राजनीति का मूल चरित्र और आत्मा एक ही होती है। वह राजनीतिक दलों के रूप में सिर्फ चोला ग्रहण करती है। दिलचस्प यह कि इस बार महापौर के प्रत्याशियों के चयन में बीजेपी में कांग्रेस का चरित्र दिखा तो कांग्रेस में भाजपा का। पहले कांग्रेस में ऐसा हुआ करता था कि क्षत्रप गण अपने-अपने पट्ठों के लिए जीजान सटा देते थे, अन्त में एक लाइन का प्रस्ताव पास होता था कि जो आलाकमान तय करें, वही अंतिम निर्णय होगा। इस बार ऐसी कशमकश भाजपा में देखने को मिली।
राजनीतिक दलों में अधिनायकवादी अवधारणा अब भाजपा का भी स्थाई भाव बनती जा रही है। पार्टी संगठन के जिस आंतरिक लोकतंत्र पर आड़वाणी जी कभी दम भरते हुए कहा करते थे कि देश में भाजपा ही एक मात्र राजनीतिक संगठन है, जिसमें अभी आंतरिक लोकतंत्र जिन्दा है। नब्बे के शुरुआती दशक तक यह बेशक जिन्दा था जब मंडल अध्यक्ष से लेकर प्रदेशाध्यक्ष तक के लिए चुनाव हुआ करते थे। विक्रम वर्मा वर्सेज शिवराजसिंह चौहान के उस चर्चित चुनाव को हमारी पीढ़ी के पत्रकार कैसे भूल सकते हैं। भाजपा में संगठन के आंतरिक लोकतंत्र की बात अब गुजरे दिनों की हो चुकी है। मनोनयन और तदर्थंवाद, शीर्ष नेतृत्व पर निर्णय के लिए निर्भरता लगभग वैसे ही है, जो कि कांग्रेस की परिपाटी बनी बन चुकी है। इस दृष्टि से अब भाजपा को 'पार्टी विद डिफरेंट' कहना बेमानी होगा।
बहरहाल महापौर का प्रत्याशी तय करने में कांग्रेस ने बाजी मार ली। प्रत्याशियों के चयन पर पहले जैसी रस्साकशी नहीं दिखी। इस बार कांग्रेस में यह सब कुछ भाजपाई अनुशासन की तरह हो गया। रणनीतिक तौरपर भी वह फिलहाल आगे है। यह बात अवश्य है कि कांग्रेस कार्यकर्ताओं नहीं अपितु नेताओं की पार्टी बन चुकी है। उसके पास कलेक्टिव लीडरशिप का अभाव है, जान सटाकर अपने प्रत्याशियों के लिए लड़ने वाला काडर भी नहीं बचा।
कांग्रेस में अभी भी वह वृत्ति बनी हुई है कि सामने वाला जीत गया तो हमारा चांस भी खतम, सो टिकट तक न पहुंचने वाले पार्टी के दावेदार प्रतिद्वंदी दावेदारों से ज्यादा खतरनाक होकर उभरते हैं और अपनी ही पार्टी को हराने के लिए रुपए तक खर्च करने में नहीं हिचकते। इस बार ऐसा नहीं होगा, कोई बड़ा कांग्रेसी नेता दावे के साथ नहीं कह सकता। भाजपा में अभी यह वृत्ति इतनी गहरी नहीं है। क्षणिक नाराजी के बाद सब कुछ ठीक हो जाता है और दूसरे नाराज नेता/कार्यकर्ता के लिए अन्य कोई लाभप्रद विकल्प मौजूद नहीं होता। निचले दर्जे के कार्यकर्ताओं तक सतत् प्रशिक्षण ऊर्जा संचारित किए रहता है। भाजपा की यह ताकत क्षीण जरूर हुई है पर मूलतः बची हुई है।
महापौर के प्रत्याशियों की स्थिति लगभग स्पष्ट हो गई है। एक दो दिनों में पार्षदी के प्रत्याशी भी तय हो जाएंगे। महापौर तो सीधे जनता से चुने जाने हैं लेकिन उसके नीचे के नगरनिकायों में वैसा ही दृष्य देखने को मिलेगा जैसा कि छात्रसंघ चुनावों में यूआर और विश्वविद्यालय के लिए धरपकड़ व गोलबंदी होती रही है। चुने हुए जनप्रतिनिधियों के बिकने या खरीदे जाने की प्राणप्रतिष्ठा हो चुकी है। उसे अब कोई भी दल बदनामी का सबब नहीं मानता सो आप उम्मीद कर सकते हैं कि नगरपालिकाओं व परिषदों के लिए और उधर जनपद व जिला पंचायतों के लिए पार्षदों/ सदस्यों के क्या रेट मिलने वाले हैं। कई सदस्य/पार्षद इसी प्रत्याशा से लड़ भी रहे होंगे। मतदाता भी अब समझदार हो चला है सो वह भी वोट के बदले नोट के महत्व को भलीभाँति समझने लगा है। हाँ इस बीच इसे सुखद खबर कह सकते हैं कि मुख्यमंत्री के आह्वान पर बड़ी संख्या में समरस पंचायतें चुनी गई हैं। समरस यानी कि निर्विरोध।
इस चुनाव में एक राजनीतिक दूरंदेशी भी देखने को मिल सकती है। डेढ़ वर्ष बाद विधानसभा के चुनाव हैं और उससे छह महीने बाद लोकसभा के। सो इन चुनावों के परिणामों को सत्ता का सेमीफाइनल कहकर पेश किया जाएगा। स्थानीय चुनावों में कांग्रेस के जमाने में भी महानगरों व नगरों में जनसंघ/भाजपा का वर्चस्व रहा है। पिछले चुनावों तक यह रिकॉर्ड कायम रहा। इस बात का अनुमान लग पाना जरा मुश्किल-सा है। प्रदेश की सरकार के प्रति नाराजगी यहां-वहां रह-रह कर फूटती दिखती है। सबसे मुश्किल यह कि चुनाव की टाइमिंग सत्ताधारी भाजपा के पक्ष में नहीं है। हर शहर में विकास की वास्तविकता बरसात के समय ही प्रकट होती है। सड़के, नालियां, बिजली सभी कसौटी पर होंगी। कई नगर बाढ़ प्रभावित होते हैं उनसे दो चार होना पड़ेगा। बिजली को लेकर मतदाता आश्वस्त हो सकते हैं कि इस चुनाव तक उन्हें उमस भरी गर्मी से परेशान नहीं होना पड़ेगा, भले ही खुद को बेचना पड़े बिजली की व्यवस्था हरहाल पर रहेगी। क्योंकि यह अच्छे से मालूम है कि बिजली गई तो वोट अंधेरे में।
कांग्रेस उत्साह में है कि नगर सरकार के लिए भी वक्त है बदलाव का नारा कारगर हो सकता है। अभी कुछ नहीं कह सकते लेकिन भाजपा कम्फर्ट जोन में नहीं है। पंचायत और नगरीय चुनाव के परिणाम प्रदेश नेतृत्व के स्थायित्व को भी तय करेंगे। भाजपा के अंदरखाने में अभी से ही अगस्त क्रांति की बात शुरू हो गई है। कांग्रेस के पास खोने को कुछ नहीं बचा यदि परिणाम में धह आधे की हिस्सेदारी भी ले लेती है तो उसे अगले चुनाव के लिए संजीवनी बूटी मिल जाएगी।
नगरनिकायों के चुनाव और मेयर का महत्व कभी ऊंचे दर्जे का हुआ करता था। भारत में विधायक और सांसद तो 1952 से चुने जाने शुरू हुए लेकिन अपने देश में नगरीय प्रशासन की व्यवस्था सोलहवीं सदी से चलती आ रही है। 1688 में मद्रास नगर निगम का गठन हुआ इसके बाद 1762 में कोलकाता व मुंबई नगर निगम गठित हुए। यह व्यवस्था अंग्रजों की देन है। मेयर शब्द 1190 में किंग जान के समय यूनाइटेड किंगडम में स्थापित हो चुका था। 1822 में इंग्लैंड मेन म्युनिसिपल कारपोरेशन एक्ट बना जो जस का तस भारत में लागू कर दिया गया। अंग्रजों ने देश के नगरों व महानगरों की व्यवस्था को इसी तहत संचालित किया। जबलपुर, ग्वालियर और इंदौर के नगरनिगम अंग्रेजों के जमाने से हैं। अभी जिस अधिकार संपन्नता के साथ नगरीय व पंचायतों के चुनाव हो रहे हैं। इसका श्रेय पीव्ही नरसिंह राव को जाता है। उन्हीं के कार्यकाल 1992 में 74वां संविधान संशोधन विधेयक आया जो निर्वाचन हेतु कानून बना।
तब मेयर का पद सबसे सम्मानित हुआ करता था। उच्चशिक्षा, सुसंस्कार और स्वस्पर्शी चरित्र खासियत हुआ करती थी। एक तरह से जैसे राष्ट्रपति देश का प्रथम नागरिक हुआ करता था, वैसे ही मेयर। मेयर जिसे हमने हिन्दी में महापौर का नाम दे दिया है, वास्तव में उस शहर की नाक हुआ करते थे। मध्यप्रदेश के यशस्वी महापौरों में हमने भवानी प्रसाद तिवारी(जबलपुर), नारायण कृष्ण शेजवलकर (ग्वालियर) राजेन्द्र धारकर(इंदौर) के नाम सुने हैं बिलासपुर के मेयर राघवेंद्र राव का भी बड़ा नाम था। अपने रीवा के इलाकेदार हारौल नर्मदा प्रसाद सिंह पंडित जवाहर लाल नेहरू के शहर इलाहाबाद(अब प्रयाग) के दो बार मेयर रहे हैं। रीवा तब नगरपालिका थी। उसके एक अध्यक्ष थे नारेन्द्र सिंह। श्री सिंह थे तो कांग्रेसी लेकिन जब डा.राममनोहर लोहिया रीवा आए तो उन्होंने उनका नगर की ओर से ऐतिहासिक नागरिक अभिनंदन किया। रीवा का नारेन्द्र नगर मोहल्ला उन्हीं के नाम है। तब नगर में जो भी महापुरुष आता था, वह मेयर का मेहमान होता था और उसका नागरिक अभिनंदन हुआ करता था। पृथ्वीराज कपूर का भी रीवा में नागरिक अभिनंदन हुआ। अपने सतना में दो सुप्रसिद्ध चिकित्सक अध्यक्ष व महापौर हुए। डॉ. लालता खरे जिन्होंने अपना सर्वस्व ही सतना शहर को दान दे दिया। दूसरे थे डॉ. बीएल यादव, वे बच्चों के डॉक्टर थे, महिलाएं इन्हें अपना भाई-बेटा, भगवान सदृश्य मानती थीं। खुले चुनाव में वे निर्दलीय लड़े और रिकॉर्ड मतों से जीते। महापौर का पद धारण करने वालों में अद्वितीय गरिमा रहती थी वे चयनित होने के बाद पार्टी निर्पेक्ष हो जाया करते थे। क्या हम अब ऐसे मूल्यों की अपेक्षा कर सकते हैं।
पतन चौतरफा हुआ है। हमारा चरित्र ही तो लोकतंत्र के मूल चरित्र को बनाता है। हम जितने खुदगर्ज हुए उसी हिसाब से व्यवस्था भी ढ़लती गई। बहरहाल सामने चुनाव है, आप वोट न देंगे तो भी वे चुने जाएंगे तो हम क्यों न कम खराब उम्मीदवार के लिए अपना वोट दें। हो सकता है वही कल खरा निकल जाए।