लोकलुभावन योजना पर बजट का एक बड़ा हिस्सा, बड़े-बड़े पूंजीपति भी हैं मुफ्तखोर

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लोकलुभावन योजना पर बजट का एक बड़ा हिस्सा, बड़े-बड़े पूंजीपति भी हैं मुफ्तखोर

भोपाल. आरबीआई के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने एक बार कहा था कि बड़ी-बड़ी कंपनियां और बड़े-बड़े पूंजीपति सबसे ज्यादा मुफ्तखोर हैं। क्योंकि बड़ी कंपनियों और पूंजीपतियों को मुफ्त की जमीन चाहिए, इन्हें टैक्स में छूट चाहिए, हर चीज पर सब्सिडी चाहिए। ये लोग बैंक का पैसा लूटते हैं, जगह-जमीन का कम से कम रेंट देते हैं और ये हर तरह की रियायतें चाहते हैं। सरकारें भी इन्हें वह सब कुछ देने को तैयार रहती हैं, जो वे चाहते हैं। मध्यप्रदेश भी इसमें पीछे नहीं है। मध्यप्रदेश का जितना बजट है उतना सरकार कर्ज में डूबी हुई है। लोकलुभावन योजना पर बजट का एक बड़ा हिस्सा खर्च होता है। आंकड़ा है करीब एक लाख करोड़ रुपए से ज्यादा, मध्यप्रदेश की सरकार बाकी राज्यों से खुद को बेहतर होने का दावा करती है लेकिन जो मूलभूत सुविधाओं पर बजट का एक बड़ा हिस्सा खर्च होना चाहिए, वो तो हो ही नहीं रहा है। 



22 हजार करोड़ बिजली सब्सिडी



22 हजार करोड़ की रकम एक बड़ी रकम है, जो केवल बिजली सब्सिडी पर खर्च हो जाती है। इन सब्सिडियों की वजह से खजाने पर मार कितनी गहरी है। इसका अंदाजा आप मुख्यमंत्री की अगली बात से लगा सकते हैं। यानी खजाने की चिंता साफ झलकती है और क्यों ना झलके क्योंकि योजनाओं का ऐलान तो कर दिया है। अब उन्हें पूरा करना चुनौती है। पूरी नहीं होगी तो चुनाव में जीत भी नहीं मिलेगी। बाकी राज्यों की तरह कमोवेश मध्यप्रदेश के हाल भी ऐसे ही हैं। लोकलुभावन घोषणाएं भले ही सत्ता में बने रहने का कारगर फॉर्मूला हो लेकिन ये आर्थिक रूप से कमर कैसे तोड़ता है इसकी बानगी इसी से पता चलती है। 



लोकलुभावना योजनाओं 



केंद्र ने पुलिस को मॉर्डनाइज्ड करने के फंड पर रोक लगाने की चेतावनी दे दी है क्योंकि मप्र में 33 फीसदी पदों पर महिलाओं की भर्ती ही नहीं की गई। सवाल है कि कहां से करेंगे। वेतन देने के लिए पैसा कहां से लाएंगे। इस समय मप्र सरकार का वेतन भत्तों पर ही करोड़ों रुपए खर्च हो रहा है। दूसरी तरफ लोकलुभावन योजनाओं को पूरा करने में ही शिवराज सरकार का सालाना एक लाख करोड़ का फंड खर्च हो जाता है। एमपी का सालाना बजट है 2 लाख 79 हजार करोड़, जबकि कर्ज है 2 लाख 73 हजार करोड़ यानी जितना बजट उतना ही कर्ज। अब जरा सरकार का पैसा कैसे इन लोकलुभावना योजनाओं को पूरा करने में खर्च होता है उस पर एक नजर डालते हैं।



मप्र में किसानों को सालाना 90 हजार करोड़ की सब्सिडी दी जाती है, किसानों पर ज्यादा फोकस की वजह ये भी है कि ये अर्थव्यवस्था और राजनीतिक व्यवस्था की धुरी है। किसानों की नाराजगी कोई मोल लेना नहीं चाहता इसलिए किसानों को फसल बीमा से लेकर सब्सिडी वाली बिजली मिलती है। कृषि उपकरण, खाद, बीज, फर्टिलाइजर पर सब्सिडी मिलती है। 



ये स्कीम लागू है



दूसरा वर्ग गरीब है। मप्र में पांच करोड़ लोग है जिन्हें एक रुपए किलो गेहूं के साथ चावल और नमक मिलता है। अब देखिए कि सरकार करीब 2 हजार क्विंटल के भाव से गेहूं खरीदी करती है और ये गेहूं पीडीएस के जरिए 1 रुपए किलो में दिया जाता है। घाटा उठाकर सरकार ये योजना चला रही है, जबकि खाद्य सुरक्षा कानून का प्रावधान है कि काम के बदले अनाज। अब यहां कोई भी सवाल पूछ सकता है कि एक रुपए किलो अनाज खरीदने के लिए पैसा तो चाहिए, तो जवाब है कि दो दिन की कमाई में ही महीने भर के राशन मिल रहा है तो बाकी के दिनों में काम करने की जरूरत क्या है। हर दिन काम करने से ये वर्ग जी चुराएगा यही वजह है कि जब से मप्र में ये स्कीम लागू हुई है। खेतों में काम करने वाले मजदूरों का टोटा हो गया है और काम करने वाले लोग मिल नहीं रहे। इसके अलावा लाड़ली लक्ष्मी योजना, जननी सुरक्षा, कन्यादान, लैपटॉप, साइकिल, मुफ्त पढ़ाई तक सरकार करा रही है। सरकार कहती है कि जन्म से लेकर पूरी जिंदगी तक का इतंजाम सरकार ने कर दिया है।   



अर्थशास्त्रियों के मुताबिक सब्सिडी एक जरूरी व्यवस्था है लेकिन समुचित प्रबंधन और प्रशासकीय लापरवाही के चलते इन योजनाओं का लाभ वास्तविक लोगों तक नहीं पहुंच पाता। आज भी सरकार की कई ऐसी योजनाएं हैं, जिनका लाभ ऐसे तबके के लोगों को मिलता है या फिर वो इस लेने में कामयाब हो जाते हैं, जिन्हें इसकी जरूरत नहीं है। 



भू जल स्तर कम हो गया



आपको सब्सिडी और मुफ्तखोरी दोनों में अंतर समझना बेहद जरूरी है। सब्सिडी यानी आर्थिक सहायता, जो विशेष मांग से उत्पन्न होती है। जो जरूरी योजना है, उसमें सब्सिडी देना जरूरी है लेकिन लंबे समय तक सब्सिडी देते रहना भी ठीक नहीं है। अब जैसे बिजली सब्सिडी। कम रियायतों पर बिजली देने का नुकसान पंजाब में ये हुआ कि अंधाधुंध बोरिंग हुई, जिसकी वजह से कई जिलों में भू जल स्तर कम हो गया। कमोवेश हालात मप्र के मालवा में भी है। आर्थिक बोझ बढ़ता है सो अलग और मुफ्तखोरी इससे अलग है जैसे फ्री टीवी, स्कूटी, साइकिल बांटना। मुफ्त या रियायती दरों पर अनाज देना। ये सब मुफ्तखोरी को बढ़ावा देते हैं। अब दुनिया के हर देश में सरकारें मुफ्तखोरी को बढ़ावा देने में जुटी रहती है। लेकिन स्विटरलैंड ऐसा देश है जहां लोगों ने ही मुफ्तखोरी को नकार दिया।



जन कल्याणकारी नीतियों में बदलाव



2016 में स्विटजरलैंड सरकार ने ‘बेसिक इनकम गारंटी’ नाम से एक जनमत संग्रह कराया। जिसके तहत नागरिकों को प्रति माह डेढ़ लाख रुपये देने का प्रावधान किया गया था। दुनिया के अमीर देशों में शुमार स्विटजरलैंड ने अपने नागरिकों से जन कल्याणकारी नीतियों में बदलाव के संदर्भ में मत मांगा था। इसके पक्ष में 23 फीसदी लोगों ने वोट दिया, तो वहीं इसके खिलाफ 77 फीसदी ने वोट किया। फेडरल काउंसिल और संसद को इस बात का डर था कि यदि यह प्रस्ताव पारित हो जाता है, तो काम को चुनने वालों की संख्या में तेजी से कमी आएगी। इससे सरकार को हर माह सभी नागरिकों और नागरिकता लेने वाले विदेशियों को प्रति माह वेतन देना पड़ता। लेकिन स्विटजरलैंड की जनता ने ही इसे ठुकरा दिया।


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