News Strike : मध्यप्रदेश में लगता है दलबदलुओं के दिन अब लद चुके हैं। दल बदलकर लाभ कमाने वाले नेताओं में शायद राम निवास रावत ऐसे आखिरी नेता थे जिन्हें पार्टी बदलने से फायदा मिला है। लोकसभा चुनाव के आसपास अचानक दल बदलने वाले नेताओं को अपने इस कारनामे का अब तक कोई सिला नहीं मिला है। एक विधायक का हाल तो कुछ ऐसा है कि उन्हें न खुदा ही मिला न विसाल-ए-सनम न इधर के हुए न उधर के हुए का डर सता रहा है। इस डर का आलम ये है कि खुद को भाजपाई तो घोषित कर चुकी हैं, लेकिन कांग्रेस से इस्तीफा नहीं दिया है। उनकी इस टालमटोली की दो वजह है एक तो खुद बीजेपी और दूसरी हैं पूर्व विधायक इमरती देवी। वो कैसे ये भी जान लीजिए.
5 मई को बीजेपी जॉइन, लेकिन इस्तीफा अब तक नहीं
बीना विधायक निर्मला सप्रे का नाम तो सुना ही होगा आप लोगों ने। जो लोग सागर, बीना या बुंदेलखंड के आसपास के नहीं हैं वो भी इस नाम से जरूर वाकिफ होंगे। उसकी वजह है कि निर्मला सप्रे ने लोकसभा चुनाव के आसपास अचानक दल बदल कर लिया था। उन्होंने 5 मई को बीजेपी जॉइन की, लेकिन उसके बाद से उनके फैसले और सक्रियता सवालों के दायरे में ही रही है। पार्टी बदलने के बाद भी वो बीजेपी के कुछ प्रचार कार्यक्रमों में नहीं गईं थीं। अब उन्हें पार्टी बदले चार महीने पूरे होने वाले हैं, लेकिन वो इस्तीफा देने को तैयार नहीं है। खबर तो यहां तक है कि निर्मला सप्रे विधानसभा में भी ये नहीं बता पाई हैं कि वो अब तक इस्तीफा क्यों नहीं दे रही हैं।
क्या सप्रे को भविष्य की इमरती देवी होने का है डर
दल बदलने के ऐलान के बावजूद पद पर बने रहना, इस्तीफा न देना दो सवाल उठा रहा है। पहला सवाल ये कि क्या बीजेपी में उन्हें वादे के मुताबिक या शर्तों के मुताबिक सारी चीजें नहीं मिली हैं। दूसरा सवाल ये कि क्या उन्हें ये डर है कि वो भविष्य की इमरती देवी हो सकती हैं। ये डर बड़ा डर है इसे कम करके मत समझिएगा। क्योंकि इमरती देवी सिर्फ एक नेता नहीं रह गई हैं। वाकई एक मिसाल बन गई हैं ऐसे नेताओं के लिए जो कॉन्फिडेंस में आकर दल बदल कर लेते हैं, लेकिन सियासी हालात उनके करियर को अंजाम तक पहुंचाएंगे या नहीं इस पर संशय बरकरार रहता है। अगर निर्मला सप्रे को भी ये डर वाकई ये डर बेवजह नहीं हैं।
सप्रे के सियासी भविष्य पर फुल स्टॉप लग जाएगा!
इस डर को समझने के लिए इमरती देवी और निर्मला सप्रे के हालात को थोड़ा बहुत कंपेयर करते हैं। इमरती देवी ने डबरा की आरक्षित सीट से चुनाव लड़ा और उन्हें कांग्रेस के टिकट पर लगातार जीत मिली। इसके बाद साल 2020 में वो कई विधायकों के साथ कांग्रेस छोड़ बीजेपी में शामिल हो गईं। ज्योतिरादित्य सिंधिया की समर्थक होने के नाते उन्होंने इस तरह अपनी निष्ठा निभाई थी।
2020 का उपचुनाव जीतने के लिए इमरती देवी ने जीभर कर मेहनत की। सोशल मीडिया पर जमकर एक्टिव भी रहीं, लेकिन चुनाव नहीं जीत सकीं। साल 2023 के चुनाव में भी उन्हें जीत नहीं मिली। इस बार अब तक उन्हें आयोग या किसी निगम मंडल का पद भी मिलता हुआ नहीं दिख रहा है। तो फिलहाल तो यही कहा जा सकता है कि उनके सियासी भविष्य पर फुल स्टॉप लगने वाला है।
नोटिस के बाद सप्रे ने थोड़ा समय मांगा है
निर्मला सप्रे का हाल भी कुछ ऐसा ही है। वैसे तो बीना विधानसभा सीट लंबे समय से बीजेपी के पास ही रही है। साल 1985 के चुनाव से यहां बीजेपी काबिज है। 1993 के चुनाव में कांग्रेस के प्रभु सिंह ठाकुर जीते थे और फिर सीधे 2023 में निर्मला सप्रे को जीत मिली है। बीजेपी में 1998 से लेकर 2018 के चुनाव तक यहां बीजेपी ही जीतती रही थी। इस लिहाज से इसे बीजेपी की सीट कहा जा सकता है कि और सप्रे की जीत पक्की मानी जा सकती है, लेकिन जनता के मिजाज का क्या कहना अगर मूड बदल गया तो हो सकता है कि इस सीट पर कांग्रेस की वापसी हो और निर्मला सप्रे से विधायकी छिन जाए। फिलहाल उनके पास सिंधिया जैसा कोई गॉड फादर भी नहीं है। जो सियासी नैया पार लगाने में मददगार बन सके। शायद इसलिए सप्रे इस्तीफा देने से घबरा रही हैं, लेकिन अब बात आगे बढ़ती जा रही है विधानसभा से सप्रे के खिलाफ का नोटिस जारी हो चुका है। विधानसभा कार्यालय ने उन्हें जवाब देने के लिए 10 दिन का समय दिया था। ये समय गुजरे भी करीब एक माह का समय होने को है, लेकिन निर्मला सप्रे ने अभी तक विधानसभा सचिवालय का इस्तीफा न देने की स्थिति का कारण नहीं बता पाई हैं। खबर है कि उन्होंने जवाब देने के लिए कुछ मोहलत की मांग की है। दरअसल नेता प्रतिपक्ष उमंग सिंगार ने ही नियमों का हवाला देते हुए उनके खिलाफ कार्रवाई की मांग की थी जिस पर उन्हें नोटिस जारी किया गया। जिसके बाद सप्रे ने थोड़ा समय मांगा है। जवाब मिलने के बाद विधानसभा सचिवालय तय करेगा कि उन पर क्या कार्रवाई करनी है। उनके इस रवैये के बाद सुगबुगाहटें हैं कि निर्मला सप्रे फिलहाल कांग्रेस में ही रहना चाहती है। बीजेपी का मकसद भी पूरा हो चुका है और संख्या बल भी जरूरत से ज्यादा है। इसलिए सप्रे आए या न आएं बीजेपी को खास फर्क नहीं पड़ता है।
सप्रे ने कुछ विकास कार्य पूरे करने की रखी थी शर्त
अब बात करते हैं दूसरे सवाल की कि क्या बीजेपी से बीना सप्रे को वादे पूरे होने की उम्मीद नहीं है। पिछले दिनों उनके हवाले से जो बयान सामने आए उन्हें सुनकर लगता है कि उनका ये डर भी गैरवाजिब नहीं है। कुछ अंदरूनी सूत्रों का दावा है कि सप्रे ने बीना को जिला बनाने और कुछ विकास कार्य पूरे करने की शर्त रखी थी, लेकिन अब भी उसमें से 50 प्रतिशत वादे पूरे नहीं हुए हैं। इसमें बीना को जिला बनाने के अलावा रिंग रोड और सिंचाई परियोजना सहित 12 मांगे शामिल थीं। सूत्रों के मुताबिक सप्रे ये साफ कर चुकी हैं कि ये वादे पूरे हुए तो वो इस्तीफा देने में देर नहीं करेंगी।
दल बदलुओं के दिन अब बीजेपी में पहले जैसे नहीं रहे
सप्रे का ये फैसला ये साफ इशारा कर रहा है कि दल बदलुओं के दिन अब बीजेपी में पहले जैसे नहीं रहे। जिन्हें किए सारे वादे या शर्तें पार्टी पूरी करें। राम निवास रावत इस मामले में अब तक आखिरी नाम दिख रहे हैं। जिन्हें उपचुनाव जीतने से पहले ही मंत्रीपद सौंप दिया गया है, लेकिन उनके आड़े भी बहुत से बड़े बीजेपी नेता आ रहे हैं जो या तो खुद विजयपुर से चुनाव लड़ना चाहते हैं या फिर उन्हें डैमेज कर सकते हैं। इसके अलावा अमरवाड़ा विधायक कमलेश शाह का नाम भी इस फेहरिस्त में शामिल है जो हारते-हारते बमुश्किल चुनाव तो जीत गए, लेकिन अभी मंत्रीपद उनके लिए दूर की कौड़ी है। कुछ ऐसे ही दौर से कांग्रेस के दिग्गज रहे सुरेश पचौरी गुजर रहे हैं। जिन्हें लोकसभा चुनाव से पहले अचानक लगा कि कांग्रेस में राम की कद्र नहीं है इसलिए बीजेपी चले जाना चाहिए। फिलहाल नई पार्टी में उनकी कोई कद्र नजर नहीं आ रही है। सुगबुगाहटें थीं कि उन्हें राज्यसभा भेजा जा सकता है। फिलहाल इसकी भी कोई उम्मीद नहीं है क्योंकि सिंधिया की खाली हुई सीट से बीजेपी ने बाहरी को मौका दिया, लेकिन दल बदलू को नहीं। सिंधिया की सीट से बीजेपी ने जॉर्ज कुरियन को राज्यसभा भेजने का फैसला किया है।
तीन नेताओं का हाल साफ जाहिर करता है कि अब बीजेपी को दल बदलू ज्यादा रास नहीं आ रहे हैं तो, क्या ये मान लिया जाए कि 2020 के बाद जोर पकड़ने वाला दल बदल का ये फिनोमिना अब कुछ धीमा पड़ेगा या खत्म हो जाएगा।
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