Rewa : तब भाजपा के पास चेहरे तक नहीं थे, विधायक जी ने गेटकीपर को बनवा दिया मेयर!

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The Sootr CG
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Rewa : तब भाजपा के पास चेहरे तक नहीं थे, विधायक जी ने गेटकीपर को बनवा दिया मेयर!

जयराम शुक्ल. रीवा आज अकेले रीवा की क्या कहें समूचे विन्ध्य में भाजपा अपराजेय सी है, लेकिन कभी ऐसे भी दिन थे जब मेयर या अन्य पदाधिकारियों के लिए भाजपा को एक अदद उम्मीदवार भी ढूंढे नहीं मिलते थे। बात कर रहे हैं 1994 के रीव नगर निगम चुनाव की जब मेयर और उप मेयर के लिए कांग्रेस के ही उम्मीदवार एक दूसरे के सामने थे। और जिन्हें रीवा नगर निगम का पहला मेयर बनने का श्रेय मिला वे एक विधायक की टाकीज के गेटकीपर थे। 1994 के चुनाव के पहले तक रीवा नगरपालिका थी।



टाकीज के गेट कीपर बने मेयर



तो शुरू करते हैं किस्सा सीधे मेयर के पद से। वह समय था कांग्रेस के चरमोत्कर्ष का। विन्ध्य में स्पीकर श्रीनिवास तिवारी की तूती बोलती थी, लेकिन अर्जुन सिंह का खेमा भी कम नहीं। दिग्विजय सिंह कैबिनेट के मंत्री डॉ.राजेन्द्र कुमार सिंह यहां के प्रभारी हुआ करते थे।1994 का नगरीय निकाय चुनाव आया। मेयर का चुनाव पार्षदों से होना था। नब्बे फीसदी पार्षद कांग्रेस से चुनकर आ गए। अब मेयर कौन बने? इसकी रस्साकशी शुरू। तिवारी खेमे ने तनवंत सिंह कीर(स्थानीय शासन मंत्री) के रिश्तेदार कमलजीत डंग को खड़ा किया। अर्जुन सिंह खेमे को मंजूर नहीं। इस खेमे की अगुवाई कर रहे डॉ. राजेन्द्र सिंह और नागेन्द्र सिंह ने आकृति टाकीज के गेटकीपर अमीरुल्ला खान को अपना उम्मीदवार घोषित कर दिया। आकृति नागेन्द्र सिंह की टाकीज थी। नागेन्द्र तब भूतपूर्व विधायक थे पर दम में कमी नहीं थी। वे रीवा नगरपालिका के आखिरी निर्वाचित अध्यक्ष थे, उसके बाद ही नगर निगम बना और ये पहला चुनाव था। सो नागेन्द्र का दखल स्वाभाविक था। इस बीच कांग्रेस का तीसरा गुट सामने आ गया। इस गुट की अगुवाई राजेन्द्र शुक्ल(तब युवा कांग्रेस के प्रदेश पदाधिकारी) के साथ वीरेन्द्र आर्य और संजीव मोहन गुप्ता कर रहे थे। इस गुट ने कुछ कांग्रेसी, कुछ निर्दलीय और इक्का दुक्का भाजपाई पार्षदों को जोड़कर शहर के चर्चित डॉक्टर नरेश चौरसिया की पत्नी डॉ.ऊषा चौरसिया को खड़ा कर दिया। मुकाबला त्रिकोणीय और दिलचस्प था। नागेन्द्र सिंह का दांव और मंत्री राजेन्द्र सिंह का रसूख काम आया। और टाकीज में टिकट फाड़ने वाले अमीरे चच्चा उर्फ अमीरुल्ला खान शहर के प्रथम पुरुष (मेयर) बन गए। तिवारी जी अमहिया में भनभनाते ही रह गए।



उप महापौर के लिए भी आपस में भिड़ गए



नगर निगम में अध्यक्ष(स्पीकर) का पद बाद में बना। इस बार मेयर की तरह डिप्टी मेयर का चुनाव हुआ था। एक ही दिन। तिवारी गुट ने ठेकेदार नागेश्वर त्रिपाठी को डिप्टी मेयर का उम्मीदवार घोषित कर दिया। तो उधर अर्जुन सिंह गुट ने कालेज से पढ़कर निकली दीपाली जैन को अपना प्रत्याशी बना दिया। इस चुनाव में लग रहा था कि कसमकश होगी। राजेन्द्र सिंह ने एक चाल चली और तिवारी गुट के एक पार्षद विजय तिवारी को डिप्टी मेयर बनाने का लालच देकर फोड़ लिया। समर्थक प्रस्तावक उपलब्ध कराकर विजय तिवारी को भी चुपके से लड़ा दिया। विजय ने तिवारी गुट के तीन पार्षद फोड़ लिए और इधर दीपाली जैन डिप्टी मेयर चुन ली गईं। अमहिया गुट को इस बार भी मात मिली। दीपाली जैन साल भर भी डिप्टी नहीं रह पाईं, विवाह तय हुआ तो इस्तीफा दिया और ससुराल चली गईं। फिर श्रीनिवास तिवारी ने अपना डिप्टी मेयर मनोनीत करवा लिया.. शायद शकुंतला पान्डेय। तब भाजपा का रीवा में हाल कुछ इसी तरह का था कि एक अदद पार्षद भी दीया लेकर ढूंढे नहीं मिलता।



पार्षदी हारे पर आगे चलकर विधायक बने



रीवा के करामाती नेताओं में अभय मिश्रा चर्चित नाम है। 1994 के चुनाव में अभय श्रीनिवास तिवारी के अमहिया मोहल्ले वाले वार्ड से उनके भाई यदुनाथ तिवारी 'निच्चे' के खिलाफ निर्दलीय लड़ गए। यह चुनाव हारने के बाद अभय चर्चित और निर्भय हो गए। इसका ठेकेदारी में लाभ मिला और आगे बढ़ते गए। इतना आगे बढ़े कि सिरमौर से जनपद अध्यक्ष और फिर सेमरिया से विधायक बन गए। भाजपा ने उनकी टिकट काटकर पत्नी को दे दी तो उसे भी जीता लिया व खुद जिला पंचायत अध्यक्ष बन गए। इस बार रीवा से कांग्रेस से लड़े और राजेन्द्र शुक्ल से हारे..लेकिन पार्षदी की हार को चुनौती मानकर यहां तक का मुकाम हासिल किया। 

एक और महाशय हैं पंचूलाल प्रजापति। 94 के चुनाव में पार्षद पद के लिए जमानत जब्त हो गई। पर 1998 में देवतलाब से जो भाजपा के विधायक बने सो अबतक बनते ही आ रहे हैं। तीन बार खुद जीते एक बार उनकी मालकिन।



जब शोर मचा कि सिंधिया अपना मेयर लड़ाएंगे



इस चुनाव ने कई ऐसे नेताओं को अपनी महत्वाकांक्षा का पर फैलाने का मौका दिया। रीवा में सिंधिया के सहपाठी हैं जयंत खन्ना। अच्छे कारोबारी और शहर के प्रतिष्ठित। उनके छोटे भाई राजीव खन्ना क्रिकेट के स्टेट प्लेयर थे। सिंधिया जी की राजनीति परवान पर थी। सोचा राजीव पार्षद बन गए तो मेयर बनाने में महाराज का रुतबा काम आएगा। बस राजीव खन्ना दीगर वार्ड से लड़ गए। धन पानी की तरह बहाया। आवारा छोकरों की बल्ले बल्ले। हर जगह पंडाल और झंका-मंका, लगा इन्हें कौन हरा सकता है। चुनाव के दिन उन छोकरों ने दगा दे दिया। शहर में पार्षद चुनाव में सिन्धिया इफेक्ट के काफी किस्से चले। राजीव खन्ना चुनाव हार गए और तब से राजनीति से तौबा भी कर ली। विधायकी की उम्मीदवारी का दम रखने वाले युवा कांग्रेस के कई जोशीले भी चित्त हो गए, जिनमें कृष्ण प्रिय मैत्रेय और डॉ.मुजीब खान भी थे। इन दोनों को बाद में विधानसभा चुनाव में भाजपा की टिकटें भी मिलीं पर जीत न सके। सबसे चर्चित हार रामेश्वर सोनी की रही। यमुनाप्रसाद शास्त्री के चेले रामेश्वर चर्चित व क्रांतिकारी मीसाबंदी थे जिन्हें आड़ा-बेड़ी के साथ जेल की तनहाई में रखा गया था। इन्होंने भी पार्षदी की जोर आजमाइश की। परिणाम निकला तो पांचवे नंबर पर थे। मतगणना स्थल पर ही चिल्लाने लगे कि 19 महीना जेल आड़ा-बेड़ी और रिजल्ट सिफर।


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