BHOPAL. इन 66 सीटों का जादू ही कुछ ऐसा है जो हर चुनाव में पार्टियों के सिर चढ़ कर बोलता है। इस बार आठ पार्टियां इन सीटों पर अपना हक जमाने की कोशिश में हैं। ये सीटें हैं मालवा निमाड़ के अंचल में आने वाली 66 सीटें। प्रदेश का चुनावी इतिहास इस बात का गवाह है कि जो इन 66 सीटों में से ज्यादा से ज्यादा सीट हासिल करने में कामयाब होता है, प्रदेश के मुखिया का ताज भी उसी के सिर पर सजता है। बीजेपी ने इस नब्ज को पिछले चार बार से थाम कर रखा है। वैसे ये पकड़ 2018 में थोड़ी कमजोर जरूर पड़ी थी, लेकिन फिर दल बदल के जरिए उसे कस दिया गया। इस बार बीजेपी और कांग्रेस के लिए मालवा की जंग इतनी आसान नहीं है। उनकी रणनीति को तहस नहस करने के लिए कुछ और दल इस अंचल में घुसपैठ के लिए तैयार खड़े हैं।
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मालवा का इतिहास जो इसे जीता वह प्रदेश जीता
मालवा की जंग इस बार बहुत आसान नहीं है। मालवा का मन किस दल में लगेगा या लग रहा है ये कहना अभी जल्दबाजी हो सकता है। पर, ये दावे के साथ कहा जा सकता है कि मालवा में हर दल का मन लग रहा है। पार्टी छोटी हो या बड़ी, नई हो या पुरानी मालवा की 66 सीटों में से ज्यादा से ज्यादा सीटें हासिल करना चाहती हैं। मालवा का चुनावी इतिहास भी यही इशारा करता है कि जो इस अंचल को जीत लेता है वो प्रदेश को बहुत आसानी से जीत जाता है।
- 1990 में बीजेपी की सरकार बनी। मालवा निमाड़ से 52 सीटें जीतीं।
पिछले चुनाव में मुकाबला कांटे का था और नतीजों में भी खास अंतर नहीं था। नतीजा ये हुआ कि चुनाव के पंद्रह महीने बाद कांग्रेस नंबर गेम में हार गई। अब दोनों ही दलों का खास फोकस मालवा निमाड़ की सीटों पर सबसे ज्यादा है।
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मालवा के रण में इस बार और भी टीम्स मुकाबले को दिलचस्प बनाएगी
इस बार मुकाबला पहले से ज्यादा मुश्किल है। फिर वो भले ही कांग्रेस हो या चार साल से सत्ता पर काबिज बीजेपी हो। दोनों के लिए ही मालवा में अपना मैजिक चलाना इतना आसान नहीं है। क्योंकि अब मुकाबला सिर्फ उन दोनों के बीच में नहीं है। मालवा के रण में इस बार और भी टीम्स मुकाबले को दिलचस्प बनाने के लिए उतर रही है। वैसे बीजेपी और कांग्रेस ने भी अपने सबसे मजबूत प्लेयर्स पर ही भरोसा किया है, लेकिन नए-नए खिलाड़ी ज्यादा जोश और ताजगी के साथ मैदान में उतर रहे हैं। जो चुनावी मनोटनी तोड़ने में जरा भी कामयाब रहे तो नतीजों का रुख बदल सकते हैं।
मालवा में दिग्विजय सिंह पूरी ताकत के साथ एक्टिव हैं
मालवा का जलवा हर बार की तरह इस बार भी चुनावी मैदान में नजर आने लगा है। बीजेपी ने इस क्षेत्र में कसावट लाने की तैयारियां शुरू कर दी हैं। औपचारिक बैठकों के दौर के बाद उनका पहला बड़ा कार्यक्रम मालवा का ही रहा। इंदौर में उन्होंने कार्यकर्ताओं को संबोधित करने के बाद इस क्षेत्र की कमान कद्दार नेता कैलाश विजवर्गीय को सौंप दी। कांग्रेस के पास पूरे मालवा पर पकड़ रखने वाला कैलाश विजयवर्गीय जैसा बड़ा चेहरा तो नहीं हैं, लेकिन यहां पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह पूरी ताकत के साथ एक्टिव हैं। उनके अलावा यहां अरूण यादव और कांतिलाल भूरिया जैसे नेताओं का भी सहारा है। दिग्विजय सिंह के बेटे जयवर्धन सिंह भी इस क्षेत्र में लगातार एक्टिव हैं।
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छोटे दल भी किंग मेकर बनने का प्रयास करते नजर आ रहे हैं
- इस बार दोनों ही दलों की जंग आसान नहीं है। जिस तरह बीजेपी और कांग्रेस ये जानती हैं कि मालवा निमाड़ की अनदेखी भारी पड़ेगी। उसी तरह बहुत से नए और छोटे दल ये समझ चुके हैं कि सत्ता में भागीदारी चाहिए तो मालवा निमाड़ को बस में करना ही होगा। किंग बनना तो मुश्किल है, लेकिन किंग मेकर तो बन ही जाएंगे। इस उम्मीद के साथ...
इन दलों के अलावा छोटे मोटे आदिवासी संगठन भी मालवा की आदिवासी बेल्ट में एक्टिव हो रहे हैं। किसान आंदोलन वाले शिव कुमार कक्काजी भी सक्रिय होते दिख रहे है। हालांकि, कांग्रेस बीजेपी जैसी सक्रियता किसी और दल या संगठन में फिलहाल दिखाई नहीं दे रही, लेकिन चुनाव आने तक कोई भी संगठन जरा सा जोर मारेगा तो चुनावी नतीजों पर आसानी से असर डाल सकता है।
मालवा ऐसा चुनाव थाल है जिसमें हर तरह का फ्लेवर है
मालवा निमाड़ में छिपी सत्ता की चाबी को हासिल करना इस बार इतना भी आसान नहीं हैं। छोटे दल और संगठनों की वजह से परत दर परत ये चाबी पुराने और माहिर दलों से दूर हो रही है। जिसका नतीजा सीटों की संख्या पर जरूर दिखाई देगा। मालवा भी ऐसा चुनाव थाल है जिसमें हर तरह का फ्लेवर है। आदिवासी सीटों से लेकर मॉर्डन मतदाता तक इस सीट पर है। किसान और उद्योगपति भी सीट पर मतदाता है। इन वर्गों में सेंध लगाने की कोशिश में जुटे छोटे और नए दलों के बीच कांग्रेस और बीजेपी में से जो ज्यादा से ज्यादा सीट निकाल ले जाएगी। वही पार्टी सत्ता की नई सिरमौर साबित होगी।