BHOPAL. इस बार जब प्रत्याशी विंध्य के मतदाता के पास वोट मांगने जाएंगे तब विंध्य जरूर पूरे हक से ये सवाल पूछेगा कि हम आपको वोट क्यों दें। 2018 में बीजेपी से हर अंचल ने दगा किया, लेकिन विंध्य ने पूरी वफादारी निभाई। पर, बीजेपी से विंध्य को क्या मिला। विंध्य ने फिर नाराजगी जताई, नगरीय निकाय चुनाव में कांग्रेस की तरफ हाथ बढ़ाया, लेकिन हाथ से हाथ जोड़ने की जगह कांग्रेस ने विंध्य को क्या दिया। बीजेपी तो गाहे बगाहे विंध्य में बड़े आयोजन करती नजर आ भी जाती है लेकिन कांग्रेस की तो फिलहाल विंध्य के लिए कोई रणनीति ही नजर नहीं आती।
विंध्य में बीजेपी के अंदर अनदेखी एक बड़ा मसला है
विधानसभा चुनाव में विंध्य ने बीजेपी का भरपूर साथ दिया तो नगरीय निकाय चुनाव में ये जता भी दिया कि उसकी अनदेखी हुई तो वो कांग्रेस के पाले में भी जा सकता है और गया भी। इसके बाद से बीजेपी की पुरजोर कोशिश है कि वो विंध्य की कम से कम उतनी ही सीटें हासिल कर सके जितनी 2018 में मिली थी। बावजूद इसके कि अपनी अनदेखी से विंध्य के कई बड़े नेता नाराज हैं। दूसरे अंचलों के मुकाबले विंध्य में महाराज बीजेपी और असली बीजेपी की लड़ाई नहीं है, लेकिन अनदेखी एक बड़ा मसला है। दूसरी तरफ नारायण त्रिपाठी सरीखे विधायक हैं जो पृथक विंध्य प्रदेश की मांग कर पार्टी का टेंशन बढ़ाते रहते हैं। उनकी देखादेखी कुछ और विधायक उनके सुर में सुर मिलाने लगे हैं।
विंध्य के दो उपचुनाव में बीजेपी-कांग्रेस दोनों का हिसाब बराबर रहा
नगरीय निकाय चुनाव के नतीजों को देखकर लगा था कि बीजेपी की कमजोर होती पकड़ का फायदा उठाने में कांग्रेस पीछे नहीं रहेगी, लेकिन रफ्तार पकड़ना तो दूर कांग्रेस का तो वहां कोई खास मूवमेंट तक नजर नहीं आया है। इतना ही नहीं कभी पार्टी के कद्दावर नेता रहे अजय सिंह ही वहां साइड लाइन नजर आते हैं। उनके अलावा कांग्रेस के पास फिलहाल कोई प्रॉमिसिंग चेहरा दिखाई नहीं देता। पिछले चुनाव में भाजपा को यहां 30 में से 24 सीटें मिली थीं। दो उपचुनाव हुए उसमें अनूपपुर में बीजेपी ने कांग्रेस की सीट छीनी तो रैगांव में कांग्रेस ने। यानी कि हिसाब बराबर।
विंध्य को आंकने में दोनों दलों ने कुछ कुछ गलती की है
अगर ये कहें कि विंध्य को आंकने में दोनों दलों ने कुछ कुछ गलती की है तो कुछ गलत नहीं होगा। हालांकि, समय रहते बीजेपी डैमेज कंट्रोल में जुटी नजर आती है। अलग-अलग आयोजनों के बहाने विंध्य की जनता को लुभाने का प्रयास जारी है, लेकिन कैबिनेट में जगह न मिलने के घाव पर कैसे मल्हम लगा पाएगी बीजेपी। कांग्रेस के लिए तो संकट और बड़ा है। फिलहाल कांग्रेस के पास कोई ऐसा चेहरा नजर नहीं आता जिस पर बड़ा दांव खेला जा सके। इतने कम समय में आउट ऑफ द ब्लू कोई चेहरा जोर दिखा जाए तो बात अलग है, लेकिन राजनीति में हर बार चमत्कार के भरोसे नहीं रहा जा सकता। वैसे भी नगरीय निकाय चुनाव में जो चमत्कारी परिणाम मिले थे कांग्रेस उन्हें खास कैश करा पाए, ये आसार भी नजर नहीं आ रहे हैं।
बीजेपी ने राजेन्द्र शुक्ल को पोस्टर बॉय बनाया फिर हाशिए में डाल दिया
नगरीय निकाय के चुनावों में भाजपा को विंध्य के सभी जिला मुख्यालयों में मुंह की खानी पड़ी। सतना नगर निगम का मेयर पद कांग्रेस के बागी सईद अहमद की बदौलत मिला। रीवा, सिंगरौली नगर निगम से हारी ही। सीधी, शहडोल, उमरिया जैसे जिले हाथ से निकल गए। जिला पंचायतों के सदस्यों में भी कांग्रेस का ही बहुमत रहा। नगरीय निकाय और पंचायतों के चुनाव के जरिए विंध्य के मतदाता ने बीजेपी से अपनी नाराजगी जाहिर की। इससे पहले बीजेपी से विंध्य ने दोस्ती भी खूब निभाई। लेकिन 2020 में जब बीजेपी की सरकार बनी तो विंध्य के लोग आस लगाए बैठे थे कि इस क्षेत्र को प्रभावशाली प्रतिनिधित्व मिलेगा, लेकिन नहीं मिला। बीजेपी ने जिन राजेन्द्र शुक्ल को अपना पोस्टर बॉय बनाकर पूरे विंध्य में दौड़ाया उन्हें सत्ता में आने के बाद हाशिए में डाल दिया। पहले मीना सिंह को फिर बिसाहू लाल को कैबिनेट में रखा, रामखेलावन को राज्यमंत्री बनाया, लेकिन ये तीनों नेता अपनी विधानसभा से बाहर ही नहीं निकल सके।
गिरीश गौतम के बेटे घर की पंचायत में ही उलझकर रह गए
गिरीश गौतम को स्पीकर बनाकर ब्राह्मण वर्ग को साधने की कोशिश की पर उनका हाल यह रहा कि उन्होंने अपने उत्तराधिकारी बेटे को ही स्थापित करने में पूरी ऊर्जा खपा दी। बेटे राहुल को स्थापित तो नहीं कर पाए उल्टे घर की पंचायत में ही उलझकर रह गए। यहां के लोग उन्हें श्रीनिवास तिवारी की तरह ताकवर व प्रभावशाली बनने की अपेक्षा कर रहे थे, लेकिन उनकी राजनीति देवतलाब क्षेत्र के गांवों के नाली-नर्दे और अनुदान राशि के बंटवारे में उलझकर रह गई। रही सही कसर नारायण त्रिपाठी पूरी करते रहे। जो मैहर के दायरे लांघकर पूरे विंध्य में घूमते हुए नए प्रदेश की मांग कर रहे हैं। कुछ असंतुष्ट या नजरअंदाज चल रहे नेताओं का उन्हें साथ मिल भी जाता है। इस मांग का खामियाजा भी बीजेपी को भुगतना पड़ सकता है।
विंध्य में कांग्रेस के पास एक ही बड़ा नाम अजय सिंह वे भी हाशिए पर
बीजेपी ने सत्ता में आने के बाद भी विंध्य को कम दिया तो कांग्रेस ने भी नगरीय निकाय चुनाव के नतीजों के बाद जनता की नब्ज थामने में देर कर दी। कांग्रेस अध्यक्ष होने के नाते कमलनाथ को इस क्षेत्र पर जितना फोकस रखना चाहिए था, उतना वो रखती नजर नहीं आ रही। जिस क्षेत्र में कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया हो उस इलाके में मुख्यमंत्री रहते हुए कमलनाथ महज दो बार आए, लेकिन वो आयोजन भी कांग्रेस के माइनस प्वाइंट ही बढ़ा कर गए। कांग्रेस के पास इस क्षेत्र में एक ही बड़ा नाम है अजय सिंह उन्हें भी अलग-अलग आयोजनों में हाशिए पर ही रखा गया। चुरहट से वे भले ही चुनाव हार गए हों, लेकिन अभी भी उनके पीछे खड़े होने वाले समर्थकों की संख्या अन्य से ज्यादा है। सांगठनिक तौर पर कांग्रेस का काम रीवा में अपेक्षाकृत बेहतर रहा। अनुभवी संगठक पूर्व सांसद प्रतापभानु शर्मा ने यहां कांग्रेस की मुर्दानगी काफी हद तक दूर की है, लेकिन मुश्किल यह कि भाजपा नेताओं के मुकाबले बड़े चेहरे अब शेष नहीं बचे। इस बार प्रत्याशियों को लेकर भी जुएं जैसा दांव खेलना होगा।
विंध्य के मामले में बीजेपी कोताही नहीं बरत रही है
विंध्य की नाराजगी भांप चुकी बीजेपी अब इस क्षेत्र में कोई कोताही नहीं बरत रही है। जनवरी में शहडोल में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू की सभा, 24 फरवरी को सतना में शबरी जयंती पर कोल महाकुंभ में केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह का आना, रीवा-सीधी के बीच विश्वस्तरीय टनल का लोकार्पण, विंध्य क्षेत्र में 6 नेशनल हाइवेज और एयरपोर्ट की सौगात सब यही जताता है कि बीजेपी विंध्य को हाथ से निकलने नहीं देना चाहती।
विंध्य के लिए कांग्रेस ने कोई रणनीति स्पष्ट नहीं की
मौके तो कांग्रेस के पास भी हैं। कांग्रेस चाहे तो युवाओं और छात्रों के आक्रोश को भुनाने का काम कर सकती है। यहां के बच्चे करियर ओरिएंटेड हैं। रोजगार के नए वादे और पुरानी कमियां गिना सकती थी। बीजेपी में विंध्य की अनदेखी को मुद्दा बना सकती थी। इसके अलावा स्थानीय मुद्दों पर भी बात की जा सकती थी, लेकिन कांग्रेस ने यहां के लिए कोई रणनीति स्पष्ट नहीं की है।
कांग्रेस जहां थी वहीं के वहीं नजर आती है, जबकि नगरीय निकाय चुनाव की चोट के बाद बीजेपी संभल चुकी है
कांग्रेस और बीजेपी दोनों के हाथों मायूस हुआ विंध्य अपनी ताकत दिखा चुका है तो ये भी जता चुका है कि वो सिर आंखों पर बिठाने में पीछे नहीं है तो नाराजगी जताने में भी कम नहीं है। इन परिस्थितियों में आज ही चुनाव हो जाएं तो शायद कांग्रेस और बीजेपी के पलड़े बराबर ही होंगे। आठ महीनों में उसी का वजन ज्यादा होगा जिसकी चुनावी प्लानिंग में दम होगा।