कांग्रेस का दावा एमपी में जीतेंगे 150 सीटें, जानिए राहुल गांधी के इस दावे की जमीनी हकीकत और क्या है कांग्रेस के लिए चुनौतियां

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कांग्रेस का दावा एमपी में जीतेंगे 150 सीटें, जानिए राहुल गांधी के इस दावे की जमीनी हकीकत और क्या है कांग्रेस के लिए चुनौतियां

BHOPAL. 29 मई को 24 अकबर रोड स्थित कांग्रेस मुख्यालय में मध्य प्रदेश के नेताओं से मुलाकात के बाद राहुल गांधी ने बड़ा दावा किया। मीडिया से बात करते हुए राहुल ने कहा कि कांग्रेस पार्टी एमपी में 150 सीटों पर जीत दर्ज कर सरकार बनाएगी। आपको बता दें कि एमपी में विधानसभा की कुल 230 सीटें हैं। राज्य में इसी साल के आखिर में विधानसभा चुनाव होना है। राहुल के दावे पर मध्य प्रदेश के मुखिया शिवराज सिंह चौहान ने तंज कसते हुए कहा है कि कांग्रेस ख्याली पुलाव पका रही है। कभी राहुल गांधी के करीबी मित्र रहे ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भी इस पर चुटकी ली है। सिंधिया ने कहा कि- कांग्रेस की यही कठिनाई है कि बैठक दिल्ली में, बयान दिल्ली में और बात मध्य प्रदेश की। मध्य प्रदेश की जनता गुहार लगा रही है आपसे कि दिल्ली बहुत दूर है।



आखिर क्या है एमपी की कहानी



हाल ही में कर्नाटक जीत के बाद कांग्रेस का सबसे अधिक फोकस एमपी पर है। एमपी में भी कर्नाटक की ही तरह ऑपरेशन लोटस चलाकर सरकार गिराई थी। ऐसे में कांग्रेस नेता राहुल के दावों के कई मायने निकाले जा रहे हैं। मध्य प्रदेश को लेकर राहुल गांधी के इस दावे को राजनीतिक विश्लेषक माइंड गेम पॉलिटिक्स भी बता रहे हैं। आइए हम आपको बताते हैं कि इस दावे में कितनी सच्चाई है और क्या-क्या चुनौतियां हैं। एमपी के 53 जिलों की 230 विधानसभा सीटों को राजनीतिक विश्लेषक 6 जोन में बांटते हैं। इन्हें महाकौशल, विंध्य, ग्वालियर-चंबल, बुंदेलखंड, मालवा-निमाड़,भोपाल-नर्मदापुर। इन सभी 6 जोन के इर्द-गिर्द ही कांग्रेस और बीजेपी की रणनीति घूमती है। इन इलाकों के लोकल चेहरे, जातिगत समीकरण और मुद्दों के साथ-साथ पिछले चुनाव के परिणामों को देखते हुए ही इस बात को कहा जा रहा है कि कांग्रेस के दावे में दम है या नहीं लेकिन चुनौतियां कम कतई नहीं है। हम आपको बता रहे हैं एक-एक इलाके की तस्वीर...



कमलनाथ का गढ़ महाकौशल



महाकौशल के हिस्से में 8 जिले आते हैं। इनमें जबलपुर, कटनी, डिंडौरी, मंडला, नरसिंहपुर, बालाघाट, सिवनी और छिंदवाड़ा हैं, जिसमें विधानसभा की कुल 38 सीटें आती हैं। कमलनाथ छिंदवाड़ा से आते हैं इसलिए इस इलाके को उनका गढ़ भी कहा जाता है। 2018 के चुनाव में कांग्रेस ने यहां पर बीजेपी को बड़ा झटका दिया था। इस इलाके की 24 सीटें कांग्रेस की झोली में गिरी थी।बीजेपी को 13 और अन्य को यहां 1 सीटें मिली थी। यह परिणाम 2013 के बिल्कुल उलट था क्योंकि 2013 में बीजेपी को 24, कांग्रेस को 13 और अन्य को 1 सीटों पर जीत नसीब हुई थी। महाकौशल के 38 में से 11 सीटें आदिवासियों के लिए आरक्षित है, जबकि 3 सीटें दलितों के लिए है। यानी महाकौशल में आदिवासी वोटबैंक काफी ज्यादा प्रभावशाली है। इसी प्रभाव को साधने के लिए बीजेपी के चाणक्य कहे जाने वाले अमित शाह खुद छिंदवाड़ा से बीजेपी के लिए चुनावी बिगुल फूंक चुके हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी इस बार महाकौशल में सियासी घेराबंदी में जुटा हुआ है। हाल ही में संघ ने महाकौशल के प्रांत प्रचार की जिम्मेदारी ब्रजकांत को दी है। 2022 में मोहन भागवत भी यहां संघ कार्यकर्ताओं से मिल चुके हैं। कांग्रेस के सामने 24 सीटें बचाने की चुनौती है। कांग्रेस के लिए जबलपुर, कटनी, डिंडौरी, बालाघाट में अच्छे उम्मीदवारों की तलाश करना आसान नहीं होगा।



ग्वालियर-चंबल में महाराज और बीजेपी है चुनौती



ग्वालियर-चंबल में ग्वालियर, शिवपुरी, गुना, दतिया, अशोकनगर, भिंड, श्योपुर और मुरैना जिले की 34 सीटें आती हैं। यहां की सियासत में दो महत्वपूर्ण फैक्टर है- पहला है महल और दूसरा दलित वोटर्स। ग्वालियर-चंबल में 2018 तक कांग्रेस और बीजेपी दोनों की मजबूती की वजह सिंधिया राजघराना था। 2018 में ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस में थे और यहां कांग्रेस ने अपनी श्रेष्ठ प्रदर्शन किया था। कांग्रेस को दलित वोट भी जमकर मिले थे। जिसके चलते ग्वालियर-चंबल में कांग्रेस को 34 में से 25 सीटों पर जीत मिली थी। सिर्फ 8 सीटें बीजेपी को मिली। कांग्रेस के पास इस बार यहां सिंधिया फैक्टर नहीं है, 2020 में सिंधिया अपने साथ करीब 20 विधायक भी ले गए थे। कांग्रेस ने ग्वालियर-चंबल में बीजेपी को मात देने के लिए कई स्तर पर तैयारी की है। पूर्व सीएम दिग्विजय सिंह, पूर्व नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह और वर्तमान नेता प्रतिपक्ष गोविंद सिंह को कमलनाथ ने इस इलाके की जिम्मेदारी सौंपी है। हालांकि, इन नेताओं के लिए सिंधिया का किला जितनी आसान नहीं होगा। कांग्रेस के सामने सिंधिया के मुकाबले मजबूत और तेजतर्रार लोकल लीडर की कमी है। साथ ही सिंधिया के साथ विधायकों के चले जाने की वजह से पिछली बार की तरह मजबूत कैंडिडेट भी कांग्रेस के पास नहीं है। चुनाव से एक साल पहले से ही सिंधिया अपने प्रभाव वाले इलाके में एक्टिव हैं और अपने समर्थकों के लिए जनसभा कर रहे हैं। कुल मिलाकर इस बार कांग्रेस के लिए ग्वालियर-चंबल संभाग में डबल चुनौती है।



मालवा-निमाड़ में जयस देगी चुनौती



2018 में कांग्रेस और बीजेपी के बीच मालवा-निमाड़ में टक्कर का मुकाबला रहा। पिछली बार जयस नेता हीरालाल अलावा कांग्रेस के टिकट पर लड़े थे। और जयस को केवल एक सीट मिली थी लेकिन इस बार जयस किसके साथ जाएगा ये बड़ा सवाल है। जयस इस बार मालवा-निमाड़ में कई सीटों पर दावेदारी जता रही है। कांग्रेस को इस बार इस इलाके से बेहतर रिजल्ट की उम्मीद है। वजह है- राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा। हालांकि, कई अन्य फैक्टर्स की वजह से कांग्रेस की राह में रोड़े भी कम नहीं है। मालवा-निमाड़ संभाग में नीमच, मंदसौर, आगर-मालवा, रतलाम, उज्जैन, शाजपुर, देवास, इंदौर, खंडवा, धार, झाबुआ, बुरहानपुर, खरगोन, अलीराजपुर और बड़वानी की 66 सीटें आती हैं। पिछले चुनाव में मालवा के कई जिलों में कांग्रेस बेहतरीन परफॉर्मेंस नहीं कर पाई। वहीं निमाड़ में बीजेपी फिसड्डी साबित हुई। 2018 में मालवा-निमाड़ की 66 में से 35 सीटें जीतने में कांग्रेस कामयाब हुई थी। 28 पर बीजेपी और सीटों पर निर्दलीय उम्मीदवारों ने जीत दर्ज की थी। कांग्रेस ने मालवा-निमाड़ जीतने के लिए जीतू पटवारी, अरुण यादव, सुरेंद्र सिंह (शेरा) और कांतिलाल भूरिया जैसे नेताओं को मैदान में उतारा है, लेकिन ये नेता अब तक अपने क्षेत्र को छोड़कर बेहतर परफॉर्मेंस देने में नाकाम साबित हुए हैं। कांग्रेस ने किसानों को साधने के लिए मालवा में ही भारत जोड़ो यात्रा निकाली थी। राहुल की यात्रा 6 जिलों की 14 विधानसभा सीटों से होकर गुजरी थी। इनमें से अधिकांश सीटों पर पिछले चुनाव में बीजेपी ने जीत हासिल की थी। कांग्रेस की इन रणनीतियों के बावजूद यहां जीत-हार में बड़ा अंतर शायद ही देखने को मिले।



विंध्य में चेहरे की कमी, तीसरी पार्टी का भरोसा



विंध्य में जातिगत समीकरण हमेशा से हावी रहा है। यहां की राजनीति ठाकुर और ब्राह्मण वोटरों के ईर्द-गिर्द घूमती है। राजपूत कांग्रेस और ब्राह्मण बीजेपी के कोर वोटर्स माने जाते हैं। अर्जुन सिंह के वक्त विंध्य पर कांग्रेस का एकक्षत्र राज था, लेकिन 2008 के बाद बीजेपी ने जबरदस्त सेंध लगाई। 2013 और 2018 में भी यहां बीजेपी का दबदबा रहा। 2018 में बीजेपी ने क्लीन स्विप ही कर लिया। वर्तमान में कांग्रेस के पास सभी 30 सीटों के लिए जिताऊ उम्मीदवारों की भी भारी कमी है। 2018 में कांग्रेस के कई बड़े चेहरे विंध्य में चुनाव हार गए थे। इनमें अजय सिंह और राजेंद्र सिंह जैसे दिग्गज नेता शामिल थे। 2018 में कांग्रेस विंध्य के 30 में से सिर्फ 5 सीटों पर जीत दर्ज कर पाई। इसके मुकाबले बीजेपी ने 24 सीटों पर जीत हासिल की थी। विंध्य में कांग्रेस को इस बार प्रदर्शन सुधरने की उम्मीद है। इतना ही नहीं, खुद की परफॉर्मेंस से ज्यादा बीजेपी के बागी विधायक नारायण त्रिपाठी की नई पार्टी से कांग्रेस को ज्यादा उम्मीद है। त्रिपाठी ने विंध्य प्रदेश की मांग को लेकर बीजेपी से बगावत करते हुए अलग पार्टी बनाई है। त्रिपाठी विंध्य के सभी सीटों पर चुनाव लड़ने की घोषणा कर चुके हैं। त्रिपाठी अगर बीजेपी के वोट काटने में सफल हो जाते हैं तो कांग्रेस को इसका निश्चित तौर पर फायदा मिलेगा। हाल ही में रीवा में पीएम नरेंद्र मोदी का कार्यक्रम हुआ था। आने वाले वक्त में मोदी की और भी कई रैलियां कराने की तैयारी है। पुराने नाराज नेताओं को भी मनाने का दौर शुरू हो गया है। कुल मिलाकर विंध्य की लड़ाई भी कांग्रेस के लिए एकतरफा नहीं होने वाली है।



बुंदेलखंड में कांग्रेस पर भारी है आस्था



बुंदेलखंड में इस बार हवा बदलती नजर आ रही है, इसका कारण है आस्था फैक्टर। छतरपुर का बागेश्वर धाम सरकार पिछले कुछ महीनों से बुंदेलखंड के साथ-साथ पूरे देश में जबरदस्त सुर्खियां बटोर रहा हैं। बागेश्वर बाबा के कार्यक्रम में बीजेपी के बड़े-बड़े नेता शामिल हो रहे हैं। कार्यक्रम में बागेश्वर धाम के सरकार धीरेंद्र शास्त्री हिंदुत्व के मुद्दे पर मुखर होकर बयानबाजी करते हैं। राजनीतिक जानकारों का कहना है कि मध्य प्रदेश चुनाव में बागेश्वर सरकार का रोल अहम रहने वाला है। बुंदेलखंड में विधानसभा की कुल 26 सीटें हैं और 2018 में कांग्रेस सिर्फ 7 सीट जीतने में सफल हो पाई थी। बीजेपी को 17 सीटों पर जीत मिली थी। बीजेपी इस बार क्लीन स्विप के मूड नजर आ रही है। बीजेपी के इश मास्टर स्ट्रोक की कांग्रेस के पास न तो कोई काट है और न कोई वैकल्पिक उपाय है। हालांकि कांग्रेस कमलनाथ को हनुमान भक्त बताकर हवा बदलने की कोशिश कर रही है लेकिन जानकारों का मानना है कि बागेश्वर के सामने कमलनाथ की चलने वाली नहीं है।



नर्मदांचल दिग्गी का रोल दमदार



भोपाल-नर्मदांचल में कांग्रेस के दिग्गज नेता और पूर्व सीएम दिग्विजय सिंह पर दारोमदार टिका हुआ है। इस इलाके में विधानसभा की कुल 36 सीटें हैं, जिसमें से 16 सीटों पर कांग्रेस ने 2018 में जीत हासिल की थी। पिछले चुनाव की तरह इस बार भी यहां नर्मदा में रेत उत्खनन का मुद्दा गर्माया हुआ है। दिग्गी की नर्मदा यात्रा की वजह से कांग्रेस को सफलता मिली थी। इस बार भी नर्मदांचल और भोपाल की सीटों का जिम्मा दिग्विजय सिंह के पास ही है। राजधानी भोपाल की 4 सीटों पर कांग्रेस कभी हक नहीं जता पाई है। नर्मदापुरम में भी पार्टी की यही स्थिति है। इन इलाकों में शिवराज सिंह काफी सक्रिय है। दिग्गी अगर पिछली बार की तरह करिश्मा करने में कामयाब रहते है तो यहां सीटों की संख्या बढ़ भी सकती है। बीजेपी 2018 में 10 हजार से कम वोटों से हारी हुई सीट पर अलग रणनीति तैयार कर रही है।भोपाल-नर्मदांचल में भी मुकाबला आमने-सामने का ही होने की संभावनाएं है। 



RSS थामेगा पतवार, कांग्रेस के लिए चुनौतियां अपार 



इन सभी कारणों के चलते कांग्रेस के लिए कहना मुश्किल नहीं होगा कि कांग्रेस के दावे में दम है या फिर कांग्रेस को अपने दावे को पूरा करने में कई चुनौतियों का सामना कर पड़ेगा। क्योंकि वर्तमान हालातों को देखते हुए बीजेपी और RSS भी पूरे प्रदेश में अपनी सांगठनिक पकड़ के चलते गेम पलटने की पुरजोर कोशिश करेगा। ऐसे में कांग्रेस के लिए चुनौतियां अपार है।


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