देव श्रीमाली, GWALIOR. ग्वालियर में स्थित मांढरे वाली माता की चर्चा न केवल देश बल्कि दुनिया मे भी होती है। इसकी वजह ये है कि वे सिंधिया राज परिवार की कुल देवी हैं। सिंधिया राज परिवार 147 साल से निरंतर यहां पूजा- अर्चना करने पहुंचता है। यह माता पहले महाराष्ट्र के सतारा में स्थापित थी और इन्हें सिंधिया शासक वहां से लेकर ग्वालियर आए थे। इनके ग्वालियर पहुंचने की कहानी न केवल रोमांचित करती है बल्कि इनकी शक्ति का भी संकेत देती है। महाराजा सिंधिया को मजबूर होकर इनको न केवल सतारा से ग्वालियर लाना पड़ा बल्कि अपने सेनापति को सेना के दायित्व से मुक्त करके पुजारी बनाकर देवी की सेवा में तैनात करना पड़ा और तब से उन्हीं का परिवार मां की सेवा कर रहा है।
महिषासुर मर्दनी का है मंदिर
ग्वालियर में कम्पू इलाके में मांढरे की माता का प्रसिद्ध मंदिर है। जब इसकी स्थापना की गई तब यह पहाड़ी और घने वन खंड का इलाका था। हालांकि अब इसके आसपास जयारोग्य चिकित्सालय, आयुर्वेद महाविद्यालय और रिसर्च सेंटर, गवाजराराजा मेडिकल कॉलेज और कैंसर हॉस्पीटल और घनी आबादी स्थित है। लेकिन पहाड़ी पर स्थित इस मंदिर में महिषासुर मर्दनी की जागृत प्रतिमा स्थित है। यहां हर नव रात्रि को विशाल मेला भरता है और देशभर से भक्त दर्शन और पूजा अर्चना करते हैं।
माता के नहीं भक्त के नाम पर पहला मंदिर
देशभर में मंदिरों की कमी नहीं है, लेकिन वे मंदिर वहां बिराजे भगवान के नाम से ही पहचाने जाते है। यह देश मे संभवतः इकलौता मंदिर होगा, जिसे उसके भक्त के नाम से पहचाना जाता है। ज्यादातर लोगों का यही अनुमान है कि ग्वालियर में मांढरे की माता का मंदिर है। आज भी कई लोग यही समझते है कि यह मांढरे नामक किन्ही देवी माता का मंदिर है, लेकिन यह सच नहीं है। यह मां महिषासुर मर्दनी देवी का मंदिर है और मांढरे परिवार के एक सदस्य की भक्ति के कारण ही बीते 147 साल से मंदिर को भक्त के नाम से ही पहचाना जाता है।
कैसे सतारा से ग्वालियर पहुंची मां
मांढरे की माता मंदिर अष्टभुजा महिषासुर मर्दनी रूपी माता की इस अद्भुत तेज वाली दिव्य देवी प्रतिमा के ग्वालियर पहुंचने की कहानी बड़ी ही रोमांचक है। बात लगभग 147 साल पुरानी है। दरअसल महाराष्ट्र के बायपास सतारा में मांढरे की माता का एक मंदिर था। इस मंदिर की पूजा आनंद राव मांढरे करते थे। सिंधिया राज परिवार मूलतः सतारा का ही रहने वाला है। उस वक्त ग्वालियर शहर के महाराज जयाजीराव सिंधिया अपनी सेना में अफसरों को भर्ती करने के सिलसिले में महाराष्ट्र गए। वहां से वह आनंद राव मांढरे को अपने साथ महल में ले आए और सेना में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सौंप दी। उन्हें कर्नल का ओहदा सौंपा जो सेनापति के ही समकक्ष था।
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माता बोली- या तो मेरे पास आ जा या मुझे अपने साथ ले चल
आनंद राव मांढरे के ग्वालियर आने के कुछ दिन बाद माता ने महाराज और आनंद राव मांढरे को सपने में दर्शन देना शुरू कर दिए और आने वाले खतरों से आगाह करने लगी। माता की चेतावनी सटीक बैठने लगी। एक बार माता ने आनंद राव मांढरे को सपने में कहा कि या तो तू मेरे पास महाराष्ट्र आजा या मुझे यहां से अपने पास ले चल। यह बात आनंद राव मांढरे ने महाराज को बताई। महाराज भी बड़े धार्मिक व्यक्ति थे, उन्होंने इस बात को गंभीरता से लिया। इसके बाद मांढरे की माता को सतारा गांव से ग्वालियर शहर लाने और यहां भव्य मंदिर में इनकी प्राण प्रतिष्ठा करने की योजना बनाई गई। इसी के साथ मंदिर के लिए जमीन की तलाश हुई और अंतत: महाराज को कम्पू पहाड़ी पर मंदिर के लिए जगह मिल गई। इसे अभी कैंसर पहाड़ी कहा जाता है। इसके बाद इस मंदिर में अष्टभुजा वाली महिषासुद मर्दिनी मां महाकाली की प्रतिमा को स्थापित किया गया।
महल से प्रतिदिन महाराज करते थे दर्शन
बताया जाता है कि इस मंदिर के लगभग आधा किलोमीटर दूर स्थित सिंधिया राज परिवार के शाही ज्यविलास पैलेस में महाराज ने माता के दर्शन करने के लिए अपने महल में एक खास झरोखा भी तैयार किया है। यहां से महाराज बिना नागा प्रतिदिन सपरिवार अपनी कुलदेवी के दर्शन किया करते थे।
सेनापति ही बने पुजारी
जयाजीराव सिंधिया ने आंनद राव मांढरे को उनकी इच्छा के मुताबिक सेना अधिकारियों की जिम्मेदारियों से मुक्त करके मांढरे की माता के मंदिर का पुजारी का जिम्मा सौंप दिया। उनके भरण पोषण और मंदिर की देखरेख के लिए मंदिर के नाम जमीन भी कर दी गई। मांढरे परिवार तभी से इस मंदिर में माता की सेवा में जुटा हुआ है। आनंद राव मांढरे के बाद उनके पुत्र रामराव मांढरे, अमृत राव मांढरे, बाबू राव मांढरे, मनीष राव मांढरे और वर्तमान में अशोक राव मांढरे द्वारा माता की पूजा की जा रही है। सिंधिया राज परिवार की कुलदेवी: अष्टभुजा वाली महाकाली मैया सिंधिया राजवंश की कुल देवी हैं। इस वंश के लोग जब भी कोई नया काम करते हैं तो मंदिर पर पूजा अर्चना कर कुलदेवी से इजाजत लेने जरूर आते हैं। साढ़े तेरह बीघा भूमि विरासतकाल में इस मंदिर को राजवंश द्वारा प्रदान की गई थी। मंदिर की हर बुनियादी जरूरत को सिंधिया वंश द्वारा आज भी पूरा किया जाता है।