कहां हैं नेताजी में... आज बात करेंगे ऐसा नेता की। जो अपनी ही पार्टी का दमदार नेता भी रहा। फिर लगातार उपेक्षाओं का शिकार भी हुआ। कई मौके ऐसे भी आए जब टिकट की दावेदारी तक छोड़कर कदम पीछे लेने पड़े। कभी-कभी खुलकर अपनी ही पार्टी के खिलाफ नाराजगी भी जताई। इसके बाद भी अपनी पार्टी के साथ डटकर खड़ा रहा। पर, अब हाल ये हैं कि चुनाव नजदीक आते हैं तो कुछ बयान और राजनीति में एक्टिव नजर आता है।
अरूण यादव को विरासत में मिली सियासत
बदलते सियासी माहौल के साथ क्या ये नेता भी अब ये उम्मीद खो चुका है कि बहुत कुछ बदलने वाला है। खासतौर से तब जब पार्टी ने अपने ही नेतृत्व में बड़ा बदलाव कर दिया हो। हम आज आपसे जिस नेता की बात कर रहे हैं, वो नेता हैं अरूण यादव। मध्यप्रदेश की राजनीत में जब-जब पुराने, दिग्गज नेताओं की बात होगी अरूण यादव के नाम का जिक्र जरूर होगा। अरूण यादव को सियासत अपने पिता से विरासत में मिली। बता दें कि वो मध्यप्रदेश के उपमुख्यमंत्री रहे सुभाष चंद्र यादव के बेटे हैं। अपने पिता की सियासी विरासत को आगे बढ़ाने के साथ ही अरूण यादव ने अपनी एक अलग पहचान भी बनाई। उनके पुराने कार्यकाल को याद करें तो वो ज्यादातर सौम्य छवि वाले नेता ही दिखाई देंगे। जो पार्टी के बड़े नेता हैं, लेकिन कभी दिग्विजय सिंह या कमलनाथ की तरह गुट नहीं बना सके।
कांग्रेस का ग्राफ तेजी से गिरा
साल 2020 के बाद से मध्यप्रदेश में कांग्रेस का ग्राफ तेजी से गिरा है। न सिर्फ प्रदेश बल्कि देश में भी वही हालात रहे। जिस पर बहुत से कांग्रेस नेताओं ने नाराजगी जताई। अरूण यादव भी उन्हीं में से एक नेता रहे। जो वैसे तो शांत किस्म की राजनीति करते हैं, लेकिन 2020 के बाद से उनके तेवर अपनी ही पार्टी के लिए तल्ख हो रहे हैं। ये तल्खी भी बेवजह नहीं है। असल में लगातार मिल रही उपेक्षा, गुटबाजी और कांग्रेस के बुरे हाल को देखते हुए तकरीबन हर पुराना नेता इसी नाराजगी का शिकार है। अरुण यादव भी उन्हें में से एक हैं। कांग्रेस के कुछ नेताओं ने जब अपनी ही पार्टी के खिलाफ नाराजगी जताई और बागी तेवर दिखाए थे। उसके बाद से मौके बेमौके अरूण यादव भी नाराजगी जताते रहे, लेकिन दो साल पहले हुई एक सभा में उनके बागी तेवर खुलकर सामने आए थे। ये सभा हुई थी खलघाट में।
रैली और यादव परिवार का इतिहास पुराना
खलघाट में अरूण यादव और उनके भाई सचिन यादव ने एक साथ एक रैली की। जिसे यादव ब्रदर्स के शक्ति प्रदर्शन से जोड़कर भी देखा गया था। इस रैली का और यादव परिवार का इतिहास पुराना रहा है। असल में जब अरूण यादव के पिता सुभाष यादव को लगा कि वो अपनी ही पार्टी में अनदेखी का शिकार हो रहे हैं। तब उन्होंने भी खलघाट में ही रैली की थी। सुभाष यादव हमेशा ही अपने आक्रमक रवैये के लिए पहचान रखते रहे हैं। अरूण यादव ने उनसे अलग छवि बनाई। पर, जब उपेक्षा का घड़ा इतना भर गया कि पानी नाक के लेवल तक पहुंच गया, तब अरूण यादव भी अपने पिता के ही नक्शेकदम पर चलने को तैयार हो गए थे।
अरूण यादव उपेक्षा के शिकार
ये तेवर अख्तियार करना भी कोई मजबूरी ही रही होगी। वर्ना तो अरूण यादव कांग्रेस के निष्ठावान लीडर्स में ही गिने जाते हैं। वो पहली बार साल 2007 में खरगोन से लोकसभा उपचुनाव जीतकर संसद में पहुंचे। 2009 में उन्होंने खंडवा सीट से बीजेपी के बड़े नेता नंदकुमार सिंह चौहान को हराया। यूपीए सरकार के दूसरे कार्यकाल वो मंत्री भी रहे और फिर मध्यप्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष भी बने। 2018 में पार्टी के ही इशारे पर उन्होंने बुधनी विधानसभा सीट से शिवराज सिंह चौहान को टक्कर भी दी। इस चुनाव में उन्हें हार मिली और उस के बाद से पार्टी में वो लगातार पीछे धकेले जा रहे हैं। इसमें केंद्रीय नेतृत्व की मंशा कम बल्कि, राज्य के नेताओं की मंशा ज्यादा नजर आती है। कमलनाथ के कमान संभालने के बाद से ही अरूण यादव उपेक्षा का शिकार होने लगे थे।
कमलनाथ नहीं चाहते थे अरूण चुनाव लड़ें!
करीब तीन साल पहले हुए खंडवा लोकसभा उपचुनाव से पहले अरुण यादव को उम्मीद थी कि उन्हें टिकट मिल जाएगा। लेकिन फिर उन्होंने खुद ही अपनी दावेदारी से कदम पीछे ले लिया। ये अटकलें लगाई गईं कि कमलनाथ के नेतृत्व में वो लगातार उपेक्षित महसूस कर रहे हैं। खुद कमलनाथ नहीं चाहते कि वो चुनाव लड़ें। इसलिए यादव ने पारिवारिक कारण बताते हुए अपना नाम वापस ले लिया है। पर, इसे उनकी नाराजगी के रूप में देखा गया। इसके कुछ ही दिन बाद अरूण यादव ने एक ट्वीट किया। जिसमें उन्होंने उत्तरप्रदेश के पीसीसी चीफ का वीडियो शेयर किया और लिखा कि सारे प्रदेश अध्यक्ष इसी तरह सक्रिय हो जाएं तो राज्य में कांग्रेस की सरकार बनने से कोई नहीं रोक सकता। उनके ट्वीट को कमलनाथ की तरफ ही इशारा माना गया।
2023 में अरूण यादव को मिली तवज्जो
साल 2023 के चुनाव से पहले पार्टी स्तर पर जरूर अरूण यादव को तवज्जो दी गई। टिकट के नाम फाइनल करने से पहले जिन नेताओं से दिल्ली में रायशुमारी की गई। उनमें अरुण यादव भी एक थे। हालांकि पार्टी को उस चुनाव में भी करारी हार मिली। जिसके बाद मध्यप्रदेश में सिरे से नेतृत्व को बदल दिया गया और, अब ये उम्मीद कम ही है कि अरूण यादव या उनके दौर के नेताओं को अग्रिम पंक्ति की जिम्मेदारियां सौंपी जा सकती हैं। फिलहाल अरूण यादव जीतू पटवारी की टीम का हिस्सा बनाए गए हैं। हालांकि, वो कमेटी की पहली ही बैठक में नहीं पहुंचे।
अरूण को दरकिनार करना आसान नहीं
लाख नाराजगी या तल्खी के बावजूद अरूण यादव को दरकिनार करना कमलनाथ या जीतू पटवारी दोनों के लिए आसान नहीं है। उसकी वजह है यादव और ओबीसी समुदाय में उनकी अच्छी पकड़ होना। वैसे भी मालवा में कांग्रेस के पास उनके सरीखा बड़ा नेता नहीं है। इसलिए अरूण यादव पसंद हों या न हों मजबूरी जरूरी है। लाख सौम्य छवि वाले नेता हों लेकिन अपने कार्यकर्ताओं के बीच गहरी पकड़ रखते हैं। और, अब भी किसानों से जुड़े मुद्दे उठाने में पीछे नहीं रहते। अक्टूबर में भी वो किसानों के बीच सोयाबीन की एसएसपी से जुड़े मांग के संबंध में चर्चा करते देखे गए। लेकिन अब प्रदेश स्तर पर उनकी सक्रियता पहले जितनी नजर नहीं आती।
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