Bhopal. राजनीति में भाग्य की भूमिका भी महत्वपूर्ण होती है। हथेली में राजयोग की लकीर हो तो हाथ ठेला धकाने वाला भी चुनाव जीतकर राजनेता बन सकता है वहीं मरीजों की चीरफाड़ करने वाले आला दर्जे के डॉक्टर को भी अस्पतालों के बजाय शहर के वार्डों में राउंड लेना पड़ जाते हैं। वहीं कोई महिला भले ही लंबे समय से घर में रोटी बेल रही हो अथवा केवल परिवार संभाल रही हो, लेकिन भाग्य पलटते ही वह पहली नागरिक और शहर सरकार की मुखिया बन जाती है। ऐसे दिलचस्प नजारे भोपाल के लोगों ने पहले चुनाव से लेकर कई बार देखे हैं। भोपाल के पहले मेयर के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ।
अमेरिका से पढ़ाई करने के बाद भोपाल के कस्तूरबा हास्पिटल के कार्डियो सर्जन डॉ. आरके बिसारिया ने कम समय में ही खासा नाम कमा लिया था। भेल के कामगारों और रहवासियों के बीच तो उनकी ख्याति हो ही गई, तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह भी उनके कायल हो गए थे। मुख्यमंत्री अपने इलाज के लिए डॉ. बिसारिया को ही याद करते थे। लगातार आने-जाने से मुख्यमंत्री निवास के चिकित्सा अधिकारी का तमगा भी उनके साथ जुड़ गया। मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह की नब्ज डॉ. बिसारिया के हाथों में थी तो उनके दिल की हर धड़कन के मायने समझ रहे थे। मगर अर्जुन सिंह को भी सियासत का चाणक्य यूं ही नहीं कहा जाता था, उनके दिल में क्या चल रहा है यह डॉक्टर साहब का आला भी नहीं पकड़ पाया। बस सीएम का आदेश था तो भेल के वार्ड 55 से नामांकन फार्म भर दिया। सरकार अपनी थी तो कांग्रेस को दिल में बसाने वाले भी उस दौर में कम नहीं थे, फिर डॉक्टर साहब की प्रसिद्धि भी काम कर गई। उस समय भोपाल की राजनीति को अपनी उंगली पर नचाने वाले कायस्थ समाज से डॉक्टर साहब थे ही तो बाकी समीकरण भी सध गए और वे भोपाल नगर निगम के पहले चुनाव में ही पार्षद बन गए। 56 वार्डों वाले शहर में 43 पार्षद कांग्रेस के चुनकर पहुंचे थे तो 11 में नौ एल्डरमैन भी कांग्रेस के बने। चूंकि उस समय महापौर को पार्षद ही चुनते थे तो सारे दांवपेंच के बाद भी हुआ वही जो सीएम अर्जुन सिंह चाहते थे और सारे दावेदार मन मसोस कर बैठ गए और ना चाहते हुए भी डॉक्टर साहब शहर के पहले मेयर बन गए।
फिर वही हुआ जो होना तय था, दो और बन गए मेयर
खैर! डॉक्टर साहब जीत गए और महापौर भी बन गए, लेकिन न तो काम करने में उनका मन लगा और न राजनीति ही रास आई। इसका परिणाम यह हुआ कि उन्होंने एक साल पूरा होते ही पद छोड़ने का मन बना लिया। मगर एक बार फिर सीएम अर्जुन सिंह के दिल की आवाज आई और डॉ. बिसारिया ने दूसरा साल भी बतौर महापौर पूरा कर लिया। यहां बताना जरूरी है कि पहले महापौर का कार्यकाल एक साल ही होता था, हालांकि नगर निगम परिषद पांच साल के लिए ही चुनी जाती थी। तो दूसरा साल पूरा होते ही डॉक्टर साहब ने महापौरी छोड़ दी। और मौका हाथ लग गया दीपंचद यादव के। यादव ने भी दो साल महापौरी की और पांचवें साल में ही तीसरे महापौर बना दिए गए दादा मधु गार्गव। इस बीच प्रदेश के सीएम भी बदल गए और बदले हुए समीकरण में अर्जुन सिंह के बाद मोतीलाल वोरा ने प्रदेश की कमान संभाल ली। उपमहापौर हर बार जहीर अहमद ही रहे।
जब मधु दादा के काम आ गया सीएम पर तमतमाना
पूर्व सीएम स्व.अर्जुन सिंह को जानने वाले यह भी अच्छी तरह से जानते हैं कि उनके आगे तेज आवाज में बोलने की जुर्रत किसी की नहीं होती थी, लेकिन नए भोपाल के वार्ड 31 से पार्षद रहे मधु गार्गव के लिए सीएम के सामने तमतमाना लाभकारी साबित हुआ। दीपचंद यादव का दूसरा टर्म यानी दूसरा साल पूरा होने के पहले ही महापौर बनने के लिए खींचतान मच गई थी। नए - नए नाम सामने आने पर मधु दादा नाराज हो गए और सीधे अर्जुन सिंह के सामने ही नाराजगी जताते हुए बोल दिया कि आपने तो मेरा जीवन बर्बाद कर दिया, मुझे मिला क्या है, परिवार के लोग भी टोकने लगे है। अपने समर्थकों का हमेशा ख्याल रखने वाले अर्जुन सिंह ने दादा की इस नाराजगी को हंसकर टाल दिया। नाराजगी शांत होने के बाद दादा को अफसोस होता रहा, लेकिन तब खुशी का ठिकाना नहीं रहा, जब उन्हें महापौर बना दिया गया।
कांग्रेस को उल्टा पड़ा फ्री फॉर आल का फॉर्मूला
पांच साल में तीन महापौर मिलने के बाद नगर निगम चुनाव के ही लाले पड़ गए। दस साल तक चुनाव ही नहीं हुए, जब चुनाव हुए तो सरकार कांग्रेस की ही थी। मगर टिकट को लेकर खींचतान इतनी ज्यादा मची की कांग्रेस प्रत्याशी ही घोषित नहीं कर सकी और चुनाव फ्री फॉर आल यानी जो जीतकर आया वो कांग्रेस का। मगर यह दांव काम नहीं आया। कांग्रेस के अधिकांश नेता और पूर्व पार्षद एक दूसरे के लिए वोट कटवा साबित हुए। परिणामस्वरूप भाजपा बहुमत के साथ चुनाव जीती और चौथे महापौर बने उमाशंकर गुप्ता। अप्रत्यक्ष चुनाव यानी पार्षदों के जरिए मेयर की चेयर पर पहुंचने वाले आखिरी महापौर रहे गुप्ता। अपने साथ मेयर का कार्यकाल भी दोबार बदलवाने में महापौर गुप्ता सफल रहे। पहले जहां मेयर का टर्म एक साल था, जिसे गुप्ता ने ढाई साल करा लिया, फिर ढाई साल पूरे होते ही इसे बढ़वाकर 5 साल करा लिया। अब निगम परिषद के साथ मेयर का कार्यकाल भी 5 साल का होता है।
और भोपाल से जुड़ गया पार्षद पिटाई कांड
1999 में पहली बार महापौर पद के लिए हुए प्रत्यक्ष चुनाव में कांग्रेस की विभा पटेल बीजेपी प्रत्याशी राजो मालवीय को हरा कर नगर निगम में पहुंची। परिषद भी कांग्रेस की बनी, लेकिन अध्यक्ष के चुनाव के दौरान ऐसी घटना हुई कि पार्षद पिटाई कांड के नाम से दर्ज हो गई। असल में अध्यक्ष पद के लिए कांग्रेस और बीजेपी दोनों आमने-सामने थे। बीजेपी के पार्षद लॉटरी से अध्यक्ष चुनने की मांग कर रहे थे। जैसे तैसे वोटिंग के जरिए अध्यक्ष चुनने का फैसला हुआ, लेकिन कांग्रेस के एक पार्षद ने अपना वोट दिखाते हुए वोटिंग कर दी। बस, फिर क्या था भाजपा पार्षदों ने वो हंगामा बरपाया कि आचार्य नरेंद्रदेव पुस्तकालय में बैठे मंत्री आरिफ अकील, कलेक्टर एसके वशिष्ठ भी उन्हें संभाल नहीं पाए।
हंगामा रोकने के लिए अंदर ही पुलिस ने लाठीचार्ज कर दिया। लाठीचार्ज भी ऐसा कि आलोक शर्मा, आलोक संजर, भगवानदास सबनानी, रामेश्वर शर्मा, महेश मकवाना सहित बीजेपी के कई पार्षद घायल हो गए। सभी को अस्पताल में भर्ती कराना पड़़ा। हंगामे के बीच सुनील सूद अध्यक्ष चुन लिए गए। महापौर विभा पटेल का यह कार्यकाल पार्षद पिटाई के साथ ही सरकार बदलने पर अंतिम छह माह पहले परिषद भंग होने के लिए भी रिकॉर्ड में दर्ज है, जब तत्कालीन सीएम उमा भारती ने भोपाल नगर निगम परिषद को भंग कर दिया था। यह कदम पूरी तरह से राजनीति से प्रेरित था। मामला अदालत तक पहुंचा।
सूद कांग्रेस के आखिरी मेयर, फिर बीजेपी का कब्जा
2003 में बीजेपी भले ही प्रदेश की सत्ता से कांग्रेस को हटाने में सफल हो गई हो, लेकिन तगड़ी घेराबंदी और उठापटक के बाद भी भोपाल नगर निगम पर कब्जा नहीं कर सकी। शहर की जनता ने पूरी ताकत से कांग्रेस की परिषद बनवाई। बीजेपी के भगवान दास सबनानी को हराकर सुनील सूद महापौर चुने गए। बीजेपी के रामदयाल प्रजापति निगम परिषद अध्यक्ष बनाए गए। इसके बाद दो चुनावों में कांग्रेस को जनता ने नगर निगम से दूर ही रखा। 2009 के चुनाव में कांग्रेस में अचानक उभरकर सामने आईं आभा सिंह को मैदान में उतारा। बीजेपी से पूर्व सीएम बाबूलाल गौर की बहू कृष्णा गौर को अपना प्रत्याशी बनाया।
इसके बाद पिछले चुनाव में आलोक शर्मा ने कांग्रेस के जिलाध्यक्ष कैलाश मिश्रा को लंबे अंतर से हराया।पिछले दो चुनावों से कांग्रेस महापौर तो दूर परिषद अध्यक्ष भी हासिल करने लायक नहीं रही। इस दौरान सरकार अपने दल की होने के कारण बीजेपी के पार्षदों ने जरूर अपनी ताकत बढ़ाने का काम किया है। मगर अब यही ताकत इस चुनाव में पार्टी के लिए परेशानी का सबब बन गई है। दावेदार भी कई गुना बढ़ गए हैं।