BHOPAL. द्रौपदी मुर्मू (Draupadi Murmu) सिर्फ एक नाम नहीं, चाल है वो भी तुरूप की। ऐसी चाल जिसके पीछे का गणित समझने में कांग्रेस (Congress) ही नहीं एनडीए के सारे विपक्षी दलों के पसीने छूट गए हैं। समझ जाते तो शायद खिलाफत पर आमादा ही ना होते, क्योंकि खिलाफत करके जीत भी जाते तो ये जीत उन्हें फिलहाल राष्ट्रपति चुनाव (Presidential Election) में तय हो चुकी हार से काफी ज्यादा भारी पड़ जाती।
आपका ये सोचना बिलकुल ठीक है कि राष्ट्रपति चुनाव में एक नाम फाइनल करके बीजेपी (BJP) ने कौन सा तीर मार लिया है। ये जान लीजिए कि ये कोई ऐसा वैसा तीर नहीं है। बर्बरीक का तीर है। वही बर्बरीक जिसके आने से भगवान कृष्ण को पांडवों की जीत पर ही संशय हो गया था, जो सिर्फ नाम लेकर तीर छोड़ता था और तीर निशाने पर लग जाता था। ये भी क्या संयोग है कि जिस बर्बरीक के तीर की तरह बीजेपी ने ये चाल चली है, वो बर्बरीक रिश्ते में द्रौपदी के पोते लगते थे। माइथॉलोजी को फिलहाल किनारे रखते हैं और बात फिर बीजेपी की करते हैं। बीजेपी ने भी वही तीर छोड़ा है। तीर छोड़ते हुए 6 अलग अलग नाम लिए हैं। ये 6 नाम कौन कौन से हैं, ये भी आपको बताएंगे और ये भी कि एक द्रौपदी के सहारे बीजेपी कैसे और कितने कुरूक्षेत्र जीतने की तैयारी कर चुकी है।
ऐसे आया द्रौपदी मुर्मू का नाम
राष्ट्रपति चुनाव के लिए सही नाम की तलाश जारी हो चुकी थी। इधर एनडीए (NDA) और उधर विपक्षी दल अपने अपने कैंडिडेट फाइनल करने में जुटे थे। बीजेपी के सामने नामों की लंबी फेहरिस्त आई, लेकिन अपने हर फैसले की तरह इस बार राष्ट्रपति पद के लिए जो नाम चुना, उससे सबको चौंका दिया। खासतौर से विपक्षी दल जहां मान-मनौव्वल, सहमति-असमहति का सिलसिला जारी था। वो दल बीजेपी की ये पसंद देखकर हैरान रह गए। ओडिशा (Odisha) की आदिवासी (Tribal) नेता और झारखंड की राज्यपाल रहीं द्रौपदी मुर्मू को बीजेपी ने अपना उम्मीदवार चुना। इसके बाद खिलाफत की कोई वजह ही खड़ी नहीं होती। खड़ी हो भी रही है तो भी द्रोपदी की जीत तय ही है। इस खबर के फैलते ही द्रोपदी मुर्मू के वीडियोज वायरल होने लगे, जिसमें वो शिवमंदिर में झाड़ू लगाती दिखाई दे रही हैं। किसने सोचा था कि ये सादगी पसंद जीवन जीने वाली द्रोपदी मुर्मू अब देश की महामहिम होंगी।
मुर्मू की दावेदारी की वजह, बीजेपी को ऐसे होगा फायदा
इस चाल को अब यूं समझिए कि मुर्मू के नाम का ऐलान बीजेपी के सोशल बेस-खासतौर से अनुसूचित जनजाति समुदायों में, बढ़ाने का एक सोचा-समझा कदम है। ये साफ दिखाई दे रहा है कि बीजेपी ने आदिवासी वोटरों को लुभाने के लिए ये फैसला लिया है। सिर्फ यही एक वजह नहीं है, जिसके चलते बीजेपी अपने पिटारे में घुस कर उसे खंगालते हुए ये नाम ढूंढ कर लाई है।
मुर्मू की दावेदारी की दो बड़ी वजह हैं। पहला, बीजेपी अब मिडिल क्लास-अपर कास्ट, शहर आधारित हिंदू पार्टी वाली पहचान से आगे निकल जाना चाहती है। बीजेपी सिर्फ हिंदुत्व वाली छवि से ऊपर उठकर बीते कुछ सालों से खुद को राष्ट्रीय पार्टी के तौर पर बदलने की कवायद में जुटी है।
पार्टी खुद ये दावा करती है कि बीजेपी ने भारतीय समाज में हाशिये पर पहुंचे वर्गों जैसे अति दलितों, लोअर ओबीसी और सबसे ज्यादा पिछड़े आदिवासियों को आगे बढ़ाने की दिशा में गंभीर प्रयास किए हैं. यानि बीजेपी का हिंदुत्व अब सिर्फ एलीट क्लास का हिंदुत्व नहीं है। इसमें हर तरह का हिंदू शामिल है। वो चाहें किसी भी तबके का हो। इसी विचारधारा के तहत द्रौपदी मुर्मू का नाम प्रोजेक्ट किया गया है।
मुर्मू को चुनने की बीजेपी की वजह
द्रौपदी मुर्मू का नाम चुनने की वजह तो आप समझ ही गए होंगे। अब ये जान लीजिए कि इस तीर पर बीजेपी ने किस किस का नाम लिख दिया है। ये तीर आने वाले पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव को देखकर छोड़ा गया है। बीजेपी के तूणीर में ये तीर अब साल 2024 के बाद ही लौटेगा, जब लोकसभा चुनाव भी पूरे हो चुके होंगे। इसके लिए बीजेपी ने अभी से प्लानिंग शुरू कर दी है। मुर्मू का नाम उसी तैयारी का एक प्लानभर है। अगले साल जिन 5 राज्यों में चुनाव होंगे, वहां पहले ही बीजेपी आदिवासी समुदाय के अनुसार जमावट कर चुकी है। इन दोनों ही प्रदेशों में आदिवासी समाज का वोट खासा मायने रखता है। जिसमें पैठ बनाने के लिए अब तक छोटी छोटी चालें चल रही बीजेपी अब तुरूप की चाल चुकी है.
MP-CG के राज्यपाल भी आदिवासी समुदाय से
मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के राज्यपालों पर गौर कीजिए। एमपी के राज्यपाल मंगू भाई पटेल और छत्तीसगढ़ की राज्यपाल अनुसूइया उइके दोनों आदिवासी समाज से हैं। और अब झारखंड की द्रोपदी मुर्मू। आदिवासी वोट बैंक को साधने के लिए बीजेपी ने गहरी चाल चली है। एमपी और छत्तीसगढ़ में अगले साल ही चुनाव हैं। यहां आदिवासी वोटर्स का अच्छा खासा दबदबा है।
मध्य प्रदेश-छत्तीसगढ़ की आदिवासी आबादी
पहले बात मध्य प्रदेश की करते हैं। यहां आदिवासियों की आबादी दो करोड़ से ज्यादा है, जो मध्य प्रदेश की 84 विधानसभा सीटों पर सीधे सीधे असर डालती हैं। छत्तीसगढ़ की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। यहां सत्ता की चाबी आदिवासी विधायकों के हाथ में मानी जा रही है। प्रदेश में बीजेपी की तीनों सरकार में बस्तर की 12 विधानसभा सीट ने महत्वूपर्ण भूमिका निभाई थी। यही कारण है कि बीजेपी सरकार में बस्तर के दो विधायकों को मंत्री पद से नवाजा गया था। पिछले विधानसभा चुनाव में बस्तर और सरगुजा में पहली बार बीजेपी पूरी तरह से साफ हो गई। बस्तर की 12 में से 11 विधानसभा सीट आदिवासी वर्ग के लिए आरक्षित हैं। इसमें से सभी 12 सीटों पर कांग्रेस का कब्जा है। बीजेपी को आदिवासी वोट बैंक की कीमत समझ में आ चुकी है।
आदिवासियों के वोट अपनी जेब में डालने के लिए बीजेपी का ये मास्टर स्ट्रोक
इस फैसले की गहराई में थोड़ा और उतरिए और ये समझिए कि बीजेपी की द्रोपदी मुर्मू के आगे अब कैसे विपक्षी दलों के बहुत सोच विचार करने के बाद गढ़े गए नारे भी फेल हो गए हैं। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस चिल्लाती रही कि लड़की हूं लड़ सकती हूं। जो लड़की क्लर्क से राष्ट्रपति पद तक का सफर तय कर सकती है, अब लड़ाई लड़ने का उसका क्या माद्दा होगा, ये समझा जा सकता है। विपक्षी दल अब आदिवासी समुदाय के हितैषी और महिलाओं के शुभचिंतक होने का ढोल ही पीटते रह जाएंगे, क्योंकि चुनावी ऑर्केस्ट्रा सजा कर बीजेपी चुनावी धुन छेड़ चुकी है।