BHOPAL. न्यूज स्ट्राइक में चंद ही रोज पहले हमने आपको बताया था कि मालवा निमाड़ की सीटें क्यों महत्वपूर्ण है। 66 सीटें वाले बड़े क्षेत्र के समीकरण समझने के बाद अब समझिए ग्वालियर चंबल की सीटें क्यों दोनों दलों के लिए अहम है। मध्यप्रदेश की सत्ता बैंक के उस हाई सिक्योर्ड लॉकर की तरह है जिसका ताला सिर्फ एक ही चाबी से नहीं खुलता है। मालवा में छुपी सत्ता की चाबी मिल भी गई तो और ग्वालियर चंबल की चाबी भी चाहिए ही होगी। ताकि सत्ता की ताकत को अनलॉक किया जा सके, लेकिन यहां मामला मालवा निमाड़ से भी ज्यादा पेचिदा है। मालवा लंबे समय से बीजेपी का गढ़ रहा है, लेकिन ग्वालियर चंबल के हालात 2020 के बाद से बदल चुके हैं। इसलिए इस बार कांग्रेस और बीजेपी दोनों को ही नया गणित लगाकर ग्वालियर चंबल पर फतह हासिल करनी है।
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कांग्रेस के गढ़ियों के पास अपने गढ़ बचाने की चुनौती
ग्वालियर चंबल की जंग पहले कभी इतनी उलझी हुई नहीं थी। ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस का हिस्सा थे। उनके रुतबे और साख वाली सीटों पर कांग्रेस की जीत पक्की थी, लेकिन अब महाराज बीजेपी के हो चुके हैं। कांग्रेस की कोशिश है कि उनके साथ-साथ उनका किला भी कहीं बीजेपी के नाम न हो जाए। साथ ही वो सीटें भी हाथ से न निकल जाएं जो अब तक हमेशा कांग्रेस की झोली में ही गिरती रहीं। सिंधिया कांग्रेस में थे तो कभी राघौगढ़ की तरफ रुख नहीं किया, लेकिन अब कांग्रेस के गढ़ियों के पास अपने-अपने गढ़ बचाने की बड़ी चुनौती खड़ी हो गई है। राघौगढ़ ही क्यों जितनी सीटों पर कांग्रेस ने बीजेपी का लंबे अरसे से खाता नहीं खुलने दिया है उन सब पर बीजेपी अलग से नजर जमाए बैठी है।
ग्वालियर चंबल में ज्यादा सीटें निकालना बेहद जरूरी है
बीजेपी और कांग्रेस दोनों ग्वालियर चंबल के लिए खास रणनीति तैयार कर रही हैं। इस क्षेत्र की कुछ सीटों पर पर्सनली अमित शाह नजर रख रहे हैं और वहीं इनके लिए खास रणनीति भी तैयार करेंगे। ये वो सीटें हैं जो लगातार कांग्रेस के खाते में जा रही हैं। जिन पर न मोदी की आंधी का असर पड़ा न इतने साल की बीजेपी की सत्ता के बावजूद यहां कांग्रेस से लोगों ने नाता तोड़ा। बीजेपी अपनी रणनीति पर फोकस कर रही है तो कांग्रेस ने भी ग्वालियर चंबल को कम नहीं आंका है। सिंधिया के जाने के बाद यहां उनकी ताकत कम हुई है उसकी भरपाई तेजी से जारी है। दोनों ही पार्टी जानती हैं कि ग्वालियर चंबल में ज्यादा सीटें निकालना बेहद जरूरी है।
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कांग्रेस को बीजेपी की माइक्रो प्लानिंग से भी बचना है
ग्वालियर चंबल की सीटों ने साल 2018 के चुनाव में भी बीजेपी को गहरा जख्म दिया था। दलितों की नाराजगी के चलते इस अंचल में बीजेपी 34 में से सिर्फ 7 सीटें जीत चुकी थी, जबकि कांग्रेस ने साल 1985 के बाद यहां सबसे बड़ी जीत हासिल की थी। अब इतने लंबे अंतराल के बाद मिली इस कामयाबी को कांग्रेस किसी कीमत पर खोना नहीं चाहती है। यही वजह है कि सिंधिया की कमी पूरी करने के लिए प्रियंका गांधी ने यहां से चुनावी आगाज किया। लहार से विधायक गोविंद सिंह के लिए कमलनाथ ने नेता प्रतिपक्ष की कुर्सी छोड़ दी और दिग्विजय सिंह भी इस क्षेत्र में जबरदस्त तरीके से एक्टिव हैं। चुनौती न सिर्फ गढ़ बचाने की है बल्कि, बीजेपी की माइक्रो प्लानिंग से भी बचना है।
बीजेपी की कोशिश सभी समीकरणों को साधने की है
एक बार की चोट खाई बीजेपी भी इस बार ग्वालियर चंबल की अनदेखी को राजी नहीं है। यहां ज्योतिरादित्य सिंधिया तो एक्टिव हैं ही नरेंद्र सिंह तोमर को भी खास जिम्मेदारी दी गई है। ग्वालियर चंबल में दलित वोटर्स को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता यही वजह है कि लाल सिंह आर्य को प्रकोष्ठ का मुखिया बनाया गया है। कोशिश सभी समीकरणों को साधने की है ताकि पिछले नुकसान की भरपाई के साथ साथ नई-नई सीटें भी हासिल की जा सकें।
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लहार की सीट, जो बीजेपी 33 सालों से भेद नहीं सकी है
कांग्रेस की कोशिश जहां अपनी पुरानी सीटों को बचाए रखने की है वहीं कुछ खास सीटों पर बीजेपी ने फोकस बढ़ा दिया है। कहा तो ये भी जा रहा है कि खुद अमित शाह कुछ सीटों पर खासतौर से ध्यान दे रहे हैं। ये वो सीटें हैं जहां बीजेपी लाख कोशिशों के बावजूद खाता नहीं खोल सकी है। इन सीटों में शामिल है। लहार की सीट, जो बीजेपी 33 सालों से भेद नहीं सकी है। कांग्रेस के कद्दावर नेता गोविंद सिंह यहां से लगातार 7 बार जीत चुके हैं। दूसरी सीट है राघौगढ़ विधानसभा सीट। ये सीट दिग्विजय सिंह के परिवार की सीट मानी जाती है। 1990 से लगातार यहां से कांग्रेस की ही जीत हो रही है। पहले यहां से लक्ष्मण सिंह जीतते रहे। उसके बाद दिग्विजय सिंह ने दो बार जीत हासिल की। 2008 में दादा भाई मूल सिंह जीते। 2013 से यहां जयवर्धन सिंह जीतते आ रहे हैं। तीसरी सीट है पिछोर विधानसभा, यहां से लगातार तीस साल से कांग्रेस नेता केपी सिंह जीतते आ रहे हैं। बीजेपी यहां से स्वामी प्रसाद लोधी और प्रीतम लोधी को मैदान में उतार चुकी है, लेकिन हार ही नसीब हुई। चौथी सीट है भितरवार की सीट कांग्रेस के लाखन सिंह यहां मजबूती से जमे हैं। बीजेपी के कद्दावर नेता अनूप मिश्रा भी उनकी सीट हासिल नहीं कर सके। पांचवी सीट है डबरा, यहां 2008 से कांग्रेस ही काबिज है। 2020 में इमरती देवी ने कांग्रेस छोड़ बीजेपी का दामन थामा। सिंधिया के सपोर्ट से अधिकांश दलबदलू जीते, लेकिन पूरी मेहनत के बावजूद इमरती देवी बीजेपी में अपनी जीत दोहरा नहीं सकी और सीट कांग्रेस के सुरेश राजे के खाते में चली गई।
इन सीटों के अलावा ग्वालियर पूर्व की सीट भी सिकरवार परिवार के हाथ से खींचने की ख्वाहिश है। इन पांच सीटों पर बीजेपी एड़ी चोटी का जोर लगा रही है। कांग्रेस भी ग्वालियर जिले की सीटों को हाथ से जाने नहीं देना चाहती है। चुनाव ज्यादा दूर नहीं है। उम्मीद की जानी चाहिए कि दोनों ही दलों की रणनीति ग्वालियर चंबल में खुलकर सामने होगी।
दल बदलुओं के चलते यहां असंतोष आसमान पर है
ग्वालियर चंबल की नब्ज को थामना फिलहाल दोनों ही दलों के लिए बहुत आसान नहीं है। दल बदलुओं के चलते यहां असंतोष आसमान पर है। जिसका डर बीजेपी में बना हुआ है और कांग्रेस इस डर को कैश कराने की फिराक में है। ये जीत का शॉर्टकट जरूर हो सकता है, लेकिन श्योरशॉट होगा ये कहा नहीं जा सकता। ऐसे में अगर ये कहें कि बाकी चार अंचलों के मुकाबले ग्वालियर चंबल की जंग सबसे दिलचस्प होगी तो कुछ गलत नहीं होगा।