News Strike : मध्यप्रदेश में कांग्रेस कर क्या रही है। आप अगर इसी प्रदेश के बाशिंदे हैं तो जरा याद करके बताइए लोगों से जुड़ी समस्या पर विपक्ष के तौर पर आपने कब कांग्रेस को बड़ा प्रदर्शन, आंदोलन या मार्च करते हुए देखा था। क्या पुराने चेहरों को पीछे कर राहुल गांधी ने नए और युवा चेहरे के हाथ में कमान सिर्फ इसलिए सौंपी थी कि वो अपनी कमेटी के नंबर गेम में ही उलझकर रह जाएं और कांग्रेस का कहीं नामोशान तक सुनाई न दे। मध्यप्रदेश में कुछ ही दिन में दो सीटों पर विधानसभा उपचुनाव भी होने हैं, लेकिन ऐसी कोई हुंकार सुनाई नहीं दे रही जो ये यकीन दिलाए कि कम से कम एक सीट ही जीतने के लिए कांग्रेस ने पूरी ताकत झौंक दी है।
मोहन यादव के सीएम बनने के बाद पहला उपचुनाव
कहने को ये जीतू पटवारी का कड़ा इम्तिहान है। न सिर्फ जीतू पटवारी बल्कि, सीएम मोहन यादव की भी ये अग्निपरीक्षा है। मोहन यादव के सीएम बनने के बाद पहली बार उपचुनाव हो रहे हैं। उनकी कोशिश होगी कि वो दोनों ही सीटें जीतें। जीतू पटवारी के भी कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद पहली बार उपचुनाव हो रहे हैं। दोनों न सही वो कम से कम अपनी टीम के साथ मिलकर वो एक सीट बचाने की कोशिश तो कर ही सकते हैं, जो उनकी अपनी सीट है।
बुदनी पूर्व सीएम शिवराज सिंह चौहान का गढ़ है
ये भी मान लेते हैं कि मोहन यादव सीएम है और बीजेपी की सत्ता काबिज हुए बीस साल बीत गए। ऐसे में मशीनरी की मदद भी पार्टी को मिल सकती है, लेकिन इस बात को भी तो नजरअंदाज नहीं कर सकते कि विजयपुर में कांग्रेस का वोटबैंक काफी मजबूत है। राम निवास रावत भी कांग्रेस के टिकट से ही जीतते रहे हैं और बीजेपी को तो सबोटेज का भी डर है। क्या फिर भी कांग्रेस ने जीत के लिए जतन जारी रखे हैं। हालांकि, यहां राजस्थान के उपमुख्यमंत्री रहे सचिन पायलट की सभा जरूर हुई है, लेकिन जीत के कॉफिडेंस से लबरेज नेता दिखाई नहीं दे रहे हैं और बुदनी की तो क्या ही बात की जाए। बुधनी में जीत की संभावना बेहद कम कही जा सकती है। इसलिए क्योंकि ये क्षेत्र पूर्व सीएम शिवराज सिंह चौहान का गढ़ है और बीते कई सालों से बीजेपी के लिए सेफ सीट भी है। बुदनी विधानसभा सीट ही नहीं पूरी लोकसभा सीट ही बीजेपी के लिए सेफ है। बुदनी सीट विदिशा संसदीय क्षेत्र के तहत आता है। जहां से लड़कर अटल बिहारी बाजपेयी और सुषमा स्वराज भी लोकसभा पहुंचे। इस लिहाज से कहा जा सकता है कि ये क्षेत्र बीजेपी का मजबूत गढ़ है। इसलिए यहां बीजेपी के ही जीतने की गुंजाइश ज्यादा है, लेकिन हद तो तब हो गई जब शिवराज की ही एक सभा में दीपक जोशी ने वापस बीजेपी का दामन थाम लिया।
दल बदल की वजह से गुस्सा और असंतोष बीजेपी में भी
ये करीब एक साल पहले की ही बात है जब दीपक जोशी अपने पिता कैलाश जोशी की तस्वीर हाथ में लेकर बीजेपी से कांग्रेस में शामिल हो गए थे। आपको बता दूं कि कैलाश जोशी मध्यप्रदेश के सीएम रहे हैं और दीपक जोशी शिवराज सरकार में मंत्री रह चुके हैं। दल बदल से नाराज दीपक जोशी ने पूरे इमोशनल ड्रामे के साथ कांग्रेस का दामन थामा था। हालांकि, वो चुनाव में जीत नहीं सके। तब नाराजगी की वजह शिवराज सरकार ही थी और अब दीपक जोशी ने बुदनी की एक सभा में शिवराज सिंह चौहान की मौजूदगी में ही बीजेपी का दामन थाम लिया है। सवाल ये है कि जिसे इतने जोरशोर से कांग्रेस का हिस्सा बनाया, उस नेता को कांग्रेस संभाल क्यों नहीं सकी। आखिर दल बदल की वजह से गुस्सा और असंतोष तो बीजेपी में भी है। हर चुनाव से पहले अंदरूनी विरोध और भीतरघात का डर बीजेपी को भी सताता है, लेकिन बीजेपी इन परिस्थितियों से आसानी से पार पा रही है।
क्वालिटी से ज्यादा क्वांटिटी के फेर में उलझे पटवारी
अब बात कर लेते हैं कांग्रेस की नई कार्यकारिणी की। जीतू पटवारी ने अध्यक्ष का पद संभालने के करीब दस महीने बाद अपनी टीम का ऐलान किया। उस पर इतना विवाद हुआ कि जीतू पटवारी खुद अपनी ही बनाई हुई टीम को बदलने या बढ़ाने पर मजबूर हो गए। लेकिन उसके बाद भी काम चौखा नहीं हुआ। फैसलों की इम्मैच्योरिटी इसी बात से समझिए कि जो विधायक का चुनाव हारे वो सचिव बने और जो पार्षद का हारे वो महासचिव बना दिए गए। क्वालिटी से ज्यादा क्वांटिटी के फेर में उलझे पटवारी ने टीम तो बड़ी बना ली पर बहुत सी टेक्निकल बातों को नजर अंदाज कर गए। मसलन विधायकों को भी कार्यकारिणी में स्थान दिया गया है। पर ये नहीं सोचा गया कि वो विधायक अपने नाम के आगे कौन सा पद यूज करेगा। वो खुद को विधायक की बजाए प्रदेश महासचिव या उपाध्यक्ष लिखेगा क्या।
जीतू पटवारी की कार्यकारिणी में दिग्विजय सिंह का प्रभाव
इस फैसले से भी पार्टी के दूसरे कार्यकर्ता जो कई सालों से पूरी निष्ठा से कांग्रेस का साथ निभा रहे हैं, उन में निराशा का माहौल है। गलती सिर्फ पटवारी की ही नहीं है। जिन नेताओं के साए से उभरकर कांग्रेस को नए कलेवर में नजर आना था। वही असल में हो नहीं सका है। जीतू पटवारी की कार्यकारिणी इसकी एक मिसाल है। जिसमें दिग्विजय सिंह का प्रभाव साफ नजर आ रहा है। खबर है कि दिग्विजय सिंह ने अपने बेटे जयवर्धन सिंह को कार्यकारिणी में लाने के लिए बाकी विधायकों की भी बतौर पदाधिकारी एंट्री करवा दी। ऐसा ही तब भी हुआ था जब कमलनाथ की सरकार बनी थी। तब दूसरी बार विधायक बने बेटे को कैबीनेट दर्जा दिलवाने के लिए दिग्विजय सिंह ने अपने प्रभाव से सबको कैबिनेट मंत्री ही बनवाया था। राज्यमंत्री बनाए ही नहीं गए थे।
कांग्रेस की अगस्त क्रांति के बाद से पार्टी में शांति है
यही गुटबाजी और नेताओं का स्वार्थ क्या कांग्रेस का दुश्मन बन गया है। आपको याद होगा कि अगस्त में आलाकमान से निर्देश मिले थे कि जनता से जुड़े छोटे से छोटे मुद्दे को उठाया जाए। उस महीने को कांग्रेस ने अगस्त क्रांति ही नाम दिया था। अगस्त में कुछ क्रांति हुई भी, लेकिन उसके बाद से पार्टी में घनघोर शांति पसरी हुई है। शांति क्या उसे सन्नाटा कहना ज्यादा बेहतर होगा। ऐसा नहीं है कि सामाजिक सरोकार या जनता से जुड़े मुद्दे अब प्रदेश में बचे ही नहीं हैं। मुद्दे तो हैं। सरकार से शिकायतें भी हैं। असल में ऐसा विपक्ष अभी नहीं बन सका है जो उन मुद्दों को पुरजोर तरीके से उठा सके। उपचुनाव तो होने हैं होकर निकल जाएंगे। नतीजे चाहें जो भी रहें, वो बाद की बात है, लेकिन कांग्रेस का जो हाल अभी है वही रहा तो डर है कि कहीं चार साल बाद होने वाले विधानसभा में भी यही नतीजे न रहें जो अभी दिखाई दे रहे हैं।
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