क्या जीतू पटवारी बतौर पीसीसी चीफ खुद को साबित करने में नाकाम रहे हैं। ऐसे एक नहीं बहुत से कारण हैं जिनकी वजह से ये सवाल उठने लगे हैं। पटवारी भले ही इस पद पर नए नवेले हों, लेकिन कांग्रेस की राजनीति में रचे पगे नेता हैं। वो पार्टी के अंदर की राजनीति को भी खूब समझते हैं और प्रदेश की सियासत भी भलीभांति वाकिफ हैं। पक्ष हो या विपक्ष दोनों ही दलों के नेताओं से उनके संबंध भी खास हैं और सियासी एग्रेशन में तो उनका कोई जवाब ही नहीं है। फिर भला क्यों वो लगातार पिछड़ रहे हैं। इस बार प्रदेश प्रभारी भंवर जितेंद्र सिंह भी उन पर भारी पड़े हैं।
जीतू पटवारी की कार्यशैली पर ही सवाल उठने लगे हैं
जीतू पटवारी को प्रदेशाध्यक्ष का पद संभाले करीब आठ महीने का वक्त हो चुका है। इन आठ महीनों में आठ उपल्बधियां हासिल करना तो दूर की बात जीतू पटवारी चार या दो भी दर्ज नहीं करवा सके हैं। सबसे पहले तो वो पीसीसी का गठन ही नहीं कर सके हैं। जिसकी वजह से उनकी कार्यशैली और डिसीजन मेकिंग पर ही सवाल उठने लगे हैं। इसकी वजह दिल्ली दरबार का दखल हो सकता है। जब तक दिल्ली से हरी झंडी नहीं मिलेगी शायद जीतू पटवारी अपने फैसले पर आगे न बढ़ सकें। ये हम पहले भी न्यूज स्ट्राइक में ही बता चुके हैं। दिल्ली का दखल क्यों और कैसे हो रहा है। ये जानने के लिए आप वो एपिसोड देख सकते हैं।
गर्भकाल …मोहन यादव सरकार के नौ माह और आपका आंकलन…
कैसी रही सरकार की दशा और दिशा…
आप भी बताएं मोहन कौन सी तान बजाएं….
इस लिंक पर क्लिक करके जानें सबकुछ…
https://thesootr.com/state/madhya-pradesh/cm-mohan-yadav-garbhkal-the-sootr-survey-6952867
जीतू की लिस्ट पर आलाकमान भी फैसला नहीं कर पा रहा
इस लोकसभा चुनाव के बाद ये साफ हो चुका है कि कांग्रेस में भी बीजेपी की तर्ज पर सारे फैसले दिल्ली में बैठे आलाकमान की मर्जी से ही होंगे, लेकिन आलकमान को कंविंस करने की जिम्मेदारी भी जीतू पटवारी की है। लिहाजा वो अपनी जिम्मेदारी से आसानी से नहीं बच सकते। उनकी कार्यशैली एक बार फिर सवालों के घेरे में इसलिए है क्योंकि वो अब तक पीसीसी की मजबूती के लिए कोई अहम फैसला न कर सके हैं न करवा सके हैं, जबकि प्रदेश प्रभारी भंवर जितेंद्र सिंह अपनी नई टीम बना चुके हैं। उन्होंने सचिवों की नियुक्ति कर दी है और उनकी तैनाती के जिले भी तय कर दिए हैं। कहने का मतलब ये कि कौन सा सचिव किस जिले की कमान संभालने वाला है ये प्रभार भी आवंटित हो चुके हैं, जबकि जीतू पटवारी के लिए अटकले हैं कि उनकी बनाई लिस्ट पर खुद आलाकमान कोई फैसला नहीं कर पा रहे हैं। वो कई बार दिल्ली दरबार के चक्कर लगा चुके हैं, लेकिन कोई पेंच अटकता है और लिस्ट खारिज हो जाती है। दूसरी तरफ भंवर जितेंद्र सिंह ने न सिर्फ सचिवों को प्रभार दे दिया है बल्कि, उन्हें सांस लेने का मौका भी नहीं दिया है। सभी सचिव अपने-अपने जिलों की जानकारी लाने में और वहां कांग्रेस के हालात पर रिपोर्ट तैयार करने में जुट गए हैं। सचिवों को जिलों में संगठन को एक्टिव करना है और उसकी रिपोर्ट लगातार प्रभारी महासचिव के साथ शेयर करना है। इस बीच पीसीसी में न ऐसे कोई सदस्य बन सके हैं तो जिम्मेदारी का बंटवारा हो पाना दूर की बात है।
गुटबाजी के कारण कई बड़े नेता कांग्रेस से चले गए
जीतू पटवारी पर इल्जाम ये भी है कि वो कांग्रेस की गुटबाजी पर लगाम कसने में और समन्वय बनाने में नाकाम रहे। उन पर लगातार बड़े नेताओं का दबाव बताया जा रहा है। जो उन पर अपने खास लोगों को पीसीसी की कार्यकारिणी में जगह देने का दबाव बना रहे हैं। पटवारी इस दबाव से बचने की कोई जुगत नहीं जमा सके। उल्टा इसका शिकार नजर आते हैं क्योंकि कांग्रेस के ही कुछ नेता ऐसे भी हैं जो पटवारी के खिलाफ खुलेआम बयानबाजी भी कर चुके हैं। इसलिए संगठन में समन्वय बनाए रखना पटवारी के लिए टेढ़ी खीर साबित हो रहा है। इसका एक पहलू और भी है कांग्रेस आज से नहीं 2003 से ही लगातार कमजोर हो रही है। बीच में पार्टी ने थोड़ा दम मारा और सरकार भी बनाई, लेकिन गुटबाजी का आलम ये रहा कि ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे नेता ने पार्टी से तौबा कर ली। जिसके बाद से कांग्रेस और कमजोर हो गई है।
गुटबाजी की कमी के लिए सिर्फ जीतू ही जिम्मेदार नहीं
पटवारी के सामने चुनौती आज की नहीं दो दशक पुरानी है। उस पर गुटबाजी और तालमेल की कमी तो बनी ही हुई है। इसके लिए सिर्फ जीतू पटवारी को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता, लेकिन ये भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि अपने आठ माह के कार्यकाल में पटवारी कोई बड़ा तीर नहीं मार सके। लोकसभा चुनाव में कांग्रेस अब तक का सबसे कमजोर परफोर्मेंस दे चुकी है और तो और सबसे कमजोर हालात में पहुंच भी चुकी है। इसमें भी कोई दो राय नहीं कि बीजेपी इतनी मजबूत है कि उसके मुकाबले सिर्फ पटवारी को खड़ा कर देना उनके साथ इंसाफ नहीं होगा, लेकिन तब से अब तक पटवारी ने संगठन को कसने और कांग्रेस को मजबूत करने में क्या कदम उठाए। इस सवाल का भी कोई जवाब नहीं है।
तीन सीटों पर होने वाले उपचुनाव फिर परीक्षा की घड़ी हैं
अब पटवारी के सामने एक बार फिर परीक्षा की घड़ी है। प्रदेश में तीन सीटों पर फिर उपचुनाव होने है। इन चुनावों में एक सीट विजयपुर की सीट है जहां से राम निवास रावत बीजेपी प्रत्याशी बन चुके हैं। साथ ही मंत्री भी बनाए जा चुके हैं। इस सीट पर प्लस प्वाइंट ये है कि ये कांग्रेस की ही सीट रही है। इसके अलावा बुधनी और बीना में भी उपचुनाव है। बुधनी पर तो आंख बंद करके बीजेपी की जीत तय मानी जा रही है, लेकिन बीना का वोटर ढुलमुल वोटर है। वो कब किसकी तरफ होगा ये कहना आसान नहीं है। इसलिए विजयपुर और बीना सीट पर कांग्रेस का फैसला ही ये तय करेगा कि वो जीत के कितने नजदीक पहुंच पाती है। विजयपुर में कांग्रेस को ऐसे प्रत्याशी की तलाश है जो कभी उनके विधायक रहे राम निवास रावत को टक्कर दे सके और बीना में भी प्रत्याशी की तलाश जारी है। इन तीन में से अगर एक सीट भी कांग्रेस अपने खाते में ले आती है तो इस जीतू पटवारी की बड़ी जीत के रूप में देखा जाएगा। हो सकता है कि आलाकमान ने पटवारी को लंबी मोहलत दी हो, लेकिन प्रदेश संगठन की कसौटी पर खरा उतरने और कार्यकर्ताओं का भरोसा जीतने के लिए ये पटवारी की बड़ी अग्निपरीक्षा होगी।
हमारे न्यूज़लेटर की सदस्यता लें! विशेष ऑफ़र और नवीनतम समाचार प्राप्त करने वाले पहले व्यक्ति बनें