BHOPAL. चुनाव से पहले बीजेपी में बहुत तेजी से नए बदलाव नजर आ रहे हैं। कुछ फैसले प्रत्याशित हैं और कुछ अप्रत्याशित से नजर आते हैं। अब तक लग रहा था कि इस बार चुनाव में ज्योतिरादित्य सिंधिया को बड़ी जिम्मेदारी सौंपी जाएगी। 2018 में वो कांग्रेस के चुनावी पोस्टर बॉय रहे हैं। जिनके चेहरे पर ही कांग्रेस को जीत मिलने का दावा भी होता रहा है, लेकिन अब बीजेपी में ये चेहरा फिलहाल पहले तीन नंबर पर भी नजर नहीं आ रहा है। इससे उलट चुनावी मैदान में कभी उनके विरोधी रहे नेता ज्यादा बड़े कद के साथ वापसी करते नजर आ रहे हैं। पहले नरेंद्र सिंह तोमर और अब कैलाश विजयवर्गीय बड़ी भूमिका में दिखाई दे रहे हैं। सियासी मैदान में दोनों ही कभी सिंधिया के विरोधी रहे हैं। चुनाव से पहले कैलाश विजयवर्गीय की यूं वापसी आलाकमान के इरादों की तरफ काफी कुछ इशारा करती है।
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मध्यप्रदेश में अब चेहरा कोई भी हो फैसला दिल्ली का ही होगा
मध्यप्रदेश में केंद्रीय मंत्री अमित शाह के लगातार हो रहे दौरे ये साफ इशारा कर रहे हैं कि पार्टी के अंदर चुनाव से जुड़ी रणनीतिक तैयारियां और बदलाव तेजे से होंगे और हो भी रहे हैं। पहले ही प्रवास के बाद नरेंद्र सिंह तोमर को अहम जिम्मेदारी मिलना ये इशारा करता है कि अब चेहरा कोई भी हो फैसला दिल्ली का ही होगा। इस फैसले के बाद एक बार फिर आलाकमान में एक बड़े कार्यक्रम के लिए इंदौर को चुन कर फिर चौंका दिया। पहले अमित शाह भोपाल आकर फिर इंदौर जाने वाले थे। कार्यक्रम में बदलाव हुआ और अमित शाह सीधे इंदौर पहुंचे। यहां कार्यकर्ताओं को संबोधित किया। जिस जगह अमित शाह का भाषण जारी था वहां कार्यकर्ताओं की भारी भीड़ थी। कार्यकर्ताओं को सभास्थल तक लाने और सभा के पूरे इंतजाम का जिम्मा इस बार सरकार या पार्टी का नहीं था बल्कि मालवा के दिग्गज नेता कैलाश विजयवर्गीय ने ही ये जिम्मा संभाला। अब तक प्रदेश से बाहर दूसरे प्रदेशों की चुनावी जिम्मेदारी संभाल रहे कैलाश विजयवर्गीय अचानक मध्यप्रदेश की सत्ता के केंद्र में आ गए हैं। उन्हें आलाकमान ने यहां भी बड़ी जिम्मेदारी सौंपी है। कैलाश विजयवर्गीय का अचानक पिछली पंक्ति से उठकर आगे आना और फिर प्रदेश के अहम नेताओं की पंक्ति में शामिल हो जाना काफी कुछ इशारे करता है।
सिंधिया के गढ़ में असंतोष को संभालने का काम भी विजयवर्गीय को
पर, सवाल ये उठता है कि कैलाश विजयवर्गीय ही क्यों। अचानक जो भरोसा कैलाश विजयवर्गीय पर जताया जा रहा है उसकी वजह क्या है। ज्योतिरादित्य सिंधिया क्यों नहीं। जो ग्वालियर चंबल में दबदबा कायम करने के लिए ही लाए गए थे। ऐसे नाम और भी हैं जिन्हें बड़ी जिम्मेदारी सौंपी जा सकती थी, लेकिन आलाकमान ने कैलाश विजयवर्गीय को चुना है। इसकी एक नहीं कई वजह हैं। विजयवर्गीय की सक्रियता से मालवा में तो पैठ बढ़ेगी ही सिंधिया के गढ़ पनप रहे असंतोष को संभालने का काम भी उन्हें ही सौंपा जा सकता है।
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विजयवर्गीय ने साबित किया कि प्रदेश में उनकी पकड़ मजबूत है
इंदौर में विशाल सभा करवाकर कैलाश विजयवर्गीय ने ये तो साबित कर दिया कि भले ही उन्होंने कुछ जरूरी साल पश्चिम बंगाल को दे दिए हों, लेकिन प्रदेश में उनकी पकड़ कम नहीं हुई है। मध्यप्रदेश में भी एक बार फिर आलाकमान उन पर भरोसा करने पर मजबूर नजर आ रहे हैं। उन्हें प्रदेश के वरिष्ठ नेताओं के साथ चुनाव प्रबंधन समिति में लिया गया है। माना जा रहा है कि विजयवर्गीय के चुनाव संचालन के अनुभव को देखते हुए सारे नेताओं को दरकिनार कर उन्हें यह जवाबदारी दी गई है।
पुराने साथियों को मनाए रखने के लिए विजयवर्गीय से भरोसेमंद कोई नहीं
कैलाश विजयवर्गीय के तेवर कुछ दिन पहले से ही आक्रामक नजर आने लगे थे। कोर कमेटी की भरी बैठक में वो काफी पहले अपने ही साथियों को खरी-खरी सुना चुके थे। बैठक में उन्होंने साफ कहा था कि बीजेपी को हराने का काम खुद बीजेपी के ही नेता करेंगे। ये कांग्रेस के बस की बात नहीं है। इशारा साफ था कि नए भाजपाइयों की वजह से नाराज चल रहे पुराने भाजपाई ही पार्टी की परेशानी बनेंगे। उन पुराने साथियों को मनाए रखने के लिए खुद कैलाश विजयवर्गीय से ज्यादा भरोसेमंद विकल्प पार्टी के पास नजर नहीं आ रहा। दीपक जोशी के दल बदल के बाद नाराज बताए जा रहे कुछ पुराने नेताओं को मनाने की जिम्मेदारी भी कैलाश विजयवर्गीय की ही है। इन सबसे अहम वजह है मालवा का गढ़। जिसे बीजेपी किसी भी हालत में गंवाना नहीं चाहती है। खुद अमित शाह का पूरा भाषण भी रविवार को मालवा की सीटों पर ज्यादा फोकस्ड रहा। इस गढ़ को थामने के लिए बीजेपी को एक मजबूत नेता का साथ चाहिए। उस मामले में भी कैलाश विजयवर्गीय से बेहतर कोई विकल्प नजर नहीं आता।
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सिंधिया को प्रदेश में तो दूर चंबल में भी अहम जिम्मेदारी नहीं
तोमर के बाद विजयवर्गीय का कद बढ़ना क्या इस बात का इशारा माना जा सकता है कि पार्टी में अब सिंधिया का कद घटाने की तैयारी है। अब तक सिंधिया को प्रदेश में तो दूर ग्वालियर चंबल में भी अहम जिम्मेदारी या मिशन नहीं सौंपा गया है। तोमर और सिंधिया के बीच चल रहा शीत युद्ध तो जग जाहिर है ही कैलाश विजवर्गीय से भी दोस्ताना ताल्लुकात बीजेपी में आने के बाद ही बने हैं। इससे पहले अलग-अलग दलों में रहकर दोनों एक दूसरे की जमकर खिलाफत करते रहे हैं। क्या तोमर और विजयवर्गीय के एक होने के बाद उसका असर सिंधिया पर नहीं पड़ेगा।
बीजेपी की चुनावी तैयारी सिर्फ 2023 की नहीं बल्कि 2024 तक की है। विधानसभा के बाद उसी रफ्तार और कसावट से लोकसभा चुनाव तक पहुंचना है।
कार्यकर्ताओं को ये संदेश देना जरूरी कौन भरोसेमंद उनके साथ है
अमित शाह अपने हर दौरे के साथ संगठन को कसते जा रहे हैं। पुराने नेताओं के हाथ बागडोर थमाने का मतलब सिर्फ उनके कद में इजाफा करना नहीं है। बल्कि कार्यकर्ताओं तक ये संदेश पहुंचाना भी है कि उनके पुराने भरोसेमंद चेहरे ही उनके साथ हैं। खासतौर से मध्यप्रदेश में कार्यकर्ताओं को ये भरोसा दिलाना न सिर्फ जरूरी था बल्कि मजबूरी भी थी, लेकिन इस फैसले का असर दूसरे नेताओं पर भी पड़ेगा या नहीं इसका आकलन भी जरूरी है। तोमर और विजयवर्गीय का कद बढ़ने का असर सिंधिया पर तो पड़ेगा ही सीएम शिवराज सिंह चौहान पर भी नजर आ सकता है। हालांकि, तोमर और चौहान हमेशा साथ-साथ रहे हैं, लेकिन विजयवर्गीय के साथ कभी खुशी कभी गम वाला साथ रहा है। इस बार विजयवर्गीय की आमद शिवराज के लिए क्या पैगाम लेकर आएगी ये देखना भी दिलचस्प होगा।