कांग्रेस के विधायकों ने उड़ाई पीसीसी चीफ की नींद, फिर मुश्किल में पड़े कमलनाथ !

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The Sootr CG
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कांग्रेस के विधायकों ने उड़ाई पीसीसी चीफ की नींद, फिर मुश्किल में पड़े कमलनाथ !

हरीश दिवेकर, BHOPAL. कांग्रेस की खुशी मतदाता तो मतदाता, खुद कांग्रेस के ही नेताओं से ही बर्दाश्त नहीं होती। मध्यप्रदेश में कांग्रेस ने बस अभी खिलना शुरू किया था। चेहरे पर जीत की मुस्कान अभी खिंच ही रही थी कि कांग्रेस नेताओं ने ही उस पर नजर लगा दी। नजर भी ऐसी कि अब 2023 तक कमलनाथ शायद चैन से नहीं बैठ पाएंगे।





नगरीय निकाय चुनाव में जबरदस्त नतीजे हासिल कर कांग्रेस ने बीजेपी की नींद उड़ा दी थी। एक दिन भी नहीं गुजरा होगा कि खुद कांग्रेस के ही विधायकों ने कमलनाथ की नींद उड़ाई नहीं बल्कि पूरी तरह छीन ही ली। काम ही ऐसा किया जिसे देख और सुनकर हर कोई हैरान है। वैसे जो कांग्रेस के विधायकों ने किया, पार्टी की पसंद से वो काम नहीं भी करते तो कोई फर्क नहीं पड़ता। उसके बावजूद विधायकों ने आलाकमान की मर्जी के खिलाफ जाना चुना। क्या ये किसी नई बगावत की सुगबुगाहट है या कमलनाथ के लिए एक सिग्नल है, जो आगाह कर रहा है कि वो एक बड़े वोट बैंक को गंवाने वाले हैं। ये खतरा ज्यादा दूर भी नहीं है, हो सकता एक महीने के अंदर कमलनाथ को इस दबी-छुपी बगावत का खामियाजा भुगतना पड़ जाए। 2023 से पहले डैमेज कंट्रोल किया जा सकता है। लेकिन एक महीने के कम वक्त में कमलनाथ आखिर क्या जतन कर पाएंगे।





राष्ट्रपति चुनाव में हुई क्रॉस वोटिंग





राष्ट्रपति चुनाव में क्या हआ ये किसी से छुपा नहीं है। इस चुनाव की वोटिंग से पहले ही कमलनाथ ने अंदेशा जताया था कि कांग्रेस विधायकों के साथ जोड़-तोड़ का खेल जारी है। ये अंदाजा होने के बावजूद पार्टी ने न तो कोई सख्ती दिखाई थी और न ही व्हिप जारी किया था। नतीजा क्या हुआ ये सबके सामने है। राष्ट्रपति चुनाव के लिए वोटिंग हुई तो बीजेपी के खाते में 19 वोट ज्यादा थे। जाहिर है ये वोट कांग्रेस विधायकों के ही थे। चूंकि राष्ट्रपति बन चुकी माननीय द्रौपदी मुर्मू आदिवासी हैं। इसलिए माना गया कि उन्हें वोट करने वाले कांग्रेस विधायक भी इसी तबके से ताल्लुक रखते होंगे।



सिर्फ एमपी ही नहीं देश की पहली आदिवासी महिला राष्ट्रपति बनीं द्रौपदी मुर्मू के चेहरे के आधार पर BJP विपक्षी एकता में बड़ी सेंधमारी करने में तो कामयाब रही ही उनके नेताओं में भी सेंध लगा ली है। मुर्मू के पक्ष में 13 राज्यों के 119 विधायकों के क्रॉस वोटिंग करने का दावा किया जा रहा है। खासतौर पर उन राज्यों में क्रॉस वोटिंग ज्यादा हुई है, जहां पर कांग्रेस सत्ता पक्ष या विपक्ष में है। इसके अलावा 17 सांसदों ने भी इस राष्ट्रपति चुनाव में क्रॉस वोटिंग की है।





कांग्रेस के लिए खतरे की घंटी





2023 और 2024 में होने वाले विधानसभा और लोकसभा चुनाव के संदर्भ में कांग्रेस के लिए ये खतरे की घंटी है। दिलचस्प ये है कि मुर्मू की जीत के जश्न को बीजेपी जिस तरह से देशभर में मना रही है, ये भी एक बड़ा राजनीतिक मैसेज है। ये मान लिया जाए कि कमलनाथ को कुछ वक्त हासिल हो तो वो इस रणनीति का तोड़ निकाल लें या आदिवासी नेताओं की जो अब तक अनदेखी होती रही, उस गलती को सुधार लें। लेकिन फिलहाल तो उनके पास मोहलत ही नजर नहीं आती।





इतनी संख्या में क्रॉस वोटिंग क्या किसी संकट का इशारा





फिलहाल बाकी राज्यों से फोकस हटाकर सिर्फ एमपी की बात करते हैं। जहां से मुर्मू को 19 वोट ज्यादा मिले। बेमतलब इतनी संख्या में क्रॉस वोटिंग होना क्या किसी ने संकट का इशारा नहीं है। क्या ये क्रॉस वोटिंग इस ओर इशारा नहीं कर रही कांग्रेस अपने ही आदिवासी नेताओं को समझने में भी नाकाम हो रही है। अब अगस्त के पहले हफ्ते में 46 नगर परिषदों के चुनाव हैं। जिनमें 39 सीटें आदिवासी क्षेत्र की हैं। क्या कमलनाथ इतने कम समय में रूठे आदिवासी नेता और मुर्मू के राष्ट्रपति बनने से बीजेपी के मुरीद हुए आदिवासी वोट बैंक को दोबारा अपना बना सकेंगे। जिस तबके ने पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को सबसे ज्यादा वोट किया। ये वही तबका है जो मोदी की आंधी में भी कांग्रेस के साथ ही खड़ा रहा। लेकिन कांग्रेस ने इस तबके के नेताओं की ताकत को तब नहीं पहचाना। उस तबके ने अपनी ताकत जाहिर कर दी और ये भी जता दिया कि वो पिछलग्गू बनकर नहीं रहेंगे। ये जताने के लिए आदिवासी नेताओं को क्रॉस वोटिंग का सहारा लेना पड़ा। शायद अब तो कांग्रेस आलाकमान के कान पर जूं रेंगी होगी।





आदिवासी समाज को लुभा रही बीजेपी





आलाकमान के कानों पर जूं ही क्यों रेंगी होगी। ये खबर तो कानों में किसी धमाके सी गूंजी होगी। याद कीजिए साल 2018 का विधानसभा चुनाव। नतीजे आने के बाद ये साफ हो गया था कि प्रदेश के आदिवासी तबके ने कांग्रेस का साथ दिया है। प्रदेश की 230 विधानसभा सीटों में से 47 सीटें आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं। बीते चुनाव में कांग्रेस ने इनमें से 30 सीटें जीतीं। यानी सरकार बनाने में सबसे बड़ा टेका इसी तबके से मिला। अब यही टेका बीजेपी हिलाना चाहती है और कामयाब भी हुई है। आदिवासी समाज को लुभाने के लिए बीजेपी बड़े-बड़े, भव्य कार्यक्रम कर रही है और अब जो तुरूप की चाल चली है। कांग्रेस का उसके पास कोई जवाब भी नहीं है। वो भी तब जब नगर परिषद की कुछ सीटों पर जल्द चुनाव होने हैं।





आदिवासी वोटर्स को बीजेपी का बड़ा मैसेज





आदिवासी वोटर्स को बीजेपी बड़ा मैसेज दे सकी है और कांग्रेस वही गलती दोहरा चुकी है जो ज्योतिरादित्य सिंधिया के वक्त की थी। सिर्फ एक छोटा-सा फैसला लेकर कांग्रेस बेहद आसानी से डैमेज कंट्रोल कर सकती थी। लेकिन कांग्रेस ने कंट्रोल की जगह सिर्फ डैमेज चुना। सिंधिया भी कांग्रेस में रहते हुए प्रदेश में एक पद की मांग करते रहे। लोकसभा चुनाव हारने से पहले वो इस बात के हिमायती भी रहे कि प्रदेशाध्यक्ष की कुर्सी  किसी आदिवासी नेता को सौंप दी जाए। उनकी पसंद उमंग सिंगार थे। तब सिंधिया की अनदेखी की गई। नतीजा ये हुआ कि कुछ विधायकों के साथ सिंधिया बीजेपी के हो गए। लेकिन ये भी गौर करने वाली बात है कि जिस समय सिंधिया ने कांग्रेस छोड़ी उनके साथ मिलकर किसी आदिवासी विधायक ने पार्टी नहीं बदली। आदिवासी नेता और वोटर कांग्रेस के साथ ताकत बनकर खड़े रहे। लेकिन अब इस बगावत से जाहिर है कि आदिवासी नेता चुप बैठने वाला नहीं है। जिसे पार्टी ने किसी मौके पर तवज्जो देना जरूरी नहीं समझा। वो नेता और वोटर आखिर कब तक कांग्रेस का साथ देगा। इस क्रॉस वोटिंग का मैसेज क्लियर है। पार्टी से ऊपर उनकी सामाजिक एकता है। यही एकता जो अब तक कांग्रेस के साथ थी लेकिन अब आदिवासी विद्रोह में बदली हुई सी नजर आ रही है। जिसका असर आने वाले नगर परिषद के चुनाव पर पड़ने से इनकार नहीं किया जा सकता।





अंतरआत्मा की आवाज





इस राष्ट्रपति चुनाव में एक जुमला खूब गूंजा। अंतरआत्मा की आवाज सुनकर वोट करने का। ये अपील की तो विपक्षी दलों के उम्मीदवार यशवंत  सिन्हा ने थी। लेकिन इसे गंभीरता से लिया आदिवासी तबके से आए नेताओं ने जिन्होंने आलाकमान की नहीं अंतरआत्मा की आवाज सुनी। इस अंतरात्मा की आवाज ने कांग्रेस के भीतर मचे घमासान को फिर जगजाहिर कर दिया है। बीजेपी के हाथ कांग्रेस की दुखती रग आ चुकी है। कांग्रेस के इस आदिवासी विद्रोह को कैश कराने से अब बीजेपी चूकेगी नहीं। अगले चुनाव में एक बार फिर सत्ता की चाबी आदिवासियों के हाथ ही होगी। जिनके तबके की एक नेता को देश का सर्वोच्च संवैधानिक पद देकर बीजेपी आधा भरोसा जीत चुकी है। रही सही कसर आदिवासी विद्रोह पूरी कर देगा। जिसे हवा देने और अगले चुनाव में उसका फायदा उठाने में बीजेपी बिलकुल पीछे नहीं रहेगी।



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