यहां हुआ कांग्रेस और लोकतांत्रिक सरकार का गठन 



इसके बाद कम्पू अधिवेशन हुआ, जिसकी अध्यक्षता करने पट्टाभि सीतारमैया आये। इसके पहले निर्देश थे कि कोई गांधी जिन्दावाद का नारा नहीं लगाएगा, लेकिन किसी ने नहीं माना और जमकर नारे लगाए तो कुछ लोगों पर कार्रवाई भी हुई। इसी समय ग्वालियर स्टेट कांग्रेस गठन और तिरंगा के उपयोग की इजाजत देने का प्रस्ताव रखा गया, जिसे अस्वीकार कर दिया गया। यही वजह रही कि 15 अगस्त 1947 को जब पूरे देश मे तिरंगा फहराया गया लेकिन ग्वालियर रियासत में यह सम्भव नहीं था। यहां यह 1948 में मध्यभारत का गठन नहीं हुआ। उसके बाद ही यहां कांग्रेस का गठन हुआ और लोकतांत्रिक सरकार का भी।

 


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