NEW DELHI. कश्मीर से अनुच्छेद 370 को खत्म करने, ट्रिपल तलाक को हटाने, अयोध्या में रामजन्म भूमि पर मंदिर के निर्माण के बाद क्या भारतीय जनता पार्टी (BJP) ने अपने चौथे प्रमुख चुनावी वादे की ओर कदम बढ़ा दिया है ? ये वादा है देश में समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code) लागू करने का। देश में बरसों से बहस के इस मुद्दे पर नागरिकों और धार्मिक संगठनों के सुझाव लेने के लिए हाल ही में जारी किया गया विधि आयोग (law Commission) का पब्लिक नोटिस इस बात का प्रमाण है कि मोदी सरकार ने यूसीसी की ओर अपने कदम बढ़ा दिए हैं। आइए आपको बताते हैं कि देश में करीब सात दशक से सियासी बहस और तकरार का विषय बनी समान नागरिक संहिता का क्या मतलब है और इसे लागू करना कितना चुनौतीपूर्ण हैं। देश के लिए बेहद महत्वपूर्ण इस मुद्दे पर आप भी अपनी राय विधि आयोग तक पहुंचा सकते हैं।
समान नागरिक संहिता मतलब क्या?
- दरअसल समान नागरिक संहिता (UCC) का मतलब है देश में सभी जेंडर और धर्मों के नागरिकों के लिए एक समान कानून होना। अभी हमारे देश में शादी, तलाक, बच्चा गोद लेने और प्रापर्टी के उत्तराधिकार से जुड़े सभी धर्मों के अलग-अलग कानून हैं। जैसे- हिंदुओं के लिए हिंदू पर्सनल लॉ और मुस्लिमों के लिए मुस्लिम पर्सनल लॉ के मुताबिक।
- दक्षिणपंथी हिंदूवादी संगठन समान नागरिक संहिता की मांग मुस्लिम पर्सनल लॉ के कथित 'पिछड़े' क़ानूनों का हवाला देकर उठाते रहे हैं। मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत तीन तलाक वैध था जिसके तहत मुसलमान तुरंत तलाक़ दे सकते थे लेकिन मोदी सरकार ने साल 2019 में इसे आपराधिक बना दिया।
- देश में समान नाागरिक संहिता के मुद्दे पर अगस्त 2018 में 21वें विधि आयोग ने अपने कंसल्टेशन पेपर में लिखा था-'इस पर विचार में इस बात को ध्यान में रखना होगा कि इससे हमारी विविधता के साथ कोई समझौता न हो और कहीं ये हमारे देश की क्षेत्रीय अखंडता के लिए खतरे का कारण न बन जाए।'
- समान नागरिक संहिता लागू करने के लिए अलग-अलग धर्मों को मानने वाले लोगों के शादी, तलाक, गोद लेने, उत्तराधिकार और संपत्ति का अधिकार से जुड़े कानूनों को सुव्यवस्थित और एकरूप करना होगा। 21वें विधि आयोग ने कहा था कि इसके लिए देशभर में संस्कृति और धर्म के अलग-अलग पहलुओं पर विचार करने की जरूरत होगी।
समान नागरिक संहिता क्यों महत्वपूर्ण है?
- समान नागरिक संहिता भारत में हमेशा से एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा रही है। संविधान में इसे नीति निर्देशक तत्व में शामिल किया गया है।
- संविधान के अनुच्छेद 44 में कहा गया है कि सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता लागू करना सरकार की जिम्मेदारी है। अनुच्छेद 44 उत्तराधिकार, संपत्ति अधिकार, शादी, तलाक और बच्चे की कस्टडी के बारे में समान कानून की अवधारणा पर आधारित है।
- देश में समान नागरिक संहिता के मुद्दे को केंद्र में सत्ताधारी पार्टी बीजेपी ने लोकसभा चुनाव के अपने घोषणापत्र में 1998 और 2019 में भी शामिल किया था। बीजेपी का चुनावी घोषणा पत्र कहता है कि जब तक भारत समान नागरिक संहिता नहीं अपना लेता है तब तक लैंगिक समानता नहीं हो सकती है। नवंबर 2019 में बीजेपी सांसद नारायण लाल पंछारिया ने संसद में इस पर प्रस्ताव दिया लेकिन विपक्षी सांसदों के विरोध के बाद प्रस्ताव को वापस ले लिया गया था।
- दूसरी बार मार्च 2020 में बीजेपी से राज्यसभा सांसद किरोड़ीलाल मीना इस पर बिल लेकर आए थे। हालांकि, इस बिल को संसद में पेश नहीं किया गया। इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट में भी इसे लेकर कई याचिकाएं दायर की गईं हैं।
- 2018 में विधि आयोग ने अपने कंसल्टेशन पेपर में लिखा था, 'भारत में अलग-अलग पारिवारिक कानूनों में कुछ ऐसी प्रथाएं हैं, जो महिलाओं के खिलाफ भेदभाव करती हैं, जिनमें सुधार करने की जरूरत है।'
यूसीसी की राह में क्या-क्या चुनौतियां ?
दरअसल भारत जैसे सामाजिक-धार्मिक और सांस्कृतिक विविधता और बड़ी आबादी देश में समान नागरिक क़ानून लागू करना बेहद चुनौतीपूर्ण है। इसे उदाहरण के तौर पर देखें तो हिंदू भले ही व्यक्तिगत क़ानूनों का पालन करते हैं लेकिन वो विभिन्न राज्यों में विभिन्न समुदायों की प्रथाओं और रीति-रिवाजों को भी मानते हैं। दूसरी ओर मुस्लिम पर्सनल लॉ भी पूरी तरह सभी मुसलमानों के लिए समान नहीं हैं। जैसे- कुछ बोहरा मुसलमान उत्तराधिकार के मामले में हिंदू क़ानूनों के सिद्धांतों का पालन करते हैं।
- देश में आजादी के बाद से ही एक समान नागरिक संहिता और पर्सनल लॉ में सुधारों की मांग होती रही है, लेकिन धार्मिक संगठनों और राजनीतिक नेतृत्व में एकराय नहीं बन पाने के कारण ऐसा अब तक नहीं हो सका। यहां तक कि अभी सुप्रीम कोर्ट में कई याचिकाएं विचाराधीन हैं।
- अलग-अलग राज्यों की कई मुस्लिम महिलाओं की ओर से सुप्रीम कोर्ट में कई याचिकाएं दायर की गई हैं। इनमें इस्लामिक कानून की प्रथाएं- तलाक-ए-बैन (तुरंत तलाक), मुता (कॉन्ट्रैक्ट मैरिज), निकाह हलाला की वैधता को चुनौती दी गई हैं।
- सिख धर्म की शादियां आनंद मैरिज एक्ट 1909 के दायरे में आती हैं, लेकिन इस कानून में तलाक का कोई प्रावधान नहीं है। लिहाजा सिखों में तलाक हिंदू मैरिज एक्ट के तहत होता है।
गोद लेने का कानून भी अलग-अलग
- अलग-अलग धर्मों में गोद लेने के कानून भी अलग-अलग हैं। उदाहरण के लिए, पारसियों में गोद ली गई बेटी को कोई अधिकार नहीं है, जबकि गोद लिए बेटे को अपने पिता के अंतिम संस्कार का अधिकार है। हालांकि संपत्ति में दत्तक बेटे का भी अधिकार नहीं होता।
- यहां तक की नाबालिग बच्चे की गार्जियनशिप और उत्तराधिकार को लेकर भी अलग-अलग धर्मों में अलग-अलग कानून हैं। सुप्रीम कोर्ट में मृत पुरुषों और मृत महिलाओं के उत्तराधिकारियों के बीच भेदभाव को दूर करने के लिए हिंदू उत्तराधिकार कानून में बदलाव की मांग को लेकर भी कई याचिकाएं दायर की गई हैं।
- 1985 में विधि आयोग ने 110 वीं रिपोर्ट में उत्तराधिकारियों की परिभाषा में बदलाव की सिफारिश की थी। रिपोर्ट में नाजायज बच्चों को भी उत्तराधिकारी बनाने की सिफारिश की गई थी, लेकिन इसका जमकर विरोध हुआ था।
पैतृक संपत्ति में महिलाओं के अधिकार पर अलग-अलग नियम
- इसी तरह आयोग की 174वीं रिपोर्ट में पैतृक संपत्ति में महिलाओं को भी बराबर अधिकार की सिफारिश की थी। इसे लेकर 2005 में हिंदू उत्तराधिकारी कानून में संशोधन भी किया गया था। लेकिन 2020 में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद ही ये साफ हो पाया था कि जिन महिलाओं के पिता की मौत 2005 से पहले हो चुकी है, वो भी पैतृक संपत्ति में बराबर की भागीदार हैं।
- 2018 में विधि आयोग ने एक ही धर्म के भीतर मौजूद अलग-अलग प्रथाओं का भी जिक्र किया था। उदाहरण के लिए- मेघालय में कुछ जनजातियां 'मातृसत्तात्मक' हैं और वहां पैतृक संपत्ति पर सबसे छोटी बेटी का अधिकार है। वहीं, गैरो जनजाति में दामाद अपनी पत्नी के माता-पिता के साथ रहता है। इसी तरह नागा जनजातियों में महिलाओं को अपने समुदाय से बाहर शादी करने और पैतृक संपत्ति में अधिकार नहीं है।
शादी की उम्र और तलाक के कानून भी अलग
- गोवा में 1867 का समान नागरिक कानून है जो कि उसके सभी समुदायों पर लागू होता है लेकिन कैथोलिक ईसाइयों और दूसरे समुदायों के लिए अलग नियम हैं। जैसे कि सिर्फ गोवा में ही हिंदू दो शादियां कर सकते हैं।
- इससे पहले 1984 में विधि आयोग ने तलाक के बाद हिंदू महिलाओं के रखरखाव से जुड़े कानून में बदलाव की सिफारिश की थी। 1983 में ईसाई महिलाओं में तलाक के आधारों में बदलाव की सिफारिश भी की थी। इससे भी पहले 1960 में विधि आयोग ने ईसाइयों में शादी और तलाक से जुड़े कानूनों में सुधार की सिफारिश की थी।
- 1961 में विधि आयोग ने अपनी 18वीं रिपोर्ट में पति या पत्नी में से किसी एक के धर्मांतरण करने पर तलाक का आधार मानने का सुझाव दिया था। इसी तरह 2009 में ये सिफारिश की थी कि यदि कोई व्यक्ति एक से ज्यादा शादी करने के लिए धर्मांतरण करता है तो इसे अपराध के दायरे में लाया जाना चाहिए। हालांकि, रिपोर्ट में ये भी कहा था कि कुछ जनजातियों में बहुविवाह या बहुपति की भी अनुमति है जो संविधान के तहत संरक्षित है।
- 2017 में विधि आयोग ने 270वीं रिपोर्ट में शादियों के रजिस्ट्रेशन और शादी की कानूनी उम्र का मुद्दा उठाया था। इसमें कहा था कि बाल विवाह और सहमति से नाबालिग से संबंध बनाना रेप के दायरे में आता है, उसके बावजूद हिंदू कानून में 16 साल की लड़की और 18 साल के लड़के में शादी की इजाजत है, भले ही ये कानूनी रूप से ये 'शून्य' हो। इसी तरह मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत नाबालिगों की शादी की इजाजत है।
यूसीसी पर क्या है अदालतों की राय ?
- 1985 में शाहबानो के मामले में फैसला देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा था- 'संसद को एक समान नागरिक संहिता की रूपरेखा बनानी चाहिए, क्योंकि ये एक ऐसा साधन है जिससे कानून के समक्ष समान सद्भाव और समानता की सुविधा मिलती है।'
- 2015 में एक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था- ईसाई कानून के तहत ईसाई महिलाओं को अपने बच्चे का 'नैचुरल गार्जियन' नहीं माना जा सकता। जबकि अविवाहित हिंदू महिला को बच्चे का 'नैचुरल गार्जियन' माना जाता है। उस समय सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि समान नागरिक संहिता एक संवैधानिक जरूरत है।
- 2020 में लैंगिक समानता सुनिश्चित करने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने हिंदू उत्तराधिकार कानून में 2005 में किए गए बदलाव की व्याख्या की थी। अदालत ने ऐतिहासिक फैसले में बेटियों को भी बेटों की तरह पैतृक संपत्ति में समान हिस्सेदार माना था। दरअसल 2005 में हिंदू उत्तराधिकार कानून-1956 में संशोधन किया गया था। इसके तहत पैतृक संपत्ति में बेटियों को बराबरी का हिस्सा देने की बात कही गई थी।
- 2021 में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने भी कहा था कि संसद को समान पारिवारिक कानून लाने पर विचार करना चाहिए, ताकि लोग अलग-अलग कानूनी बाधाओं का सामना किए बगैर स्वतंत्र रूप से मिल-जुलकर रह सकें।
यूसीसी पर ये है मोदी सरकार का नजरिया
उल्लेखनीय है कि पिछले साल दिसंबर में तत्कालीन कानून मंत्री किरेन रिजिजू ने राज्यसभा में कहा था कि समान नागरिक संहिता को सुरक्षित करने के प्रयास में राज्यों को उत्तराधिकार, विवाह और तलाक जैसे मुद्दों को तय करने वाले व्यक्तिगत कानून बनाने का अधिकार दिया गया है। वहीं, केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में पेश अपने एक हलफनामे में कहा था कि देश के सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता लागू करना सरकार का दायित्व है। सरकार ने इसके लिए संविधान के चौथे भाग में मौजूद राज्य के नीति निदेशक तत्वों का ब्यौरा दिया।
यूसीसी की राह में संवैधानिक अड़चन नहीं
बीजेपी की विचारधारा से जुड़े राम मंदिर और अनुच्छेद 370 की राह में कई कानूनी अड़चनें थी, मगर समान नागरिक संहिता मामले में ऐसा नहीं है। सुप्रीम कोर्ट से लेकर कई राज्यों के हाईकोर्ट ने कई बार इसकी जरूरत बताई है। सुप्रीम कोर्ट ने समान नागरिक संहिता के लिए उत्तराखंड सरकार के खिलाफ दायर याचिका खारिज कर दी। इसी संदर्भ में केंद्र सरकार ने भी सुप्रीम कोर्ट में कहा था कि वह समान कानून के पक्ष में है। संविधान के अनुच्छेद 44 में वर्णित नीति निर्देशक सिद्धांतों में समान नागरिक संहिता की वकालत की गई है।
उत्तराखंड में गठित कमेटी की रिपोर्ट का इंतजार
दरअसल, अब देश भर में समान नागरिक संहिता लागू करने के लिए सरकार और विधि आयोग को उत्तराखंड सरकार द्वारा जस्टिस रंजना देसाई की अध्यक्षता में गठित कमेटी की रिपोर्ट का इंतजार है। सरकार इसी रिपोर्ट के आधार पर समान नागरिक संहिता को पूरे देश में लागू करने के लिए मॉडल कानून बनाने की तैयारी में है। गौरतलब है कि देसाई कमेटी रिपोर्ट पेश करने से पहले अंतिम चरण की बैठकें कर रही है।
गुजरात-मध्यप्रदेश को भी रिपोर्ट का इंतजार
उत्तराखंड की तर्ज पर गुजरात और मध्यप्रदेश की बीजेपी सरकार ने भी समान नागरिक संहिता लागू करने का वादा किया है। केंद्र सरकार की तरह इन दो राज्य सरकारों को भी जस्टिस रंजना कमेटी की रिपोर्ट का इंतजार है। समान नागरिक संहिता कानून पर गुजरात कैबिनेट मुहर भी लगा चुकी है।
पहले कुछ राज्यों में लागू करने की रणनीति
बीजेपी इस समान नागरिक संहिता के मुद्दे पर जनसंख्या नियंत्रण कानून की तर्ज पर कदम उठा सकती है। गौरतलब है कि जनसंख्या नियंत्रण के लिए पहले पार्टी शासित राज्यों असम और उत्तर प्रदेश ने कदम उठाए। इसके अन्य बीजेपीशासित राज्यों ने इसमें दिलचस्पी दिखाई। सूत्रों का कहना है कि समान नागरिक संहिता मामले में भी बीजेपी यही रणनीति अपना सकती है। इसके तहत पहले कुछ राज्य इसे लागू करें और बाद में इसे पूरे देश में लागू किया जाए।
लॉ कमीशन ने 5 साल बाद शुरू की प्रक्रिया
बाइसवें विधि आयोग ने समान नागरिक संहिता पर आम जनता और धार्मिक संगठनों से विचार-विमर्श की प्रक्रिया शुरू कर दी है। आयोग ने इस बारे में 14 जून 2023 को पब्लिक नोटिस जारी कर नागरिकों, सार्वजनिक संस्थानों और धार्मिक संगठनों के प्रतिनिधियों से एक महीने में उनके सुझाव मांगे हैं। इससे पहले मार्च 2018 में 21वें विधि आयोग ने विचार-विमर्श के बाद दी अपनी रिपोर्ट में कहा था कि फिलहाल देश को समान नागरिक संहिता की जरूरत नहीं है। लेकिन उसने पारिवारिक कानून यानी फैमिली लॉ में सुधार की सिफारिश की थी। 21वें विधि आयोग की रिपोर्ट के पांच साल बाद 22वें विधि आयोग ने एक बार फिर यूसीसी के मुद्दे पर विचार-विमर्श की प्रक्रिया शुरू की है।
आप भी,यूसीसी पर ऐसे दे सकते हैं अपने सुझाव
विधि आयोग ने यूसीसी पर अपनी राय देने के लिए 30 दिन का समय दिया है। अपने सुझाव या राय देने की आखिरी तारीख 14 जुलाई है। आप अपनी राय तीन तरह से दे सकते हैं। पहला- विधि आयोग की वेबसाइट के जरिए, दूसरा- ईमेल के जरिए और तीसरा- पोस्ट के जरिए।
1- ऑनलाइन सुझाव legalaffairs.gov.in/law_commission/ucc/ पर जाकर दे सकते हैं। यहां एक पेज खुलेगा, इसमें अपनी सारी डिटेल भरकर तीन हजार शब्दों में अपने सुझाव या राय दे सकते हैं।
2- इसके अलावा आप चाहें तो अपनी राय या सुझाव को membersecretary-lci@gov.in पर ईमेल भी कर सकते हैं।
3- तीसरा विकल्प ये है कि आप अपने सुझाव या राय लिखें और पोस्ट के जरिए विधि आयोग के नई दिल्ली ऑफिस को भेज दें। ऑफिस का पता है- मेंबर सेक्रेटरी, लॉ कमिशन ऑफ इंडिया, चौथा फ्लोर, लोकनायक भवन, खान मार्केट, नई दिल्ली- 110003. आयोग 14 जुलाई तक राय और सुझाव मिलने के बाद कुछ लोगों या संगठनों के प्रतिनिधियों को भी चर्चा के लिए बुला सकता है।