हरीश दिवेकर, BHOPAL. आमतौर पर चुनावी नतीजे आने के बाद नेताओं की बॉडी लैंग्वेज, उनके जैश्चर से हार का अफसोस या जीत की खुशी झलकने लगती है। लेकिन इस बार तो माहौल कुछ ऐसा है कि जो हाल दिल का इधर हो रहा है, वही हाल दिल का उधर भी हो रहा है। आखिर क्यों इस बार शिवराज सिंह चौहान और कमलनाथ दोनों एक जैसे बयान देकर अपनी ही जनता को कन्फ्यूज कर रहे हैं।
इस चुनाव के बाद दोनों तरफ जलसा
चुनाव होते हैं तो जाहिर है एक पार्टी जीतती है और एक पार्टी हारती है। दोनों खेमे न साथ जीत सकते हैं और न ही साथ में हार सकते हैं। लेकिन नगर सरकार के बाद ऐसा माहौल ही नहीं बना कि कोई हारा हो या कोई जीता हो। कांग्रेस ने अपने दफ्तर पर जमकर जश्न मनाया तो बीजेपी का पूरा कुनबा ही जीत का सेहरा पहनने एक साथ एक मंच पर आ गया। इस चुनाव में दोनों तरफ जलसा सजा लेकिन हार का जिक्र कहीं से नहीं हुआ।
3 साल से अलग-अलग इतिहास रच रही मध्यप्रदेश की सियासत
मध्यप्रदेश की सियासत पिछले तीन साल से अलग-अलग इतिहास रच रही है। वैसे मध्यप्रदेश सियासी हलचलों के मामलों में डेड स्टेट ही है। जहां हर पांच साल में चुनाव होते हैं, सरकार बनती है और उसके बाद पूरे पांच साल आराम से कटते हैं। लेकिन 2018 के बाद से प्रदेश का पूरा पॉलिटिकल मिजाज ही बदला हुआ है। 15 महीने में कमलनाथ की सरकार गिरने के बाद से जब भी कोई चुनाव होते हैं। हर नजर कांग्रेस पर टिकी होती है कि उनका प्रदर्शन कैसा होगा। उपचुनावों से लेकर नगर पंचायत और नगरीय निकाय चुनाव तक ऐसा ही चलता रहा।
नगरीय निकाय चुनाव के नतीजों ने चौंकाया
अब सात साल के अंतराल के बाद नगरीय निकाय चुनाव हुए हैं। उसके नतीजों में भी एमपी की सियासत चौंका रही है। नतीजे ऐसे आए हैं जो पहले कभी देखे नहीं गए। बीते एक या दो दशक में तो बिल्कुल ही नहीं। प्रदेश की हर नगर निगम पर काबिज बीजेपी अब सात नगर निगमों पर सिमट गई है। कांग्रेस जो इस बार बड़े नतीजों की उम्मीद लगाए बैठी थी वो बमुश्किल पांच सीट जीत सकी। दो सीट आप और निर्दलीय के खाते में चली गई। अब इसमें नफा और नुकसान का आंकलन किया जाए तो फिलहाल नफा कांग्रेस का नजर आता है। लेकिन जो कवायद की गई और जो उम्मीदें लगाई गई, उस लिहाज से कांग्रेस आंकड़ा हासिल नहीं कर पाई। नुकसान की बात करें तो एड़ी चोटी लगाने वाली और दिग्गजों की सभा और रैलियां करने वाली बीजेपी नुकसान में नजर आती है। लेकिन वहां भी जश्न कांग्रेस जैसा ही मन रहा है। बीजेपी का कहना है कि वो ज्यादा सीटें जीती है इसलिए जीत उसकी हुई है, जबकि कमलनाथ का दावा है कि 22 साल बाद नगरीय निकाय चुनाव में कांग्रेस ने वापसी की है। ऐसे में जीत का सेहरा तो कांग्रेस के ही सिर सजना चाहिए।
दोनों जीते तो हारा कौन ?
हारा कौन, क्योंकि जीते तो दोनों ही दल हैं तो फिर हारा कौन। अब इस सवाल का जवाब तलाशना बंद कर दीजिए। फिलहाल नेताओं की जीत की खुशी से मतदाता कन्फ्यूज है इसलिए ये सवाल पूछ रहा है लेकिन ये खुशी ज्यादा दिनों तक जारी रही तो डर है कि नेता खुद ही इस जीत के मायाजाल में उलझ कर न रह जाएं। ये भूल जाएं कि अगले साल होने वाले चुनाव के लिए दोनों ही दल वो आंकड़ा नहीं जुटा पाए हैं जो जीत का कॉन्फिडेंस दिला सकें। कमलनाथ वन मैन आर्मी बनकर उभरे जरूर हैं पर क्या सिर्फ 5 सीटें जीतकर वो विधानसभा चुनाव में जीत का झुनझुना नहीं बजा रहे और सात सीटें गंवाने वाली बीजेपी क्या अपना वोटर नहीं खो रही। नगर सरकार में हार जीत से ऊपर भी कई सवाल हैं जो इन राजनीतिक दलों को खुद से पूछने चाहिए। इस जीत में डूबे रहे तो हो सकता है कि वो सवाल नजरअंदाज हो जाएं। जिसका खामियाजा 23 की जंग में भुगतना पड़ जाए।
वोटर्स के मिजाज को समझना जरूरी
जश्न मनाइए कि आपने जीत हासिल की है। मध्यप्रदेश में क्या ये शायद अपने आप में पहले चुनाव होंगे, जहां दोनों ही पक्ष जीत के जश्न में मदहोश हैं। इस जश्न में बज रहे ढोल-ढमाकों की आवाज और शोरगुल में फिलहाल नेताओं को वो सवाल सुनाई नहीं दे रहे जो अगली रणनीति बनाने से पहले उठने लाजमी हैं। कांग्रेस ने कितनी सीटें जीती और सिर्फ उतनी ही क्यों जीती। बीजेपी ने कितनी सीटें गंवाई और क्यों गंवाई। बीजेपी का तर्क है कि हारी हुई सीटों पर उनका प्रत्याशी चयन गलत हो गया। क्या ये स्टेटमेंट पार्टी के दिग्गज चुनावी रणनीतिकारों पर सवालिया निशान नहीं लगाता। कुछ सीटें ऐसी भी हैं जहां कांग्रेस का महापौर है लेकिन परिषद बीजेपी की होगी। क्योंकि पार्षद बीजेपी के ज्यादा जीते हैं। ताज्जुब है कि जो वोटर महापौर के लिए एक बटन कांग्रेस के लिए दबाता है वो दूसरी बार मतदान करते हुए बीजेपी का पार्षद चुनता है। वोटर की ये मानसिकता चौंकाने वाली है न सिर्फ कांग्रेस बल्कि बीजेपी के लिए भी। वोटर के इस मिजाज को स्टडी करना भी दोनों दलों के लिए जरूरी है।
शिवराज और विष्णु के लिए मंथन का वक्त
इन नतीजों में छुपे सार को डिकोड करना भी बहुत जरूरी है। पांच सीटें जीती कांग्रेस बेशक जीत में मशगूल हो सकती है। कमलनाथ के लिए क्या ये चिंतन आवश्यक नहीं कि 230 सीटों का रण क्या इस छोटी जीत पर जीतने का दम भरा जा सकता है। बीजेपी जो कई दशकों बाद इस हार का सामना कर रही है उसके सामने तो कई सवाल हैं। जीत के लिए सीएम से लेकर वीडी शर्मा और ज्योतिरादित्य सिंधिया ने तक रैली और सभाएं कीं। कांग्रेस में जीत का पोस्टर बॉय बने सिंधिया कोई खास कमाल नहीं दिखा सके। जनता ने वीडी शर्मा और शिवराज सिंह चौहान को भी खारिज कर दिया। क्या ये मान लें कि कांग्रेस का दिया जुमलावीर का नारा अब रंग ला रहा है और अब जनता भी जुमलों से ऊब चुकी है। अगर ऐसा है तो शिवराज और विष्णु के लिए ये मंथन का वक्त है।
जीत का चश्मा उतारने पर ही फायदा
जो हालात हैं उन्हें देखकर तो यही लगता है कि जीत का चश्मा नेता जितनी जल्दी उतार देंगे। उनके लिए उतना ही बेहतर होगा। वर्ना कहावत कुछ यूं भी हो सकती है कि सावन में जीत को हर जगह जीत ही जीत नजर आती है। जबकि आंखों पर चढ़ा चश्मा हटेगा तो समझ आएगा कि जनता झांसे में नहीं बल्कि खुद जीत की मायावी दुनिया में उलझ कर रह गए। ये चश्मा जितनी जल्दी उतर जाएगा दोनों ही पार्टियां उतने ही फायदे में रहेंगी।