RAIPUR. उत्तर छत्तीसगढ़ यानी वो इलाका जो किसी भी दल के लिए सत्ता की राह आसान और कठिन कर देता है। इस इलाके में किसान हैं, जंगल है, आदिवासी हैं, उद्योग हैं, मिशनरी हैं, धर्मांतरण के मसले हैं, जो छत्तीसगढ़ को समझते हैं, सियासी हवा को भांपते हैं, उन्हें पता है कि यह किसान, जंगल, आदिवासी, मिशनरी, धर्मांतरण और उद्योग किस तरह छत्तीसगढ़ की सियासत में मौजूं हैं। कांग्रेस आलाकमान राहुल गांधी जिस अडाणी को मोदी का इकलौता मित्र बताते हुए तमाम प्रश्न-आरोप के तीरों से बींधते हैं, वह अडाणी भी इसी इलाके में मौजूद है। उसी इलाके में अडाणी भूपेश सरकार में फल फूल रहा है, पल्लवित हो रहा है, जिस इलाके में 2015 में जाकर राहुल गांधी ने वादा किया था सरकार यदि बनी तो किसी को उजाड़ा नहीं जाएगा। जल, जंगल, जमीन का हक बचाया जाएगा, तब बतौर पीसीसी चीफ भूपेश बघेल उनके साथ थे और साथ थे कई संगठन जो पर्यावरण जंगल आदिवासियों के मसले पर सक्रिय रहते हैं।
यूं तो यही वह इलाका भी है, जहां कांग्रेस के भीतरखाने हलचल मचाने वाला नाम मौजूद है, जिनकी नाराज़गी जाहिर है, जिनके साथ होते अपमान की बातें उनके समर्थकों के बीच बिलकुल साफ़ पहुंचती रही हैं। अगर इतिहास को देखें तो अविभाजित मध्यप्रदेश के समय से यह इलाका कांग्रेस का परंपरागत गढ़ माना जाता रहा है। हालांकि, इन्हीं इलाकों में संघ ने खुद और अनुषांगिक संगठनों ने बेहद दीर्घकालिक योजना के तहत काम किया और जशपुर तथा सामरी जैसे इलाके लंबे अरसे के लिए बीजेपी का पर्याय बन गए। इसके बावजूद संघ की कवायद जारी रही, इलाके को कांग्रेसी ही माना गया। बीजेपी को जबर्दस्त सफलता मिली जोगी शासनकाल के समय हुए चुनाव में, जहां उत्तर छत्तीसगढ़ के अधिकांश इलाकों से कांग्रेस का सूपड़ा ही साफ हो गया। लेकिन उसके बाद वह वैभव बीजेपी को फिर आने वाले दस बरसों में नहीं मिला। 2018 के चुनाव में कांग्रेस ने अपनी पुरानी हैसियत पूरे दम से हासिल कर ली। लेकिन कांग्रेस यह स्थिति बचाए रख पाएगी, इसमें सवाल जैसा कुछ लगता नहीं है। बल्कि कई जानकार बताते हैं कि यह होकर रहेगा, इसमें सवाल तो दूर शंका तक नहीं रखनी चाहिए।
उत्तर छत्तीसगढ़ के इस इलाके में जो कुछ कांग्रेस के लिए 2018 के चुनाव के समय अवसर था। दरअसल वह सब अब चुनौतियों में तब्दील है। फिर वह जल, जंगल, जमीन और आदिवासी का मसला हो, वहां आंदोलन अब भी जारी है और इन इलाकों में राहुल गांधी एक ऐसे नेता के रूप में याद किए जाते हैं, जिनकी सरकार आई और उसके बाद भी राहत तो मिली नहीं, बल्कि आदिवासी के संघर्ष की राह और कठिन हो गई। धर्मांतरण और मिशनरी गतिविधियां बीजेपी के लिए सबसे आकर्षक विषय है और वह भी नुमायां है। इन सबसे अलग जो मसला है, वह है कि विकास किधर गुम है। नई सड़क, नई बिल्डिंग, नया कुछ भी खोजने जाएं तो मिलेगा नहीं। ज्यादा दिन नहीं गुजरे, जबकि हम अपनी टीम के साथ चुनावी चौपाल पर इसी इलाके में थे। सवाल इसी विकास का पूरे जोर से सामने आया था। नरवा गरवा घुरवा और बाड़ी जैसी योजनाएं भी सवालों में आईं, बल्कि आरोप की तर्ज पर कि आख़िर ऐसी योजना बनी कहां और गोबर को लेकर भी मसला इसी अंदाज़ में ही आया। सड़कों का आलम इस बात से समझिए कि जशपुर उत्तर छत्तीसगढ़ का जिला है। यदि राजधानी रायपुर से वहां पहुँचना हो उसके लिए ओडिशा होकर जाना होता है।
कांग्रेस के भीतरखाने यह टीएस सिंहदेव और चरणदास महंत का प्रभाव क्षेत्र है। दोनों को कांग्रेस का जनाधार वाला नेता माना जाता है, दोनों का ही व्यापक प्रभाव भी है। दोनों ही “चुप, मगर घाव करें गंभीर” वाली नीति के प्रतीक माने जाते हैं और दोनों ही अपनी ही पार्टी को सत्ता में लाने के लिए बेहद अहम किरदार निभाते दिख चुके हैं। दोनों के ही क्षेत्र में कांग्रेस के केंद्रीय नेता “सरकार बनेगी तो सीएम बनेंगे” की बात मंच से कह चुके थे। सिंहदेव तो उस घोषणा पत्र समिति के अध्यक्ष थे, जिसे लेकर बगैर शक यह माना जाता है कि इसने ही कांग्रेस की सत्ता में वापसी कराई। अब हाल यह है कि दोनों ही अपनी ही पार्टी की सरकार में अपमान का घूंट पी रहे हैं।
बीजेपी के पास इस इलाके में खोने को कुछ नहीं है। उसे केवल पाना ही पाना है, लेकिन समस्या यह है कि सर्वमान्य संगठक का अभाव है। जूदेव जैसी जीवंत किंवदंती अब नहीं है, फ़ायर ब्रांड उनके पुत्र युद्धवीर भी अब नहीं है। काका लरंग साय जैसा कोई आदिवासी ईमानदार चेहरा भी नहीं है। इन सबके बावजूद संघ है और उसके अनुषांगिक संगठन है। बीजेपी बीते 20 साल से चिर परिचित चेहरों को हटाकर संगठन और चुनाव में उतर गई तो कांग्रेस के लिए मुश्किलें बेहद दुर्घर्ष हो जाएंगी। पर क्या वाकई ऐसा होगा, कह पाना मुश्किल है। पर यदि ऐसा नहीं हुआ तो बीजेपी के लिए फिर ऐसा स्वर्णिम अवसर शायद ही आए।