'मांझी जो नाव डुबाए उसे कौन बचाए', विधायकों के भरोसे नहीं चलेगा काम, BJP को याद आया बैकअप प्लान!

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The Sootr CG
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'मांझी जो नाव डुबाए उसे कौन बचाए', विधायकों के भरोसे नहीं चलेगा काम, BJP को याद आया बैकअप प्लान!

हरीश दिवेकर, BHOPAL. 'चिंगारी कोई भड़के तो सावन उसे बुझाए, सावन जो अगन लगाए उसे कौन बुझाए', 70 के दशक के एक गाने के ये बोल और मध्यप्रदेश में बीजेपी के हालात कितने मिलते-जुलते हैं। बीजेपी ने जिन हाथों को पतवार थमाई है, वही हाथ उस नाव को जीत के किनारे तक लगाने की जगह हार की मझधार में छोड़े जा रहे हैं। बीजेपी की नाव भी ऐसी धार में फंसी है जहां उसके खिवैया ही नाव नहीं संभाल पा रहे और जहां संभालने की कोशिश में लगे हैं वहां नाव पर सवार ही उनकी पतवार छीनने पर अमादा हैं। लेकिन नाव को डूबने के लिए तो छोड़ नहीं सकते, इसलिए अब पार्टी के सबसे उम्दा लाइफ सेवर नदी में कूद पड़े हैं। क्योंकि बीजेपी ये समझ चुकी है कि सिर्फ मांझी के भरोसे चुनावी नदी को पार कर पाना आसान नहीं होगा। बैकअप प्लान भी तैयार रखना होगा और लाइफ सेविंग जैकेट्स के भी पूरे बंदोबस्त करने होंगे।



पंचायत चुनाव के नतीजों ने चौंकाया



आपका ये सवाल भी लाजमी हो ही जाता है कि कैसी नाव, कैसा मांझी, कैसी लाइफ सेविंग जैकेट्स और कैसा बैकअप प्लान। इसका जवाब समझने के लिए आपको हाल ही में हुए पंचायत चुनाव के नतीजों पर गौर करना होगा। जिसके नतीजे बेहद चौंकाने वाले आए हैं। इन नतीजों को देखकर ये तो तय माना ही जा सकता है कि परिवारवाद से तौबा करके बीजेपी ने ठीक ही किया है। ये सिर्फ एक जिद नहीं है, बल्कि जिन राज्यों में पार्टी लंबे समय से काबिज है उन प्रदेशों में एंटीइंबेंसी के खिलाफ नया रास्ता खोलने का जरिया भी है।



मांझी से लेकर बैकअप प्लान का माजरा



अब आपको बताते हैं कि मांझी से लेकर बैकअप प्लान तक का माजरा क्या है। इससे पहले बीजेपी के परिवारवाद की जड़ें खंगालने की छोटी-सी कोशिश करते हैं। फौरीतौर पर ये नजर आता है कि परिवारवाद की खिलाफत कर बीजेपी विपक्षी दल कांग्रेस सहित उन सभी विपक्षी दलों पर निशाना साधती है जहां पहले पिता फिर बेटा और कुछ दलों में बाकी रिश्तेदार ही पार्टी के सर्वेसर्वा बने नजर आते हैं, पर इस फैसले की जड़ें जरा ज्यादा ही गहरी हैं। अपनी पुरानी आदत की तरह परिवारवाद की खिलाफत कर पार्टी एक नहीं दो निशाने साध रही है। पहली से परिवार के बीच में घिरी पार्टियों पर निशाना है तो दूसरे से जनता को ये यकीन दिलाना है कि बस नाराजगी की वजह खत्म हो चुकी है। इस बात को भी जरा आसान तरीके से सुनने और समझने की कोशिश कीजिए, क्योंकि उसके बाद ही मांझी से लेकर बैकअप प्लान तक की बात समझ पाएंगे। तो यूं समझिए कि परिवार के जरिए बीजेपी ने कई पार्टियों के चाल, चरित्र और चेहरे पर सवालिया निशान लगा दिए हैं। रही बात जनता की तो परिवारवाद के नाम पर नेता पुत्रों का टिकट काटकर पार्टी एंटीइंकंबेंसी से काफी हद तक बच जाती है। जनता की उम्मीदों पर खरा न उतरे नेता पुत्र का टिकट काटकर पार्टी न सिर्फ जनता की नाराजगी से बचती है बल्कि उसे संतुष्ट भी करती है।



बैकअप प्लान पर क्यों हुआ काम



प्रदेश में नगरीय निकाय और पंचायत चुनाव बहुत टलते-टलते हुए। अच्छा ही हुआ हो गए। खासतौर से बीजेपी के लिए। इस बहाने पार्टी के परिवारवाद वाले क्राइटेरिया का मध्यप्रदेश में भी टेस्ट हो ही गया। पंचायत चुनाव के शुरुआती नतीजे देखकर ही बीजेपी के आला नेता छाती ठोंककर ये कह सकते हैं कि उनका नेता पुत्रों से दूरी बनाए रखने का उनका फॉर्मूला बिलकुल सही है। अब आप मांझी और बैकअप प्लान तक माजरा भी समझ लीजिए। नगरीय निकाय चुनाव के लिए बीजेपी ने महापौर की जीत का जिम्मा विधायकों को सौंपा। यही वो मांझी हैं जिनके हाथ में चुनावी पतवार है। लेकिन ये मांझी अपनी नाव को पार लगाने में कामयाब होते नहीं दिख रहे। नगरीय निकाय चुनाव में जमीनी स्तर पर जो हाल दिख रहा है। उसे देखते हुए तो फिलहास ये अंदेशा है कि कहीं बीजेपी कुछ नगर निगम ही न गंवा दे। बस इसलिए बैकअप प्लान पर काम हुआ है।



पंचायत चुनाव के कुछ नतीजों से पिक्चर एकदम साफ



कुछ विधायकों के खिलाफ जो एंटीइंकंबेंसी है उसका खामियाजा बीजेपी को नगरीय निकाय चुनाव में भुगतने के आसार नजर आ रहे हैं। क्योंकि कई विधायकों के खिलाफ जनता की नाराजगी महापौर पद के प्रत्याशियों पर उतर रही है। पंचायत चुनाव के कुछ नतीजों से तो पिक्चर एकदम क्लीयर हो गई है।



मतदाताओं ने परिवारवाद को नकारा



पंचायत के प्रथम चरण के नतीजों के अनुसार मतदाताओं ने परिवारवाद को नकार दिया है। नतीजे चौंकाने वाले हैं। विधानसभा अध्यक्ष गिरीश गौतम के बेटे, मंत्री विजय शाह की बहन और बीजेपी का समर्थन करने वाले निर्दलीय विधायक सुरेंद्र सिंह शेरा की बेटी और बहू पंचायत चुनाव हार गए। विधानसभा अध्यक्ष गिरीश गौतम के बेटे राहुल, जिला पंचायत सदस्य का चुनाव कांग्रेस समर्थित प्रत्याशी पद्मेश गौतम से हार गए। बुरहानपुर के निर्दलीय विधायक सुरेंद्र सिंह शेरा की बेटी जयश्री ठाकुर जिला पंचायत सदस्य का चुनाव और उनकी बहू अभिलाषा ठाकुर जनपद सदस्य का चुनाव हार गईं। मंत्री विजय शाह की बहन नरसिंहपुर जिले से जिला पंचायत सदस्य का चुनाव हार गईं जबकि विजय शाह नरसिंहपुर जिले के ही प्रभारी मंत्री हैं। रीवा जिले में बीजेपी विधायक पंचूलाल प्रजापति की पत्नी और पूर्व विधायक पन्नाबाई प्रजापति जिला पंचायत सदस्य का चुनाव हार गईं। इसी तरह बीजेपी महिला मोर्चे की जिलाध्यक्ष संतोष सिंह सिसोदिया जनपद सदस्य और हनुमना मंडल के बीजेपी के अध्यक्ष पंच पद का चुनाव हार गए हैं। ये नतीजे वाकई बेहद शॉकिंग हैं।



नगरीय निकाय चुनाव प्रचार के दौरान बीजेपी का बैकअप प्लान



पंचायत चुनाव के हाल देखकर नगरीय निकाय चुनाव के प्रचार के दौरान ही बीजेपी ने अपना बैकअप प्लान शुरू कर दिया। इस बैकअप प्लान के तहत सिर्फ विधायकों के बूते ही जीत की इमारत तामीर नहीं हो रही। बल्कि पार्टी के बड़े नेताओं को भी प्रचार में झोंक दिया गया है। विधानसभा क्षेत्रों में स्थानीय स्तर पर एंटीइंकंबेंसी को भांपते ही बीजेपी ने शिवराज सिंह चौहान, ज्योतिरादित्य सिंधिया, नरेंद्र सिंह तोमर और प्रहलाद पटेल सरीखे दिग्गजों को प्रचार में उतार दिया।



बीजेपी के डैमेज कंट्रोल की कवायद कितनी असरदार



अब चुनावी नतीजे ही ये बताएंगे कि आखिरी समय में की गई डैमेज कंट्रोल की कवायद बीजेपी के लिए कितनी फायदेमंद साबित हुई। अब तक प्रदेश की सारी नगर निगमों पर बीजेपी का कब्जा है, लेकिन इस बार जीत इतनी आसान नहीं है। कमलनाथ ने विधायकों पर पूरा भरोसा जताया है जबकि विधायकों पर भरोसा करना बीजेपी को भारी पड़ता नजर आ रहा है। चूंकि पंचायत चुनाव पार्टी लाइन पर नहीं हुए इसलिए बीजेपी और कांग्रेस दोनों ही अपनी जीत का बढ़-चढ़कर दावा कर रहे हैं। लेकिन नगरीय निकाय चुनाव के बाद तस्वीर बिलकुल साफ होगी, जो बीजेपी के परिवारवाद के क्राइटेरिया को और सख्त बनाती नजर आ रही है।


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