News Strike : कहां हो नेताजी में... आज बात उस नेता की करेंगे जिसकी एक यात्रा ने मध्यप्रदेश में बीजेपी की सीटें घटा दी थीं। एक मंझा हुआ राजनेता। एक खांटी पॉलीटिशियन, जिसकी मध्यप्रदेश की समझ के आगे बाकी राजनेताओं की समझ कम लगती है। एक ऐसा राजनेता जो पर्दे के पीछे से रणनीति बनाता है तो कमाल कर जाता है। पर विडंबना ये है कि जब परदे से निकलकर, खुलकर चुनावी मैदान में आता है तो अपनी ही पार्टी को हार के मुहाने पर ले आता है। बयान देकर कभी संकटमोटक बना तो कभी पार्टी को संकट में झौंक भी दिया। ये राजनेता इस साल अपने आखिरी इम्तिहान में भी फेल साबित हुए, इसके बाद शायद खुद एक खोल में सिमटा हुआ है। उसकी खामोशी सही वक्त के इंतजार के लिए है या पर्दे के पीछे कोई नई रणनीति कहीं काम कर रही है।
मप्र की राजनीति पर बात में दिग्विजय सिंह का जिक्र तय
इतनी लंबी चौड़ी भूमिका हमने बांधी है मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के लिए। वैसे दिग्विजय सिंह इससे लंबी भूमिका ही डिजर्व करते हैं। क्योंकि मध्यप्रदेश की राजनीति की जब-जब बात होगी दिग्विजय सिंह का जिक्र लाजमी होगा। सिर्फ मध्यप्रदेश ही नहीं देश की राजनीति और कांग्रेस का तारा कभी उदय होने तो कभी अस्त होने की भी जब-जब बात होगी तब-तब दिग्विजय सिंह का जिक्र भी उतना ही होगा जितना कांग्रेस के किसी और बड़े लीडर का होगा।
गुटबाजी के दौर में दिग्विजय ने ही सामंजस्य बिठाया
मध्यप्रदेश में दिग्विजय सिंह जिस वक्त मुख्यमंत्री बने, उस वक्त कांग्रेस में कई बड़े चेहरे थे। जो एक-एक कर सीएम की कुर्सी के लिए अपना हक जता रहे थे। प्रदेश के पूर्व मुखिया अर्जुन सिंह समेत, श्यामाचरण शुक्ल, माधवराव सिंधिया, सुभाष यादव, मोतीलाल वोरा और विद्या चरण शुक्ल जैसे कई नाम कतार में थे, लेकिन एक फोन आया और फैसला हुआ कि सीएम की कुर्सी दिग्विजय सिंह को सौंप दी जाए। ये साल था 1993। उस समय कांग्रेस जबरदस्त गुटबाजी से त्रस्त थी। आज भी है, लेकिन तब दिग्विजय सिंह के सामने ये गुटबाजी एक बड़ी चुनौती थी। एक गुट माधवराव सिंधिया का था। एक गुट था अर्जुन सिंह का, लेकिन अर्जुन सिंह करीब करीब दिग्विजय के साथ ही थे। इसलिए संभवतः वो गुट खामोश रहा होगा। विद्याचरण शुक्ल का भी बड़ा गुट हुआ करता था। जो दिग्गविरोधी था। तो पहला कार्यकाल दिग्विजय सिंह ने सारे वरिष्ठों के बीच सामंजस्य बिठाने में भी गुजारा। इसके बाद चुनाव हुए साल 1998 में। दिग्विजय सिंह की सरपरस्ती में कांग्रेस चुनाव जीतने में कामयाब रही। इस जीत ने दिग्विजय सिंह के कद को पार्टी में बढ़ा दिया।
2003 में मिस्टर बंटाधार के जुमले ने किया सत्ता से बाहर
साल 2000 आते-आते दिग्विजय सिंह की किस्मत और चमकी। प्रदेश का छत्तीसगढ़ में विभाजन हुआ। जिसके बाद मोतीलाल वोरा और शुक्ला बंधु छत्तीसगढ़ चले गए। माधव राव सिंधिया का देहांत हो गया था। अर्जुन सिंह बीच में अपनी पार्टी बनाकर कांग्रेस से अलग हो गए थे। वापसी के बाद 1998 में एक चुनाव हार गए, इसकी वजह से उनका ग्राफ पहले ही नीचे चला गया था। इस समय दिग्विजय सिंह ने पार्टी में अपनी जड़ें मजबूत कर ली थीं, लेकिन ये दौर ज्यादा लंबा नहीं चला। साल 2003 में प्रदेश में फिर विधानसभा चुनाव हुए। बीजेपी ने उमा भारती को चुनाव लड़ने भेजा। उमा अपने साथ ऐसी आंधी लेकर आईं कि दिग्विजय सिंह की सत्ता को उखाड़ फेंका। उसके साथ ही कांग्रेस भी जो सत्ता से बाहर हुई तो अब तक वापसी संभव नहीं हो सकी है।
2003 के इस चुनाव में बीजेपी ने दिग्विजय सिंह के खिलाफ एक बड़ा जुमला उछाला था। जुमला था मिस्टर बंटाधार का। दिग्विजय सिंह को मिला ये सियासी नाम आप आज भी बीजेपी के चुनाव प्रचार में सुनते ही होंगे। कांग्रेस जब-जब चुनाव प्रचार के लिए दिग्विजय सिंह को आगे करती है बीजेपी मिस्टर बंटाधार का राग अलापने लगती है और कांग्रेस को घाटा हो जाता है। खुद दिग्विजय सिंह भी ये कह चुके हैं कि जब वो चुनाव प्रचार करते हैं पार्टी के वोट घट जाते हैं।
राहुल गांधी के राजनीतिक गुरू के रूप में भी जाने गए
एक दौर ऐसा रहा है जब दिग्विजय सिंह अपनी चपलता, रणनीति बनाने की सूझबूझ की वजह से राजनीति के माहिर खिलाड़ी माने जाते थे। वो बीच में राहुल गांधी के राजनीतिक गुरू के रूप में भी पहचाने गए। राहुल गांधी की पिछले साल हुई भारत जोड़ो यात्रा के रणनीतिकारों में से एक दिग्विजय सिंह भी थे। इसके बावजूद दिग्विजय सिंह हाशिए पर नजर आ रहे हैं। हाशिए पर तो छोड़िए दिग्विजय सिंह जैसे बेबाक बयानी करने वाले कांग्रेस के नेता इन दिनों खामोश नजर आ रहे हैं। कभी कुछ कहते हैं तो इसका जरिया सिर्फ ट्विटर ही नजर आता है। साल 2018 में दिग्विजय सिंह ने नर्मदा परिक्रमा की। कहा जाता है कि ये जिम्मेदारी भी कांग्रेस ने उन्हें इसलिए सौंपी थी ताकि वो पर्दे के पीछे रह कर कार्यकर्ताओं के नेटवर्क को कस सकें। पर्दे के आगे रहने के लिए ज्योतिरादित्य सिंधिया और कमलनाथ के चेहरे को चुना गया था।
2019 में पहला चुनाव लड़ रहीं प्रज्ञा सिंह से हारे दिग्विजय
30 सितंबर 2017 से शुरू हुई दिग्विजय सिंह की नर्मदा परिक्रमा प्रदेश की 90 विधानसभा सीटों से गुजरी थी। 2018 के चुनाव में कांग्रेस को जीत मिली और क्रेडिट दिग्विजय सिंह की यात्रा को भी दिया गया, लेकिन सीएम पद पर उन्हें काबिज होने का मौका नहीं मिला। ये बात अलग है कि कमलनाथ की कैबिनेट और कमलनाथ के फैसलों में दिग्विजय सिंह की झलक हमेशा दिखाई देती रही। लेकिन इसके बाद दिग्विजय सिंह पार्टी के किसी इम्तिहान में सफल नहीं हो सके। 2019 के लोकसभा चुनाव में दिग्विजय सिंह को भोपाल से प्रत्याशी बनाया गया। इसमें कोई दो राय नहीं कि दिग्विजय सिंह ने खूब मेहनत की, लेकिन बीजेपी प्रत्याशी और पहली बार चुनाव लड़ रही प्रज्ञा सिंह ठाकुर से वो चुनाव हार गए। इसके बाद अगला फेलियर साबित हुआ मध्यप्रदेश का पिछले साल हुआ विधानसभा चुनाव। इस चुनाव में कांग्रेस की जीत तकरीबन तय थी, लेकिन आखिरी समय तक कमलनाथ और दिग्विजय सिंह प्रत्याशियों के नाम पर एकमत नहीं हो सके। जिसकी वजह से प्रत्याशी बदलने तक की नौबत आई। नतीजा ये हुआ कि बिखरी-बिखरी सी कांग्रेस फिर चुनाव हार गई।
आउटडेटेड हो चुकी है दिग्विजय की सेक्युलर राजनीति
आखिरी इम्तिहान हुआ बीते लोकसभा चुनाव में। जब बीजेपी को उनके ही होमग्राउंड से लड़ने के लिए उतारा गया, लेकिन दिग्विजय सिंह राजगढ़ से भी चुनाव हार गए। कमलनाथ और दिग्विजय सिंह दोनों के जैसे सीनियर नेता होने के बावजूद कांग्रेस एक भी सीट नहीं निकाल सकी। विधानसभा चुनाव में बड़ी हार के बाद आलाकमान ने पार्टी नेतृत्व में बड़े बदलाव किए हैं। अब कमान युवा चेहरों के हाथ हैं। लोकसभा चुनाव में हार के बाद से दिग्विजय सिंह वैसे ही म्यूट मोड में दिख रहे हैं। ताजा खबर तब आई जब कांग्रेस अध्यक्ष जीतू पटवारी ने अपनी टीम का ऐलान किया। इस टीम में दिग्विजय सिंह के बेटे जयवर्धन सिंह को पद मिला और कुछ और दिग्गी समर्थक टीम में नजर आए। उसके बाद से दिग्विजय सिंह की प्रेजेंस सिर्फ ट्विटर पर ही दिख रही है। उनके तीखे व्यंग्य और राजनीति बयान भी कम ही सुनने को मिल रहे हैं। उसकी वजह मानी जा रही है दिग्विजय सिंह की सेक्युलर राजनीति। जो आज के दौर में आउटडेटेड हो चुकी है। बीजेपी के केंद्र और राज्य में रहते हुए वो राजनीति खत्म हो चुकी है जो सिर्फ एक समुदाय के लिए सहानुभूति देती नजर आए। दिग्विजय सिंह ऐसी ही राजनीति का मुखर चेहरा रहे हैं। जिन्होंने हिंदू आतंकवाद टर्म भी क्वाइन किया था और सवालों के घेरे में आ गए थे। शायद इसलिए पार्टी भी यही प्रिफर करती है कि दिग्विजय सिंह खामोश रहें या कम बोलें।
फिलहाल दिग्विजय सिंह ने राज्य की राजनीति में एक्टिव हैं और न ही केंद्र में उन्हें कोई खास जिम्मेदारी मिली है। बड़े-बड़े राज्यों में चुनाव हैं उसके बावजूद दिग्विजय सिंह को कोई काम नहीं सौंपा गया है। इसलिए सवाल ये उठता है कि क्या दिग्विजय सिंह भी अब पार्टी की सक्रिय राजनीति से परे धकेल दिए गए हैं और मार्गदर्शक मंडल में रह गए हैं। जिनकी सलाह भी जरूरत पड़ने पर ली जाएगी।
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