भोपाल. न्यूज स्ट्राईक में हम आपको बताएंगे बीते एक दशक से सदन में आप के खून-पसीने की गढ़ी कमाई और भरोसे की किस तरह धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। इस काम में सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों बराबर के भागीदार हैं। करोड़ों रूपए खर्च करके प्रदेश में सदन की कार्यवाही होती है। इस उम्मीद के साथ कि जनता से जुड़े मुद्दे उठाए जाएंगे, सरकार बुरी तरह घिर जाए, ऐसे सवाल दागे जाएंगे। लेकिन बीते दस सालों का हाल देखें तो ये अंदाजा हो जाएगा कि दल कोई-सा भी हो, सिवाए लीपापोती करने और चंद तस्वीरें-खिंचाने के बाद अपनी जिम्मेदारियों को खत्म करने से हिचकता नहीं हैं। सदन की घटती बैठकों को लेकर पूर्व विधायक भी नाखुश हैं।
हमें और आपको ठगा जाता है: मंत्रिमंडल सामूहिक रूप से विधानसभा के लिए उत्तरदायी होगा। यदि एक पैसा भी बजट में दिया है तो उसका हिसाब दिया जाए और अगर खर्च नहीं हो पाता तो उसका भी जवाब देना जरूरी हो जाता है लेकिन ये सब नहीं हो पा रहा है। सरकार जवाब देने से बचती है। वहीं विपक्ष का फोकस हंगामे पर ज्यादा रहता है। नतीजन हंगामे के बीच बजट और महत्वपूर्ण विधेयक पास कर दिए जाते है। यदि कोई ठगा जाता है तो वो आप और हम।
दोनों दल बेपरवाह: जब सदन आहूत होता है, तब जनता की उम्मीदें जागती हैं। कुछ शांति से सत्र की कार्यवाही खत्म होने का इंतजार करते हैं। एक तबका वो होता है, जिसका रास्ता धरने, प्रदर्शन और आंदोलन से होकर जाता है। बात कहने के अपने-अपने तरीके हैं, लेकिन सबकी कोशिश यही होती है कि सदन में उनकी सुनवाई हो। लेकिन मध्यप्रदेश की विधानसभा में सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ही जनता की मांगों से बेपरवाह नजर आते हैं। बीते कुछ सालों से सदन जिस तरह से चल रहा है। उसे देख कर तो यही कहा जा सकता है कि गैर संजीदगी इधर भी है और उधर भी है।
बीते दस सालों से कभी विधानसभा सत्र तय बैठकें पूरी नहीं कर सका। हर बार किसी ना किसी वजह से सत्र को तयशुदा वक्त से पहले ही खत्म करना पड़ा। बात शुरू करते हैं, साल 2010 से-
- साल 2010 में 16 बैठकें होनी थीं, हुईं भी.
सत्र का मतलब जनता की उम्मीदें: बजट सत्र सिर्फ चंद दिनों की बैठक ही नहीं, ये जनता की आस और उम्मीदों का सत्र होता है। पूरे साल प्रदेश का विकास किस तरह होगा , इसका खाका भी इसी सत्र में पेश होता है। किस तबके की मांगें पूरी होगी, कौन नाउम्मीद रहेगा, इसका फैसला भी बजट सत्र में ही होता है। सरकार और प्रशासन के स्तर पर बात करें, तो अलग-अलग विभागों के प्रस्ताव, विधायकों के संशोधन और सुझाव भी पेश होते हैं। हर बार तय वक्त से पहले सत्र खत्म होने से, न तो सदन में जनता की बात हो पाती है और न बजट पर चर्चा होती है। हालांकि विधानसभा अध्यक्ष गिरीश गौतम इस बार ये यकीन दिला रहे हैं कि सत्र को निर्धारित समय तक चलाने की पूरी कोशिश होगी। संसदीय कार्यमंत्री नरोत्तम मिश्रा भी ये आश्वासन दे रहे हैं कि वो हर तरह की चर्चा के लिए तैयार हैं। लिहाजा इस बार सत्र पूरा चलने की उम्मीद है।
सत्र का सालाना खर्च तकरीबन सौ करोड़: एक मोटा अनुमान लगाएं तो विधानसभा सत्र का सालाना खर्च तकरीबन सौ करोड़ का होता है, जिसमें 15 करोड़ अनुदान के लिए निकाल दिए जाएं तो बाकी राशि विधायकों के भत्ते, सचिवालय के अधिकारियों के भत्ते, बिजली बिल, पानी जैसी व्यवस्थाओं पर खर्च होते हैं। ये आंकड़ा करीबन 85 करोड़ रूपए का बड़ा आंकड़ा है। इसके अलावा सत्र की कार्यवाही में भाग लेने के लिए भी हर सदस्य को हर दिन डेढ़ हजार रूपए का दैनिक भत्ता मिलता है। जो सत्र के शुरू होने से तीन दिन पहले और तीन दिन बाद तक दिया जाता है। निजी वाहन से आने वाले सदस्य को प्रति किमी 15 रुपए का भी भुगतान होता है। इसके अलावा सवाल जवाब और सत्र की दूसरी तैयारियों पर भी बड़ी राशि खर्च होती है। जनता की पाई पाई किस तरह पानी में बहाई जा रही है, सत्र में माननीयों के तौर तरीके देखकर ये समझ पाना मुश्किल नहीं है।