REWA. एक ओर जहां ग्वालियर (Gwalior) के सिंधिया राजपरिवार (Scindia royal family) के वंशजों की भारतीय राजनीति (Indian Politics) में ठसक कायम है। वहीं, सुप्रतिष्ठित बांधवगद्दी (bandhavgaddi) वाले रीवा राजपरिवार (Rewa Royal Family) के वंशजों (Descendants) को चुनाव के समय राजनीतिक दलों के आगे छुटभैया नेताओं की तरह लाइन पर खड़ा होना पड़ता है। 7 जुलाई को मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान (CM Shivraj singh Chauhan) और प्रदेश बीजेपी अध्यक्ष वीडी शर्मा (State Bjp President VD Sharma) की अगवानी में रीवा राजवंश के चिराग पुष्पराज सिंह (Pushpraj Singh) को सैनिक स्कूल (Sainik School) के हैलीपैड पर भाजपाइयों के बीच मीडिया ने ऐसे ही हाथ जोड़े देखा। कमाल की बात यह कि पुष्पराज सिंह ने मुख्यमंत्री और बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष से पार्टी की विधिवत सदस्यता ली फिर भी मीडिया ने इसे सुर्खियों लायक नहीं समझा।
3 बार विधायक फिर भी इस पार्टी से उस पार्टी में
रीवा राजघराने के आखिरी महाराज मार्तण्ड सिंह (Last Maharaj Martand Singh) के बेटे पुष्पराज सिंह के लिए तो ऐसी ही स्थिति है। वे इस बार फिर से बीजेपी से टिकट के आकांक्षी हैं। पुष्पराज सिंह के बेटे दिव्यराज सिंह (Divyaraj Singh) बीजेपी की टिकट पर सिरमौर से विधायक हैं, लेकिन इस विधायकी में पिता का योगदान दूर-दूर तक नहीं है। सिरमौर से बीजेपी का खाता खोलने के लिए 2013 में विंध्य के कद्दावर नेता पूर्व मंत्री राजेंद्र शुक्ल का सुझाया नाम था, जिसे प्रदेश नेतृत्व ने माना और उसका परिणाम मिला। तब पुष्पराज सिंह कांग्रेस से चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे थे, लेकिन प्रदेश के नेताओं ने गच्चा दे दिया। फिलहाल पुष्पराज उसी बीजेपी में अपना भविष्य तलाश रहे हैं, जिस बीजेपी ने उन्हें हराकर 2003 में घर बैठा दिया था।
जिसने हराया अब उसी के शरणागत
कमाल तो यह कि जिन राजेंद्र शुक्ल ने उन्हें 60 हजार वोटों से हराया था, पुष्पराज उन्हीं को अब अपना तारणहार मानकर चल रहे हैं। इन दिनों वे पूर्व मंत्री और विधायक शुक्ल के हर छोटे बड़े कार्यक्रमों में देखे जा सकते हैं। पुष्पराज सिंह 1990 से 2003 तक कांग्रेस पार्टी से लगातार विधायक रहे। इस बीच दिग्विजय सिंह ने 2 साल के लिए उन्हें शिक्षा व नगरीय प्रशासन का राज्यमंत्री बनाकर अपनी मंत्रिपरिषद में शामिल कर लिया था। 2003 की करारी हार से विचलित पुष्पराज सिंह ने समाजवादी पार्टी का दामन थामा और 2008 का लोकसभा चुनाव भी लड़े। इसके बाद पुष्पराज सिंह न जाने कब कांग्रेस में गए और कब बीजेपी में रहे इसका लेखा नहीं है। लेकिन राजेंद्र शुक्ल के कार्यक्रमों के साथ मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की सभाओं में दिखे, एक बार पार्टी की सदस्यता की रसीद कटवा सो मान सकते हैं कि वे बीजेपी में हैं।
गुढ़ विधानसभा पर है पुष्पराज सिंह की नजर
पुष्पराज सिंह की नजर गुढ़ विधानसभा पर है, वर्तमान विधायक नागेन्द्र सिंह के ओवरएज (80 वर्ष) होने से वे आशान्वित हैं कि टिकट मिल सकती है। राजनीति के साधारण कार्यकर्ता को इतनी मशक्कत करना पड़े ये तो चलता है, पर सिंधिया घराने की बराबरी में प्रतिष्ठित राजवंश के सदस्य को ऐसे दिन देखना पड़े तो कुछ असहज लगता है।
चुनावी लोकतंत्र में क्या राजा, कौन रंक?
डॉ. राममनोहर लोहिया ने यूं ही विंध्य को समाजवाद की प्रयोगशाला नहीं बनाया था। उन्हें मालूम था कि यह धरती लोकतंत्र की एक से एक नजीर गढ़ेगी। 1977 में बघेल राजवंश के अंतिम महाराज मार्तण्ड सिंह को यमुना प्रसाद शास्त्री ने भारी मतों से पराजित कर दिया। शास्त्री को फक्कड़ और तपस्वी राजनेता माना जाता रहा, जो जीवन भर 8X8 की कोठरी में रहे और वाहन के नाम पर उनके दो पांव व किराए का रिक्शा रहा। इन्हीं शास्त्री जी ने 1989 में कांग्रेस के टिकट पर मैदान में उतरीं रीवा राज्य की महारानी प्रवीण कुमारी को हराकर प्रजा के तंत्र की जीत का परचम फहराया।
महाराज मार्तण्ड सिंह के प्रति सभी का सम्मानभाव
विन्ध्य प्रदेश के राज्य प्रमुख (1948-1952) रह चुके महाराज मार्तण्ड सिंह 1972 में निर्दलीय लड़कर चुनावी राजनीति में पदार्पण किया। इस चुनाव में देशभर में सबसे ज्यादा मतों से जीत का कीर्तिमान रचा था। 77 की हार के बाद वे 1980 और 85 में कांग्रेस की टिकट पर रीवा लोकसभा से निर्वाचित होकर पहुंचे। 1989 और 1991 में महारानी प्रवीण कुमारी के लोकसभा चुनाव हारने का सबब बनी बहुजन समाज पार्टी। यानी कि जो इलाका 700 साल तक राजतंत्र में सांस लेता रहा हो, वहां चुनावी लोकतंत्र इस तरह डंके की चोट पर आया कि समूची राजवंश को हाशिए पर लाकर खड़ा कर दिया। फिलहाल इस राजपरिवार के चिराग पुष्पराज सिंह इसी हाशिए पर खड़े होकर अपना भविष्य निहार रहे हैं।