BHOPAL. एक कहावत है आ बैल मुझे मार। सीधा सा अर्थ है इसका कि खुद ही मुसीबत को न्यौता देना। और, मध्यप्रदेश में बीजेपी ने कुछ ऐसा ही काम किया है। केंद्रीय मंत्री अमित शाह के दौरों के बाद पार्टी में हालात सुधर रहे थे। पुराने चेहरों को आगे लाने की रणनीति के साथ बीजेपी की चुनावी गाड़ी पटरी पर लौट रही थी। अचानक पार्टी को क्या सूझी की ऐसा फैसला ले डाला, जिसने फिर उस गाड़ी को पटरी से उतार दिया है। अमित शाह के लगातार दौरों के बाद पार्टी में विद्रोह की आवाज उठना तकरीबन खत्म हो चुकी थीं। असंतोष भी दब सा गया था। इसी बीच एक नया शगूफा छोड़कर खुद बीजेपी ने ही उस सुलगती आग को हवा दे दी है।
मंत्रिमंडल विस्तार से फिर जागी नाराजगी और उम्मीदें
चुनावी साल में मंत्रिमंडल विस्तार होना आम बात है। मध्यप्रदेश में भी इस बार बीजेपी नेताओं को इसका शिद्दत से इंतजार था, लेकिन साल गुजरता गया चुनाव नजदीक आते गए और मंत्रिमंडल विस्तार टलता रहा। बीच-बीच में ये सुगबुगहाटें जरूर होती रहीं कि मंत्रिमंडल विस्तार होने वाला है। इन सुगबुगाहटों के साथ हर बार असंतोष भी सतह पर आता रहा, लेकिन जब से अमित शाह ने प्रदेश की चुनावी कमान कसी ऐसे हर असंतोष और नाराजगी पार्टी के काबू में होती नजर आई। कसावट का असर साफ दिखाई दिया। पार्टी के अंदर भी और कार्यकर्ताओं के बीच भी। स्थिति में सुधार हो रहा था तब अचानक मंत्रिमंडल का जिन्न फिर बोतल से बाहर निकल आया। पार्टी ने ये ऐलान कर दिया कि चुनाव से पहले मंत्रिमंडल विस्तार होगा। इस एक ऐलान ने वो काम कर दिया जिससे बचने की अब तक पूरी कोशिश थी। असंतोष, नाराजगी और उम्मीदें सब एक बार फिर जाग गए।
अनार सिर्फ 4 और बीमार यानी दावेदार बहुत ज्यादा
आचार संहिता लगने में बमुश्किल 45 से 50 दिन का समय बचा है। सारे विधायक ये मान चुके थे कि अब इतने कम अंतराल के लिए विस्तार तो होने से रहा, लेकिन आला नेताओं ने खुद ही ऐलान कर दिया और उनकी सोई उम्मीदों को जगा दिया। जो विधायक और दावेदार खामोशी से अपने क्षेत्र में चुनाव प्रचार में जुट चुके थे। वो फिर मंत्री बनने के सपने सजाने लगे हैं। शिवराज कैबिनेट में सिर्फ पांच और मंत्री बनने की गुंजाइश है। चार पदों को भरने के लिए सारे काम रोककर, रणनीति तय करने वाले नेता इस मंथन में जुटे हैं कि किसे मंत्रीपद से नवाजा जाए। कई दौर की बैठक में भी नतीजा नहीं निकल सका है। सहमति दो ही नाम पर बनी है। पर, समस्या इससे भी बड़ी है। चार नाम फाइनल हो भी गए तो भी बीजेपी के लिए घाटे का सौदा ही साबित होंगे। क्योंकि अनार सिर्फ चार हैं और दावेदार बहुत ज्यादा।
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मंत्रिमंडल के ऐलान से हालात बिगड़ भी सकते हैं
मंत्रिमंडल पर कोई भी फाइनल फैसला लेने से पहले बीजेपी को बहुत से फैक्टर्स को ध्यान में रखना है। उसे बड़े नेताओं के बीच से चुनाव करना है कि वो उमा भारती को नाराज करेंगे या ज्योतिरादित्य सिंधिया को, प्रहलाद पटेल को या फिर कैलाश विजयवर्गीय को। चुनाव ये भी करना है कि वो महाकौशल की नाराजगी मोल लेंगे, विंध्य की नाराजगी मोल लेंगे या फिर बुंदेलखंड को फिर रूठने पर मजबूर करेंगे। कुल मिलाकर स्थिति ये बनती नजर आ रही है मंत्रिमंडल के ऐलान से हालात बनने की जगह बिगड़ सकते हैं।
मंत्रिमंडल विस्तार को लेकर मंथन लगातार जारी है
मंत्रिमंडल विस्तार को लेकर गुरुवार सुबह भी मंथन जारी रहा। केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर, अश्विनी वैष्णव, सीएम शिवराज सिंह चौहान, वीडी शर्मा और हितानंद शर्मा सब मिलकर चार नेताओं को तय करने के लिए मगजमारी करते रहे, लेकिन दो ही नामों पर सहमति बन सकी। जिसमें से एक नाम विंध्य के बड़े नेता राजेंद्र शुक्ल का बताया जा रहा है जो बुधवार से राजधानी में ही डेरा जमाए रहे। दूसरा नाम गौरी शंकर बिसेन का बताया जा रहा है। दो और नामों के लिए बैठकें अब मुख्यमंत्री के छिंदवाड़ा दौरे के बाद होंगी।
खामोश दावेदारों को फेस करने का संकट भी बड़ा
अब बीजेपी के सामने सबसे बड़ा संकट उन दावेदारों को फेस करने का है जो अब तक खामोश थे। उमा भारती के रिश्तेदार और पहली बार के विधायक राहुल लोधी के भी समर्थकों के साथ भोपाल आने की खबरें हैं। इसके अलावा ऐसे नेता जिन्हें दो पदों पर एडजस्ट कर पाना नामुमकिन है उनकी लिस्ट जरा लंबी है...
- उमा भारती को शांत करने के लिए पार्टी ने प्रीतम लोधी का वेलकम किया।
अजय विश्नोई, संजय पाठक, यशपाल सिंह सिसोदिया, नागेंद्र सिंह (गुढ़), रामपाल सिंह, सुरेंद्र पटवा, पारस जैन, करण सिंह वर्मा, महेंद्र हार्डिया, डॉ. सीतासरन शर्मा जैसे वरिष्ठ विधायक भी मंत्री बनने की आस संजोए बैठे थे। उनकी उम्मीदों को फिर जगा दिया गया है। अब ये उम्मीदें पूरी नहीं हुईं तो जो असंतोष था उसके पनपने का डर भी है। अब 45 दिन के लिए मंत्री का पावर उपयोग कर चार नेता कुछ खास कमाल तो कर नहीं सकेंगे, लेकिन चार को खुश करके पार्टी को उससे कहीं गुना ज्यादा नेताओं की नाराजगी का अंजाम भुगतना पड़ सकता है। वहीं इसका फायदा कांग्रेस को हो सकता है।
फिलहाल तो बड़े नेताओं में ही सहमति नहीं बन सकी और चंद दिनों के लिए विस्तार रद्द हो गया।
गुटबाजी-नाराजगी को काबू करना बीजेपी के सामने नई चुनौती है
चुनावी रास्ते में नए कांटे बीजेपी ने खुद बोए हैं। नाम भले ही दो नेताओं का चुनना है, लेकिन ये ठीक वैसा ही है जैसे मधुमक्खी के छत्ते में हाथ डालकर रानी मधुमक्खी को खोजना। सत्ता की रानी मिलेगी या नहीं पर हाथ जख्मी होने की संभावनाएं पूरी हैं। यही हालात एक बार फिर बीजेपी में नजर आने लगे हैं। अब तक गुटबाजी और नाराजगी को काबू करने में जुटी बीजेपी के सामने नई चुनौती है, कम समय में खुद की बिगाड़ी स्थितियों को फिर ठीक करने की। इसमें कामयाबी ही चुनाव का रास्ता आसान करेगी।