BHOPAL. जिन छोटे दलों को बीजेपी नजरअंदाज करती रही वही छोटे दल अब बड़े हो गए हैं और बीजेपी की नींद उड़ा रहे हैं। जो आग इन दलों ने बुंदेलखंड और चंबल के क्षेत्रों में लगाई थी उसकी लपटें अब राजधानी तक पहुंचने लगी हैं। ये लपटें बीजेपी का किला जलाने के लिए तैयार नजर आती हैं, लेकिन इसकी आंच से कांग्रेस का झुलसना भी तय माना जा रहा है।
भीम आर्मी और जयस की दोस्ती से बीजेपी-कांग्रेस की उड़ी रंगत
मध्यप्रदेश में बीजेपी के निष्कासित नेता प्रीतम लोधी और भीम आर्मी चीफ चंद्रशेखर का दोस्ताना क्या रंग लाएगा। ये जानना है तो बीजेपी के कुछ नेताओं के चेहरे की उड़ी हुई रंगत और कांग्रेस के कुछ नेताओं के माथे पर खिंची चिंता की लकीरें देख लीजिए। कुछ समय पहले हुई बीजेपी की एक बैठक के बाद प्रदेशाध्यक्ष वीडी शर्मा ने कहा था कि जयस और भीम आर्मी जैसे संगठन बीजेपी के लिए कोई खतरा नहीं है, लेकिन उन पर नजर रखना हमारी जिम्मेदारी है। इस नजर से बीजेपी जरूर इन छोटे दलों का बड़ा और जबरदस्त शक्ति प्रदर्शन देख ही चुकी होगी। हाथ से हाथ जोड़ने का अभियान प्रदेशभर में भले ही कांग्रेस चला रही है, लेकिन एक दूसरे से हाथ जोड़ने में ये क्षेत्रीय दल उससे आगे निकल चुके हैं। भोपाल में भीम आर्मी के शक्ति प्रदर्शन में यही हाथ मजबूती से एक दूसरे के साथ नजर आए। जब प्रीतम लोधी और चंद्रशेखर आजाद एक साथ एक मंच पर दिखे।
इन छोटे दलों से बीजेपी नई रणनीति बनाने को मजबूर
पहले करणी सेना और उसके बाद अब भीम आर्मी। दोनों ने राजधानी भोपाल में इतना जबरदस्त शक्ति प्रदर्शन किया है कि बड़े दलों की नींद उड़ना लाजमी है। जो बीजेपी अब तक इन छोटे दलों को अपने सामने कुछ नहीं समझ रही थी, वही बीजेपी अब इन दलों की वजह से नई रणनीति बनाने पर मजबूर हो गई है। बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने ही एक बार ये दावा किया था कि बीजेपी जहां जाती है वहां क्षेत्रीय दल कमजोर होते जाते हैं, लेकिन मध्यप्रदेश में पार्टी का ये गणित उल्टा साबित हो रहा है। यहां पिछले 20 साल से बीजेपी का राज है। चुनावी साल में ही पार्टी को ये छोटे दल बड़ी चुनौती देते नजर आ रहे है। भोपाल में भीम आर्मी के आंदोलन में दलित, आदिवासी और पिछड़े वर्ग के मतदाता शामिल हुए। बीजेपी से निष्कासित नेता प्रीतम लोधी भी आंदोलन का हिस्सा बने और व्यापमं के व्हिसिल ब्लोअर डॉ. आनंद राय भी साथ में नजर आए।
मांगें पूरी न होने पर भीम आर्मी फिर बड़ा आंदोलन करेगी
इस आंदोलन में रखी गई मांगों की फेहरिस्त तो लंबी चौड़ी है, लेकिन मुख्य मांग आरक्षण की है। 52 फीसदी ओबीसी के लिए पूरे 52 फीसदी के आरक्षण की मांग है। जिसे लेकर आंदोलन तो हो चुका है इस आंदोलन के और भी आगे बढ़ने का ऐलान किया गया है। भीम आर्मी चीफ ने एक माह में मांगें पूरी न होने पर एक बार फिर बड़ा आंदोलन करने की चेतावनी दी है। इस आंदोलन में कितनी भीड़ शामिल हुई उसे लेकर दावे अलग-अलग हैं। प्रशासन से अनुमति सिर्फ बीस हजार लोगों की मिली थी, लेकिन भीम आर्मी के कुछ नेताओं का ये दावा भी है कि दो लाख से ज्यादा लोग आंदोलन का हिस्सा बने। ये दावा हकीकत में आधा भी सही है तो राजनीतिक दलों के लिए चिंता का कारण जरूर है।
छोटे दलों ने जानी आदिवासी और पिछड़ों में सरकार के प्रति बेरूखी
ये पहला मौका है जब मध्यप्रदेश में जातिवादी राजनीति पर आधारित इतने अलग-अलग दल सिर उठा रहे हैं। जयस तो पिछले चुनाव से ही ताल ठोंक चुकी है। इस बार भीम आर्मी, ओबीसी महासभा भी मैदान में उतरने की पूरी तैयारी में है। छोटे दल आदिवासी और पिछड़ों में सरकार के प्रति बेरूखी को भांप चुके हैं। जिस वजह से चुनावी मैदान में खलबली मचा रहे हैं। लोधी फैक्टर भी अब इन दलों के साथ जुड़ चुका है। कुल मिलाकर जिन सीटों पर दलित, आदिवासी और लोधी वोटर्स निर्णायक भूमिका अदा करते हैं उन सीटों पर ये छोटे दल बड़ा अंतर खड़ा कर सकते हैं। बस देखना ये है कि ये अंतर बीजेपी का गेम बिगाड़ता है या कांग्रेस की मुश्किलें बढ़ाता है।
भीम आर्मी साल 2016 में पहली बार सुर्खियों में आई
साल 2016 में सहारपुर के छुटमलपुर में स्थित एएचपी इंटर कॉलेज में दलित छात्रों की कथित पिटाई के बाद हुए विरोध प्रदर्शन के बाद पहली बार यह संगठन सुर्खियों में आया था। उसके बाद से भीम आर्मी लगातार दलित समाज में अपनी पकड़ मजबूत कर रही है। यूपी में भीम आर्मी का नाम जाना माना है, लेकिन मध्यप्रदेश की राजधानी में इतनी जोरदार धमक पहली बार ही सुनाई दी है। हालांकि, ग्वालियर चंबल और यूपी से सटे दूसरे इलाकों में भी भीम आर्मी दलित और पिछड़ों की आवाज बनती जा रही है। कुछ माह पहले मालवा में सुवासरा से मंदसौर तक 60 किमी लंबा रोड शो कर चुकी है और फिर एक सभा में ये ऐलान भी किया कि भीम आर्मी इस बार सभी सीटों पर उम्मीदवार उतारेगी। प्रीतम लोधी के साथ होने से भीम आर्मी को उन सीटों पर भी फायदा मिलेगा जहां जहां लोधी वोटर्स ज्यादा हैं।
पिछले चुनाव में बीजेपी को हार का मुंह भी इन्हीं तबकों की वजह से देखना पड़ा था
2011 की जनगणना के अनुसार-
- मध्य प्रदेश में सबसे अधिक आदिवासी रहते हैं।
बड़े आंदोलन के जरिए छोटे दलों ने अपनी मौजूदगी जाहिर की
2013 में मिली 31 एसटी सीटों के मुकाबले, साल 2018 में भाजपा ने सिर्फ 16 एसटी सीटें जीतीं थीं। एससी सीटों के मामले में, भाजपा ने 2013 में मिलीं 28 सीटों की तुलना में 2018 में सिर्फ 17 सीटें जीतीं थीं। आंकड़ों की बयानी साफ है। बीजेपी ने पिछले चुनाव में इन तबकों की वजह से हार का मुंह देखा। जिन्हें रिझाने के लिए माइक्रो लेवल की प्लानिंग समेत वाल्मीकि जयंती, जनजातीय गौरव दिवस जैसे दिन मनाने पर मजबूर है। मध्यप्रदेश का सियासी इतिहास इस बात का गवाह है कि यहां जातिगत राजनीति और छोटे दल कभी लंबे नहीं टिक पाए, लेकिन ये भी उतना ही सही है कि ऐसे दलों ने कभी इतने बड़े आंदोलन के जरिए अपनी मौजूदगी भी जाहिर नहीं की। जिससे निपटने के लिए बीजेपी रणनीति के तहत काम शुरू कर चुकी है, लेकिन इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि इन दलों की मौजूदगी से कांग्रेस को नुकसान नहीं पहुंचेगा।
बसपा की सक्रियता कम होने के बाद भीम आर्मी विकल्प हो सकती है!
साल 2013 में बीएसपी ने 6.42 प्रतिशत मत हासिल किए थे। उसके खाते में चार सीटें भी गईं थी। पिछले चुनाव में बीएसपी का मत प्रतिशत घटा और सीटें भी। उसे सिर्फ दो सीटों पर संतोष करना पड़ा। बसपा को सबसे ज्यादा ग्वालियर चंबल और विंध्य के ग्रामीण क्षेत्रों से वोट मिलते रहे हैं। बसपा की सक्रियता कम होने के बाद आया गैप भरने में भीम आर्मी अहम भूमिका निभा सकती है। ये भी हो सकता है कि भीम आर्मी उन सीटों पर भी दमदार परफोर्मेंस दिखा दे जहां लोधी फैक्टर हावी है। दोनों फैक्टर्स ने सही रंग जमाया और जयस का साथ भी मिला तो हो सकता है इस चुनावी साल के बाद विधानसभा में कुछ नए दलों के विधायकों के नाम भी सुनाई दें।